मंगलवार, 8 सितंबर 2015

संयोगिता हरण के बाद
 सोरों में हुआ था पृथ्वीराज-जयचंद का आखिरी युद्ध
       ‘पृथ्वीराज रासे’ दिल्ली सम्राट पृथ्वीराज चैहान के कार्यकाल का
 वर्णन करनेवाली सुप्रसिद्ध कृति है। माना जाता है कि इसकी रचना पृथ्वीराज
 के मित्र व दरबारी कवि चंद्रबरदाई द्वारा की गयी है। कतिपय इतिहासकार कई
 स्थानों के इसके विवरणों की अन्य समकालीन विवरणों से असंगति के कारण इसकी
 ऐतिहासिकता को विवादित मानते हैं। हो सकता है कि यह पृथ्वीराज की समकालीन
 कृति न हो किन्तु भाषा (डिंगल) तथा छंद प्रयोग की दृष्टि से यह एक
 प्राचीन कृति है, इसमें कोई संदेह नहीं। अतः स्वाभाविक है कि इतिहास न
 होते हुए भी इतिहास के अत्यन्त निकट की कृति है।
       चूंकि यह वीरकाव्य है अतः अपने नायक (पृथ्वीराज चैहान) का अतिशय
 वीरत्व दर्शाने के लिए इस काव्य में घटनाओं के अलंकारिक विवरण मिलना
 स्वाभाविक हैं।
         रासो का एक सुप्रसिद्ध प्रसंग है ‘संयोगिता हरण’। माना जाता है कि यही
 जयचंद्र व पृथ्वीराज के मध्य मनमुटाब का ऐसा कारण बना जिसके बाद भारत का
 एक बड़ा भाग सदियों के लिए विदेशी विधर्मियों की गुलामी सहने को विवश
 हुआ।
         संयोगिता हरण की कथा के अनुसार जयचंद्र की पुत्री संयोगिता
 दिल्ली-सम्राट की वीरता की कथाएं सुन-सुनकर उन पर बुरी तरह आसक्त थी तथा
 उन्हीं को अपने पति के रूप में वरण करना चाहती थी। इसके विपरीत जयचंद,्र
 पृथ्वीराज से कट्टर शत्रुता रखते थे।
         दोनों की इस शत्रुता के कुछ तो राजनीतिक कारण थे और कुछ थे पारिवारिक।
 कहते हैं कि पृथ्वीराज ने दिल्ली का राज्य अपने नाना दिल्ली के नरेश राजा
 अनंगपाल सिंह तंवर (तोमर) से धोखे से हथियाया था। अनंगपाल के दो
 पुत्रियां थीं। इनमें एक कन्नौज नरेश को तथा दूसरी अजमेर नरेश को ब्याही
 थीं। कन्नौज ब्याही पुत्री के पुत्र जयचंद्र थे जबकि अजमेरवाली पुत्री के
 पृथ्वीराज।
         अनंगपाल के कोई पुत्र न होने के कारण दोनों अपने को अनंगपाल के बाद
 दिल्ली का स्वाभाविक उत्तराधिकारी मानते थे। इसमें भी जयचंद्र की सीमाएं
 दिल्ली से मिली होने के कारण इस उत्तराधिकार के प्रति जयचंद्र कुछ अधिक
 ही आग्रही थे। किन्तु छोटा धेवता होने का लाभ उठा पृथ्वीराज अनंगपाल के
 अधिक निकट व प्रिय थे।
         जयचंद्र तो धैर्यपूर्वक समय की प्रतीक्षा करते रहे जबकि पृथ्वीराज ने
 अपनी स्थिति का लाभ उठा, पृथ्वीराज को अपनी यात्राकाल में अपना कार्यभारी
 नियुक्त कर धर्मयात्रा को गये महाराज अनंगपाल की अनुपस्थिति में उन्हें
 सत्ताच्युत कर दिल्ली राज्य ही हथिया लिया। फलतः जयचंद्र की कटुता इतनी
 अधिक बढ़ गयी कि जब उन्होंने अपनी पुत्री संयोगिता का स्वयंवर किये जाने
 का निर्णय लिया तो पृथ्वीराज को आमंत्रित करने के स्थान पर उनकी एक
 स्वर्ण प्रतिमा बना उसे द्वारपाल के रूप में स्थापित करा दिया।
 इधर प्रथ्वीराज को निमंत्रण न भेजे जाने की सूचना जब संयोगिता को मिली तो
 उसने अपना दूत दिल्ली-सम्राट के पास भेज उन्हें परिस्थिति से अवगत कराते
 हुए अपना प्रणय निवेदित किया और सम्राट पृथ्वीराज ने भी संयोगिता के
 ब्याज से जयचंद्र के मान-मर्दन का अवसर पा अपनी तैयारिया आरम्भ कर दीं।
         स्वयंवर की निर्धारित तिथि को संयोगिता के साथ बनी योजना के तहत
 पृथ्वीराज गुप्त वेश में कन्नौज जा पहुंचे और स्वयंवर के दौरान जैसे ही
 संयोगिता ने सम्राट की स्वर्ण प्रतिमा के गले में जयमाल डाली, अचानक
 प्रकट हुए प्रथ्वीराज संयोगिता का हरण कर ले उड़े। अचानक हुई इस घटना से
 हक्की-बक्की दलपुंगव कन्नौजी सेना जब तक घटना को समझ पाये, पृथ्वीराज
 दिल्ली की ओर बढ़ चले।
         चूकि यह हरण पृथ्वीराज की सुविचारित योजना से अंजाम दिया गया था अतः
 पृथ्वीराज के चुनींदा सरदार स्थान-स्थान पर पूर्व से ही तैनात थे तथा
 किसी भी परिस्थित का सामना करने को तैयार थे। इन सरदारों ने प्राणों की
 बाजी लगाकर अपने सम्राट का वापसी मार्ग सुगम किया।
 ( फिरोजाबाद जिले के पैंड़त नामक स्थल में पूजित जखई महाराज, एटा जिले के
 मलावन में पूजित मल्ल महाराज तथा अलीगढ़ जनपद के गंगीरी में पूजित
 मैकासुर के विषय में बताया जाता है कि ये पृथ्वीराज की सेना के उन्हीं
 चुनींदा सरदारों में थे जिन्होंने कन्नौज की सेना के सम्मुख अवरोध खड़े
 करने के दौरान अपने प्राण गवांए।)
         एक ओर एक राज्य की दलपुगब कहलानेवाली सशक्त सेना, दूसरी ओर चुनींदा
 सरदारों के नेतृत्व में स्थान-स्थान पर बिखरी सैन्य टुकडि़यां। इस बेमेल
 मुकाबले में पृथ्वीराज के सरदार कन्नौजी सेना की प्रगति रोकने में अवरोध
 तो बने, उसकी प्रगति रोक न पाये।
         और पृथ्वीराज के सोरों तक पहुंचते-पहुंचते कन्नौज की सेना ने पृथ्वीराज
 की घेरेबंदी कर ली।
         अनुश्रुतियों एवं पुराविद रखालदास वंद्योपाध्याय के अनुसार सोरों के
 सुप्रसिद्ध सूकरक्षेत्र के मैदान में पृथ्वीराज व जयचंद्र के मध्य भीषण
 युद्ध हुआ तथा इस युद्ध में दोनों पक्षों के अनेक सुप्रसिद्ध योद्धा
 वीरगति को प्राप्त हुए। अंततः एकाकी पड़ गये प्रथ्वीराज को कन्नौजी सेना
 ने बंदी बना लिया तथा उनहें जयचंद्र के सम्मुख प्रस्तुत किया गया।
         क्रोधावेशित जयचंद्र तलवार सूंत पृथ्वीराज का वध करने ही वाले थे कि
 उनके सम्मुख संयोगित अपने पति के प्राणदान की भीख मांगती आ खड़ी हुई।
 अपनी पुत्री को अपने सम्मुख देख तथा नारी पर वार करने की हिन्दूधर्म की
 वर्जना के चलते जयचंद्र ने अपनी तलवार रोक ली और- दोनों को जीवन में फिर
 मुंह न दिखाने- का आदेश दे तत्काल कन्नौज राज्य छोड़ने को कहा।
         पृथ्वीराज रासो के 61वें समय में इस प्रसंग का अंकन इस प्रकार हुआ है-
         जुरि जोगमग्ग सोरों समर चब्रत जुद्ध चंदह कहिया।।2401।।
         पुर सोरों गंगह उदक जोगमग्ग तिथि वित्त।
         अद्भुत रस असिवर भयो, बंजन बरन कवित्त।।
         अत्तेन सूरसथ तुज्झा तहै सोरों पुर पृथिराज अया।।2402।।
 (इस सम्बन्ध में दो अन्य कथाएं भी प्रचलित हैं। इनमें पहली कथा के अनुसार
 तो संयोगिता नाम की कोई महिला थी ही नहीं। यह पूरा प्रकरण
 एटा-मैनपुरी-अलीगढ व बदायूं क्षेत्र की संयुक्तभूमि (संयुक्ता) पर अधिकार
 के लिए लड़े गये युद्ध का अलंकारिक विवरण है। वहीं दूसरी कथा के अनुसार
 दरअसल संयोगित (इस कथा की शशिवृता) जयचंद्र की पुत्री नहीं ... के जाधव
 नरेश... की पुत्री थी। ... का राज्य पृथ्वीराज की दिग्विजय से आतंकित था
 तथा अपने अस्तित्व के लिए किसी सबल राज्य का संरक्षण चाहता था। इस
 संरक्षण को प्राप्त करने के लिए उसने अपनी अवयस्क पुत्री शशिवृता को
 जयचंद्र को इस अपेक्षा के साथ सोंपने का निश्चय किया कि भविष्य में उसका
 कन्नौजपति जामाता उसका संरक्षक हो जाएगा। चूंकि यह विवाह राजनीतिक था अतः
 पृथ्वीराज के विरूद्ध अपनी शत्रुता को दृष्टिगत रख जयचंद्र ने भी इस
 प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकारा।
 निर्धारित तिथि को जयचंद्र बारात लेकर पहुंचें, इससे पूर्व ही इस नवीन
 राजनीतिक गठबंधन को ध्वस्त करने के लिए पृथ्वीराज ने इस राज्य पर आक्रमण
 कर दिया। जयचंद्र के साथ गयी सेना के सहयोग से जाधव राजा ने आक्रमण तो
 विफल कर दिया किन्तु इस तनावपूर्ण परिवेश में विवाह की परिस्थिति न रहने
 के कारण जयचंद्र की वाग्दत्ता शशिवृता को जयचंद्र के साथ ही कन्नौज, उचित
 अवसर पर विवाह करने के वचन सहित भेज दिया।
 इस युद्ध में पृथ्वीराज द्वारा दिखाए अपूर्व शौय से प्रभावित शशिवृता
 प्रौढ जयचंद्र के स्थान पर युवा पृथ्वीराज पर आसक्त हो गयी। जहां चाह
 वहां राह। शशिवृता के प्रणय-संदेश तथा संदेशवाहक द्वारा की गयी रूपचर्चा
 ने पृथ्वीराज की आसक्ति भी बढ़ाई और परिणाम- एक षड्यंत्र की रचना हुई।
 इस षड्यंत्र के तहत एक दिन जब सजे-संवरे महाराज जयचंद्र ने दरबार जाने से
 पूर्व सामने मौजूद अपनी वाग्दत्ता शशिवृता से अपनी सजावट के विषय में
 पूछा कि- कैसा लग रहा र्हूं? तो शशिवृता ने उत्तर दिया- जैसा एक पिता को
 लगना चाहिए।
 अवाक् जयचंद्र ने जब इस प्रतिकूल उत्तर का कारण पूछा तो पृथ्वीराज की
 दूती की सिखाई शशिवृता का उत्तर था कि एक कन्या का पालन या तो उसका पिता
 करता है या विवाहोपरान्त उसका पति। चूंकि महाराज से उसका विवाह नहीं हुआ
 है और महाराज उसका पालन भी कर रहे हैं तो महाराज स्वयं विचारें कि वे ऐसा
 किस सम्बन्ध के आधार पर कर रहे हैं।
 निरुत्तर जयचंद्र ने बाद में शशिवृता को स्वयं अपना वर चुनने की
 स्वाधीनता देते हुए स्वयंवर कराया जिस में बाद में घटित घटनाक्रम ऊपर
 वर्णित ही है।)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें