शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

some historical stories of etah by Krishnaprabhakar upadhyay

यहां सुल्तान बलबन ने 6माह तक कराया नृशंस कत्लेआम
मुहम्मद गोरी की दिल्ली-कन्नौज विजय के बाद उसके अधिकार क्षेत्र में आये भारतीय क्षेत्रों को स्वभावतः उसका राज्य माना गया किन्तु वास्तव में ऐसा था नहीं। इस क्षेत्रों के भारतीय नरेश अपनी मातृभू के एक-एक अंगुल के लिए तब तक संघर्ष करते रह,े जब तक जीवन रहा अथवा पराजित न हुए।
1194ई0 में फिरोजाबाद जिले के चंदवार नामक स्थान पर गोरी-जयचंद युद्ध के बाद मुहम्मद गोरी जयचंद द्वारा शासित बनारस-बिहार तक विस्तृत राज्य के कतिपय क्षेत्रों पर लूटमार करने में भले ही सफल रहा हो, विजित किसी भी क्षेत्र को नहीं कर सका था। राज्याधिकार तो अभी दूर की बात थी।
इस क्षेत्र के प्रभावी कन्नौज नरेश जयचंद की मौत के बावजूद उसकी राजधानी अभी सुरक्षित थी जहां से उसके पुत्र हरिश्चद्र(उपनाम बरदाईसेन) के नेतृत्व में भारतीय वीर अपनी जन्मभूमि की रक्षा को तत्पर थे।
अपनी कथित विजय के बाद भी भारतीय क्षेत्रों पर अधिकार करने में असफल रहा गोरी 1198ई0 में एक बार फिर लौटा और इस बार कन्नौज को अपना निशाना बना उसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इस हानि के बाद कन्नौजी शक्ति विखण्डित हो गयी।
महाराज हरिश्चन्द्र ने पहले इटावा जनपद को अपना केन्द्र बनाया किन्तु वह भी हाथ से निकला तो फरूखाबाद जिले के खोर(आधुनिक शम्शाबाद) नामक स्थान पर केन्द्रित हो गये। महाराज के साथी-सहयोगियों ने आसपास के पटियाली, कम्पिल व भोजपुर जैसे गंगातटीय स्थलों में अपने केन्द्र बनाए।
गोरी के प्रतिनिधि के रूप में दिल्ली के सुल्तान बने उसके गुलाम कुतबुद्दीन ऐबक, 1210 में सुल्तान बने आरामशाह, 1210 में ही सुल्तान बने शमशुद्दीन अल्तमश (इल्तुतमिश), 1236 के स्कनुद्दीन फिरोजशाह जो मात्र 6 माह 28दिन सुल्तान रहा, तत्पश्चात सुल्तान बनी रजिया बेगम, 1240 में रजिया को मार सुल्तान बनाया गया बहरामशाह, 1242 का अलाउद्दीन शाह आदि सभी ऐसे सुल्तान से जो एक ओर अपने आंतरिक संघर्षो में उलझे थे दूसरी ओर एक-दूसरे के प्राणों के प्यासे थे तो दूसरी ओर भारतीय नरेश एक के बाद एक अपने खोये क्षेत्र वापस लेते जा रहे थे।
इस मसूदशाह का एक सेनानायक था बहाउदफदीन बलवन। महमूद ने इसका विश्वास कर इसे उलूगखां की उपाधि व सेना पर नियंत्रण के अधिकार दे रखे थे। यह 1246 में सुल्तान बने नासिरूद्दीन महमूद के काल तक इतना शक्तिशाली हो गया कि 1266 में उसे मार स्वयं सुल्तान बन बैठा।
बलबन के काल तक आते-आते इस कथित दिल्ली सुल्तनत (जिसे भ्रमवश भारत की सुल्तनत समझा और प्रचारित किया जाता है) का हाल इतना बुरा था कि ‘दिल्ली के आसपास रहनेवाले मेवों के भय से नगर के पश्चिमी द्वारा दोपहर की नमाज के परूचात बंद कर दिए जाते थे।’ द्वार बंद होने के बाद किसी का इतना साहस तक नहीं होता था कि वह वहां स्थित मकबरों व तालाबों की भी सैर को जा सके। ऐसा नहीं कि मेवों का भय दोपहर बाद से ही शुरू होता हो। चारों तरफ से घेर ली गयी दिल्ली राजधानी व सुल्तनत के अधिकांश क्षेत्रों में दोपहर पूर्व भी ये यथाशक्ति लोगों को सताते रहते थे।
ऐसी स्थिति में सुल्तान बनने के बाद बलबन ने साहसिक कदम उठा सबसे पहले तो मेवों का दमन कराया। वहां के जंगल नष्ट कराये तथा उनके गांवों में नृशंस कत्लेआम कराए। इस कार्य में सफल होते ही उसने सुल्तनत की दूसरी समस्या- भारतीय नरेशों द्वारा स्वाधीन कराए क्षेत्रों को मुक्त कराने के प्रयास प्रारम्भ किये।
दिल्ली से लगे दोआब के क्षेत्र (गंगा-यमुना का मध्यवर्ती भाग) का हाल तो इतना बुरा था कि सुल्तनतकालीन इतिहासकार बरनी के शब्दों में --
मेवों की समस्या का समाधान कर बलबन ने दोआव के क्षेत्रों पर ध्यान दिया। प्रायः समूचाक्षेत्र स्वाधीन तो था ही, मुस्लिम शासकों के प्रति इतना असहिष्णु था कि उनके संरक्षण में चलनेवाले व्याार के गंगानदी-मार्ग पर अपना कड़ा अधिकार जमाए था। बलबन के हिन्दुस्थान (वास्तव में अवध आदि स्वाधीन तथा दिल्ली सुल्तनत से प्रथक क्षेत्र) से होनेवाले व्यापार के लिए जानेवाले कारवां के मार्ग की बड़ी वाधा इस क्षेत्र के पटियाली, कम्पिल व भोजपुर के दुर्ग तथा वहां के नरेश (इन्हें ही सुल्तनत के विवरण विद्रोही की संज्ञ देते हैं)।
बरनी के अनुसार ‘दोआब की समस्या का समाधान करने के पश्चात बलवन ने हिन्दुस्तान का मार्ग खोलने की दुश्टि से दो बार नगर से कूच किया (निश्चय ही पहले कूच में उसे असफलता मिली)’। वह कम्पिल व पटियाली पहुंचा और उन क्षेत्रों में 5 या 6 मास रहा।
लगता है बलबन का यह दूसरा अभियान भी असफलता की ओर बढ़ रहा था। इसीलिए खिसियाए बलबन ने (इतिहासकार बरनी के अनुसार) बिना किसी सोच-विचार के डाकुओं और विद्रोहियों (वास्तव में स्वाधीनता के पुजारियों) का संहार किया। हिन्दुस्तान का मार्ग खुल गया तथा व्यापारी व कारवां सुरक्षित आने-जाने लगे। इन क्षेत्रों से भारी मात्रा में लूट की सम्पत्ति दिल्ली लायी गयी जहां दास व भेड़ें सस्ती हो गयीं।
6 माह के नृशंस कत्लेआम के बाद स्वाधीन केन्द्र कम्पिल व पटियाली और भोजपुर के दृढ दुर्ग नष्ट कर वहां ऊॅंची व विशाल मस्जिदों का निमार्ण कराया गया तथा यह क्षेत्र दुर्ग से सम्बद्ध भूमिसहित अफगानों को कररहित रूप से सोंप दिया गया।
(एटा व फरूखाबद जिलों में रह रहे प्राचीन अफगान शासक परिवार तथा अलीगढ जिले का जलाली व अन्य अफगानियों के शासन में रहे कस्बे इसी बलबन द्वारा यहां बसाए गये अफगानों के अवशेष हैं)।
दिल्ली सुल्तनत की ढ़ाई वर्ष राजधानी रहा है पटियाली का स्वर्गद्वारी क्षेत्र
जी हां, यह सच है। पटियाली के समीपवर्ती क्षेत्र स्वर्गद्वारी में एक-दो दिन नहीं पूरे ढाई बरस दिल्ली सुल्तनत की राजधानी रही है।
यह कहानी है नवम्बर21, 1324 (14 जिलहिज्जा 724 हिजरी) को दिल्ली के सुल्तान बने मुहम्मद बिन तुगलुक के समय की। दिल्ली सुल्तनत का सुल्तान बनने के बाद 1328-29 में उसने अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद(देवगिरि) ले जाने का प्रयास किया किन्तु वहां की विपरीत परिस्थितियों के कारण 1330-31 में दिल्ली वापसी कर फिर दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया।
दिल्ली से देवगिरि के गमनागमन में न तो लोग व्यवस्थित हो सके न किसानों द्वारा समय पर फसलें ही उगायी जा सकीं। ऐसे में 1333 में वर्षा न होने से दिल्ली में अकाल की स्थित बन गयी।
सुल्तान ने इस स्थिति का सामना करने के लिए पहले तो दोआब के हिन्दू किसानों पर भूमिकर एक से बढ़ाकर दस गुना कर इस कठोर मांग को इतने उत्पीड़न से पूरा कराया कि उत्पीडि़त दोआबवासी अपनी-अपनी फसलों को खुद जलाने लगे तथा स्वयं वनों की शरण लेने लगे।
जब दोआब से खाद्यान्न की आपूर्ति न मिली तो सुल्तान ने अपने शिकदारों को उन्हें लूटने के आदेश दिए। किन्तु इस लूटमार के बावजूद दोआब के असंतुष्ट नागरिकों पर काबू न पाया जा सका तो मुहम्मद तुगलक ने स्वयं शिकार के बहाने बरन (आधुनिक बुलंदशहर) आकर सेना को कन्नौज से डलमऊ तक के क्षेत्रों को लूटने तथा यहां की हिन्दू जनता का वध करने के आदेश दिये।
सुल्तान के इन आक्रमणों ने स्थिति को और दुरूह बना दिया। अंततः सुल्तान ने अकाल से बचने के लिए अपने नागरिकों को सपरिवार हिन्दुस्तान (वास्तव में अवध) जाने की आज्ञा दे दी।
सुल्तान मुहम्मद स्वयं भी राजधानी से बाहर आया तथा पटियाली और कम्पिला (फरूखाबाद जिले का कम्पिल) होता हुआ नगर के सामने गंगा किनारे पहुंचा। यहां नगर के सामने गंगा के किनारे डेरा डाला। सैनिकों ने अपने घास-फूंस के मकान खेती की हुई भूमि पर बनाए तथा इस शिविर का नाम स्वर्गद्वारी रखा गया।
(वास्तव में शिविर का नाम स्वर्गद्वारी रखा नहीं गया वल्कि शिविर के स्वर्गद्वारी नगर के सामने होने के कारण सरकारी अभिलेखों में सर्गद्वारी कहा गया। कारण, किसी मुस्लिम सुल्तान वह भी ऐसे सुल्तान से जो देवगिरि को राजधानी बनाते समय उसका नाम भी दौलताबाद रखता हो, से अपने शिविर का हिन्दू स्वर्गद्वारी या सर्गद्वारी नाम रखने की कल्पना भी नहीं की जा सकती)।
इब्ने बत्तूता के अनुसार सुल्तान को स्वर्गद्वारी शिविर में लगभग ढाई साल रूकना पड़ा। इसके अनुसार  यह शिविर 738 हिजरी से 741 हिजरी (1338 से 1340ई0) तक रहा। इस दौरान उसे अपने सर्वाधिक विश्वसनीय आइनउलमुल्क के अवध, जाफराबाद विद्रोह, शियाबुद्दीन नुसरतखां के बीदर विद्रोह व अलीशाह नाथू के गुलवर्ग विद्रोह का सामना करना पड़ा। इनमें आइनउलमुल्क का विद्रोह सुल्तान को संकट में डालनेवाला था। सुल्तान द्वारा इस काल में दिये अपने आदेशों में स्वयं को दिल्ली सुल्तान के स्थान पर ‘सुल्तान-ए-सर्गदारी’ लिखा जाता था।
रिजोर की 5 हजार सेना भी लड़ी थी बाबर से
सोलहवीं सदी भारतीय इतिहास में दिल्ली सुल्तनत के अंत तथा मुगलवंश की स्थापना के रूप में जानी जाती है।
1526 में मुगलवंश का शासन स्थापित करनेवाले मुगल बादशाह का प्रमुख युद्ध मेवाड़ नरेश राणा सांगा (महाराणा संग्रामसिंह) से ही हुआ था।
फतेहपुर के समीप कानवाह या खानवा नामक स्थल  पर लड़े गये। इस युद्ध में एक ओर राणा सांगा के नेतृत्व में भारतीय सेना थी तो दूसरी ओर आधुनिक शस्त्रों व तोपखाने से सुसज्जित बाबरी सेना।
राणा सांगा की इस सेना में जहां उनके अधीनथ राजाओं व सरदारों का सेन्यल था तो इसमें ऐसे नरेशों की सेनाएं भी थीं जो एक विदेशी शक्ति के भारत में अधिकार का विरोध करने की भावना से स्वेच्छा से इस संघ में सम्मिलित हुए थे।
इन्हीं में एक थे तत्कालीन रिजोर नरेश के सेनानायक तथा चचेरे भाई राव मानकचंद। रिजोर नरेश ने इनके नेतृत्व में 5 हजार सेना का दल इस युद्ध में भाग लेने भेजा था।
आधुनिक टेक्नाॅलाजी व तोपों के समक्ष भारतीय शौर्य टिकता भी कि उसके सेनानायक राणा की आंख में लगा संघातिक वाण, युद्ध की विजय को पराजय में बदल गया। वाण के कारण राणा को युद्धक्षेत्र से हटाया जाना, राणा की पराजय का का कारण बन गया।
महाराणा के युद्धक्षेत्र से हटने के बाद जहां अन्य नरेशों की सेनाएं अपने-अपने राज्यों को वापस चली गयीं वहीं इस युद्ध में अपूर्व शौर्य का प्रदर्शन करनेवाले राव मानिकचंद को राणा ने वापस न आने दिया। राणा ने इन्हें कई युद्धों में अपने साथ रखा तथा मेवाड़ लौट इन्हें एक बड़ी जागीर दे वहीं स्थापित किया।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें