सोमवार, 23 नवंबर 2015

history of etah by k.prabhakar Upadhyay

आदितीर्थ श्रीसूकरक्षेत्र
जिले का सर्वाधिक प्राचीन स्थल आदितीर्थ श्रीसूकरक्षेत्र को माना जाता है। एटा मुख्यालय से उत्तर की ओर सड़क मार्ग से करीब 45किमी दूर इस प्राचीन तीर्थ की महत्ता सृष्टि के तीसरे तथा भूमि के प्रथम अवतार श्रीमद्वराह की अवतरण भूमि होने के कारण है।
सूकरक्षेत्र की स्थिति का सर्वाधिक प्रामाणिक विवरण ‘गर्ग संहिता’ में उपलब्ध है। इसमें बहुलाश्व-नारद के मध्य हुए संवाद के माध्यम से (वर्तमान बुलंदशहर जनपद स्थित रामघाट) की स्थिति बतायी गयी है, जहां कृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता बलराम जी द्वारा गंगास्नान किया गया तथा त्रुधों द्वारा जिसे स्थल को तीर्थस्थल की मान्यता दी गयी।
गर्गसंहिता(मथुरा खंड) में इस स्थल का परिचय देते हुए कहा गया है-
कौशाम्बेश्च किमद्दूरं स्थले किस्मान्महामुने
रामतीर्थ महापुण्यं महयं वक्तुव मर्हसि।।
कौशाम्बेश्च तदीशान्या चतुर्योजन मेव च
वायाव्यां सूकरक्षेत्राच्चतुर्योजन मेव च।।
कर्णक्षेत्राश्च षट्कोशेर्नल क्षेत्राश्च पश्चिभः
आग्नेय दिशि राजेन्द्र रामतीर्थ वदंतिहि।।
वृद्धकेशी सिद्धिपीठा विल्वकेशानुत्पुनः
पूर्वास्यां च त्रिभिक्रोशे रामतीर्थ विवुर्वुधा।।
(हे राजेन्द्र, कौशाम्बी (अलीगढ का कोल नामकरण से पूर्व का नाम) से इशान कोण में चार योजन, सूकरक्षेत्र से वायव्य कोण पर चार योजन, कर्णक्षेत्र(वर्तमान बुलंदशहर जनपद स्थित कर्णवास) से छह कोस और नलक्षेत्र (वर्तमान बुलंदशहर जनपद स्थित नरवर या नरौरा)से पांच कोस आग्नेय दिशा में रामतीर्थ की स्थिति बताते हैं। इसके अलावा वृद्धकेशी, सिद्धपीठ व विल्बकेश वन (वर्तमान बुलंदशहर जनपद स्थित बेलोन)से यह क्षेत्र तीन कोस पूर्व दिशा में है।)
सूकरक्षेत्र का विस्तार
सूकरक्षेत्र का विस्तार विभिन्न पुराणों में पंचयोजन विस्तीर्ण मिलता है। यह पांच योजन क्षेत्रफल के रूप में हैं अथवा केन्द्र से प्रत्येक दिशा में, विद्वानों में इस विषय में मतभेद हैं किन्तु सर्वाधिक सटीक अनुमान इस क्षेत्र के क्षेत्रफल के रूप में ही प्रतीत होता है। पंच योजन अर्थात बीस कोस, अर्थात 33मील, अर्थात 53किमी। ‘पद्म पुराण’ में भी सूकरक्षेत्र की यही स्थिति स्वीकारी गयी है- ‘पंचयोजन विस्तीर्णे सूकरे मय मंदिरे’। यदि इस प्रमाण को आधार माना जाय तो कासगंज-अतरौली के मध्य प्रवाहित नींव नदी, कासगंज-एटा के मध्य में प्रवाहित प्राचीन इच्छुमति (काली) नदी तथा वृद्ध गंगा (गंगा की वह धारा जो पहले गंगा की मुख्य धारा थी तथा इस काल तक आते-आते वृद्ध गंगा नाम से पुकारी जाने लगी थी) के मध्य का भाग सूकरक्षेत्र के रूप में माना जा सकता है।
कृतयुगीन जनपद
भारतीय गणना के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के स्वर्गारोहण के बाद कृतयुग या कलियुग का आरम्भ हुआ है। बर्तमान ईसवी सन् से गणना करें तो यह ईसा से 3102 वर्ष पूर्व बैठता है। इस काल के ऐतिहासिक विवरणों के श्रोत पुराण तथा अनुश्रुतियां और सम्पूर्ण जनपद में बिखरी पुरा-सम्पदा ही हैं।
महाभारत युद्ध के उपरान्त विजयी पाण्डवों ने युधिष्ठिर के नेतृत्व में समग्र भारत पर शासन किया। द्रुपदपुत्र धृष्टध्युम्न व उनके वंशज निश्चित रूप से पांडवों से अमने अंतरंग सम्बन्धों के चलते अपने इस पंचाल क्षेत्र के स्थानीय शासक रहे होंगे किन्तु इतिहास में इनके पश्चातवर्ती उल्लेख नहीं मिलते। युधिष्ठिर के पश्चात सम्राट परीक्षित का भारत-सम्राट होना उल्लिखित है। परीक्षित का काल युग-संधि का काल माना जाता है।
जनमेजय का नागयज्ञ और जनपद
पौराणिक विवरणों के अनुसार परीक्षित को अपने अंतिम समय में नागों से संघर्ष करना पड़ा। तक्षक नाग से हुए इस संघर्ष में परीक्षित की मौत होने पर नागों के विरूद्ध उनके पुत्र व अगले भारत सम्राट जनमेजय का क्रोध स्वाभाविक था। उसने नागयज्ञ के माध्यम से नागों के समूल नाश का संकल्प लिया। पौराणिक विवरण हालांकि इस नागयज्ञ का स्थल लाहौर के आसपास स्वीकारती हैं किन्तु अनुश्रुतियां जनपद के सुप्रसिद्ध पुरावशेष अतरंजीखेड़, एटा-शिकोहाबाद मार्ग स्थित ग्राम पाढम (पूर्वनाम वर्धन या पांडुवर्धन) आदि को भी नागयज्ञ के स्थलों के रूप में स्वीकारती हैं। (पाढम से कुछ ही दूरी पर स्थित दूसरे पुरावशेष रिजोर में करकोटक नाग के नाम पर करकोटक ताल व करकोटक मंदिर होने से संभव है कि नागों की करकोटक जाति के विरूद्ध अभियान इस क्षेत्र में भी चलाया गया हो तथा इसके केन्द्र अतरंजीखेड़ा व पाढम आदि रहे हों।)
जनमेजय की सोरों यात्रा
गर्गसंहिता के मथुराखंड के विवरण तत्कालीन भारतसम्राट जनमेजय का अपने आचार्य श्री श्रीप्रसाद के निर्देशों के अनुसार अपने पूर्वजों के श्राद्धकर्म व तर्पण हेतु सूकरक्षेत्र आना तथा यहां एक मास रहना स्वीकारते हैं-
कौरवाणां कुले राजा परीक्षिदित विश्रुतः
तस्य पुत्रेित तेजस्वी विख्यातो जनमेजयः।48।
ततस्वाचत्य्र्य वर्यस्य श्री प्रसादस्य चाज्ञाया
गमन्ना सूकरक्षेत्रं मासमेकं स्थितोर्भवत्।51।
सोलंकी (चालुक्य) वंश और सोरों
सूकरक्षेत्र को चालुक्य वंश की उद्भव भूमि भी माना जाता है। ‘चालुक्य वंश प्रदीप’ के अलावा विक्रमांक चरित जैसी कृतियां, चालुक्यों के प्राचीन शिलालेखों पर अंकित विवरण तथा क्षत्रियों की वंशावली आदि के विवरणों से ध्वनित होता है कि चालुक्य के आदि पुरूष माण्डव हारीति की आरम्भिक गतिविधियों का केन्द्र यही सूकरक्षेत्र ही रहा है।
चालुक्य वंश की गणना क्षत्रियों के 36 राजवंशों में की जाती है। अनुश्रुतियां व कतिपय ऐतिहासिक प्रमाण इनका मूल स्थान सोरों स्वीकारते हैं। इस वंश का मूल पुरूष माण्डव्य हारीति को माना जाता है। पुलकेशियन द्वितीय के शिलालेख के अनुसार- मानव्यसगोत्राणां हारितिपुत्राणां चालुक्यानामन्ववाये...।
कवि चंदबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो तथा इन अनुश्रुतियों के अनुसार राष्ट्र में क्षत्रिय वंश का क्षरण होने पर ऋषियों ने राजस्थान के आबू पर्वत पर एक यज्ञ कर अग्निवंश नाम से एक नवीन वंश की रचना की। चैहान, चालुक्य, परमार व प्रतिहार नामों से कालांतर में इतिहास-प्रसिद्ध हुए इन चारों वंशों में चालुक्य वंश के आदिपुरूष माण्डव्य हारीति क्षत्रिय वर्ण में दीक्षित होने के बाद तपश्चर्या के लिए सूकरक्षेत्र में आये।
चालुक्य वंश प्रदीप के अनुसार ऋषि हारीति ने यहां गंगाजल का चुलूकपान (चुल्लू में भरकर गंगाजल पान) करने के कारण जनसामान्य में चुल्लूक या चालुक्य नाम पाया। (सूकरक्षेत्र में सोरों के समीप चुलकिया स्थल इसी के साक्षी स्वरूप माना जाता है।) उसने बदरी नामक ग्राम में सत्संग किया तथा चुलूक में जलपान करने के कारण चुलूक या चैलक कहलाया। उल्लिखित बदरी ग्राम आज का बदरिया ग्राम है जो सोरों के दूसरे किनारे पर है। यहीं सोलहवीं सदी में गोस्वामी तुलसीदास जी की ससुराल थी जहां अचानक पहुंच जाने से पत्नी से मिली प्रताड़ना उनके सिद्ध संत बनने का हेतु बनी।
यहां वे पांचाल के तत्कालीन नरेश शशिशेखर की दृष्टि में आये जिन्होंने उनकी वीरता से मोहित हो अपनी बेटी वीरमती को उनके साथ ब्याह दिया। पांचाल नरेश के पुत्र न होने के कारण उनके उपरान्त हारीति ही पंचाल नरेश भी बने। पं0 विश्वेश्वरनाथ रेउ द्वारा लिखित राष्ट्रकूटों का इतिहास में भी इसका उल्लेख किया गया है। उनके अनुसार- सोलंकी राजा त्रिलोचनपाल के शक संवत 972/ वि0सं0 1107 के ताम्रपत्र से प्रकट होता है कि सोलंकियों के मूलपुरूष चालुक्य का विवाह कन्नौज के राष्ट्रकूट राजा की कन्या से हुआ था। इससे ज्ञात होता है कि राष्ट्रकूटों का राज्य पहले भी कन्नौज में रहा था।
हारीति के पुत्र बेन को उत्तरभारत के सर्वाधिक विस्त्त एवं प्राचीन अतरंजीखेड़ा के समुन्नत नगर का संस्थापक तथा चक्रवर्ती सम्राट माना जाता है। बघेला के अनुसार हारीति के बेन के अतरिक्त 10 अन्य पुत्र थे। हारीतिदेव ने राज्यविस्तार किया तथा अनलपुर दुर्ग की स्थापना की। उन्होंने मगध, पाटलिपुत्र अंग, कलिंग, बंगाल, कन्नौज, अवध व प्रयाग आदि को विजित किया। इसके उपरान्त बेन को राज्य पर अधिष्ठित करके स्वयं तपस्या करने प्रस्थान किया।
बैन ने कालीनदी के किनारे अतिरंजीपुर नामक नगर बसाया तथा दुर्ग का भी निर्माण कराया। बैन की पताका पर गंगा-यमुना तथा वराह अंकित थे। रखालदास वंद्योपाध्याय कृत प्राचीन मुद्रा के प्र0 277 में चालुक्यवंशी राजाओं के सिक्कों पर चालुक्य वंश का चिहन वराह अंकित होना बताया है।
चालुक्य वंश प्रदीप बैन के सात विवाहों से 32 पुत्रों की उत्पत्ति मानता है। इनमें बड़े सोनमति राज्य के अधिपति बने। इन्होंने सोन नाम से अनेक नगरों को बसाया। सोनहार पुरसोन/परसोन, सोनगिरि/सोंगरा आदि सोनमति द्वारा स्थापित माने जाते हैं। सोनमति के बाद कृमशः भौमदेव, अजितदेव, नृसिंहदेव, व अजयदेव इस वंश के वे शासक हुए जिन्होंने अतिरंजीपुर राजधानी से शासन किया।
चालुक्य वंश प्रदीप के विवरणों के अनुसार इस क्षेत्र में इस वंश के कुछ समय शासन करने के बाद निर्बल होने अथवा नवीन क्षेत्रों की विजय करने के फलस्वरूप यह वंश अजयदेव के काल में अयोध्या स्थानांतरित हो गया। यहां इस वंश ने 59 पीढी तक शासन किया। इसके बाद यह वंश निर्बल हो गया तथा इनसे अयोध्या की सत्ता छिन गयी। इनकी एक शाखा दक्षिण चली गयी जहां इस वंश के तैलप नामक राजा ने 973ई0 में अपनी वीरता से कर्नाटक प्रदेश के कुन्तल को राजधानी बनाया। बाद में यह एक साम्राज्य स्थापित करने में सफल रही। नवीं सदी में इसकी एक शाखा पुनः अपने उद्भवक्षेत्र लौटी और यहां शासन किया।(विस्तृत विवरण जनपद के राजवंश शीर्षक में देखें)।
गंगा के कांठे में बाढ से नष्ट हुई पांचाली सभ्यता
अतरंजीखेड़ा सहित कालीनदी से लेकर गंगा तक के क्षेत्र के एक लम्बे समय तक बाढ़ में डूबे होने के संकेत जिले के अतरंजीखेड़ा, जखेड़ा से लेकर बुलंदशहर के इंदौरखेडा आदि प्राचीन पुरावशेषों के कार्बन परीक्षण बताते हैं कि यह क्षेत्र एक लम्बे समय तक जलमग्नक्षेत्र रहा है।
पौराणिक विवरणों में भी उल्लिखित है कि जनमेजय की चैथी/छटी पीढ़ी के शासक निचक्षु के शासनकाल में हस्तिनापुर में गंगा के काठे की नदियों द्वारा अपना मार्ग बदलने के कारण हुए जलप्लावन में हस्तिनापुर बाढ में डूब गया तथा निचक्षु को अपनी राजधानी प्रयाग के समीप कौशाम्बी में स्थांतरित करनी पड़ी। यहीं से पांडव वंश और प्राचीन पांचाल वंश शनै-शनै पराभूत होने लगे। अब अवन्ती के शासक प्रद्योत व उसकी राजधानी उज्जैन, वत्स का शासक उदयन व राजधानी कौशाम्बी आदि प्रमुखता प्राप्त करने लग,े जबकि प्रथम स्थान पर रहनेवाला पांचाल दसवें स्थान पर आ गया।
भगवान बुद्ध और जनपद
भगवान बुद्ध के समय देश के 16 महाजनपदों में बंटे होने के विवरण मिलते हैं। इनमें एटा जिले का अधिकांश भूभाग(जलेसर क्षेत्र को छोड़कर) पांचाल महाजनपद के अंतर्गत था। इस काल में बेरन्जा(अतरंजीखेडा), बौंदर, बिल्सढ, पिपरगवां के अलावा वर्तमान जनपद फरूखाबाद के काम्पिल्य तथा संकिसा आदि इस क्षेत्र के प्रमुख नगरों के रूप में प्रतीत होते हैं। सोरों इस काल में एक ऐसा प्रमुख तीर्थस्थल है जहां के आचार्य एक बौद्ध धर्मसभा की अध्यक्षता करते पाये जाते हैं। (पटियाली को राजा द्रुपद की रानी/दासी पटिया द्वारा स्थापित किये जाने तथा इस काल की कई ऐतिहासिक घटनाओं का स्थल होने के बावजूद बुद्ध के काल में प्रमुखता नहीं दिखती।)
भगवान बुद्ध का जनपद आगमन
बुद्ध अपने जीवनकाल मंे प्रथम बार अपना बारहवां वर्षावास बिताने जिले में आये। इसे बौद्ध साहित्य में बेरंजा कहा गया है। (कनिघम आदि पुरावेत्ता बेरंजा को ही वर्तमान अतरंजीखेड़ा स्वीकारते हैं)। इस काल में यहां वैदिक नरेश अग्निदत्त शर्मा का शासन था। बौद्ध साहित्य के विवरण बताते हैं कि नरेश के बौद्ध विरोधी होने के कारण तथा इसी समय राज्य के दुभिक्ष के शिकार होने के कारण अपने वर्षावास में बुद्ध को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
भगवान बुद्ध का जनपद में द्वितीय प्रवास मथुरा से प्रयाग जाते समय हुआ। उस समय सौरेय्य(सोरों, संकरस(संकिसा) व कान्यकुब्ज होते हुए ही आवागमन की व्यवस्था थी। बुद्ध भी इसी मार्ग से धर्मोपदेश देते हुए प्रयाग गये।
सूकरक्षेत्र पर बुद्धधर्म का प्रभाव
आचार्य वेदवृत शास्त्री आदि विद्वानों के मतानुसार बौद्ध धर्म के महायान पंथ में प्रचलित वराहदेव व वराहीदेवी की पूजा इसी सूकरक्षेत्र के बौद्ध धर्म पर प्रभाव के कारण है।
सोरों के भिक्षु द्वारा धर्मसभा की अध्यक्षता
ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्ध के समय में ही बौद्ध धर्म का इस क्षेत्र में खासा प्रभाव हो गया था। बेरन्जा विहार के अलावा सौरेय्य विहार इस क्षेत्र के प्रमुख बौद्ध विहार थे। सौरेय्य विहार के भिक्षु रेवत द्वारा भगवान बुद्ध के स्वर्गारोहण के सौ वर्ष पश्चात हरिद्वार में आयोजित एक धर्मसभा की अध्यक्षता किये जाने के विवरण यह प्रमाणित करते हैं कि इस काल में इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म का काफी प्रभाव था तथा यहां के बौद्ध भिक्षु बौद्ध समाज में सम्मानजनक स्थान रखते थे।
महावीर स्वामी और जनपद
जैन धर्म के चैबीसवें तीर्थंकर महावीर भी बुद्ध के समकालीन थे। जैन पंथ हालांकि बौद्धों की तरह तो व्यापक नहीं हुआ किन्तु जैन ग्रन्थों में जनपद के कु्रछ स्थलों के नामोल्लेख (विशेषतः ब्रहदकथा कोष में उल्लिखित पिपरगांव को एटा जिले की अलीगंज तहसील स्थित वर्तमान पीपरगांव मानते हैं) तथा बौदर के तत्कालीन शासक मोरध्वज का जैन मताबलम्बी माना जाना स्पष्ट करता है कि जिले में जैन प्रभाव भी कम न था।
जैनमत के 13वें तीर्थंकर विमलनाथ का तो जन्मस्थल ही प्राचीन पंचाल राज्य की राजधानी कंपिल रहा है।
शक, हूण आक्रमण और जनपद
बुद्ध के स्वर्गारोहण के उपरान्त विक्रम पूर्व चैथी शताब्दी तक बौद्ध धर्म भारतीय भूमि पर तेजी से फैला। यहां तक कि बड़े-बड़े शक्तिशाली साम्राज्यों के शासक भी इस धर्म में दीक्षित हुए। इसके प्रभाव से जिला भी अछूता न रहा।
543 विक्रमपूर्व (600ई0पू0) में इस भूभाग के मगध शासक शिशुनाग व रिपुंजय द्वारा शासित होने, 490-438 विक्रमपूर्व में बिम्वसार, 438-405वि0पू0 में अजातशत्रु, फिर दार्षक द्वारा शाषित होने के उल्लेख हैं। 288वि0पू0 में तत्कालीन शासक शासक कालाशोक का वध कर उग्रसेन (नंदवंश के संस्थापक) द्वारा राज्य छीन लेने के बाद यहां नंदवंश तथा इस वंश के अंतिम शासक धननन्द को कौटिल्य की प्रेरणा से 265वि0पू0 में चंद्रगुप्त मौर्य के अधीन होने तक पांचाल के गणतंत्रात्मक पद्वति से शासित महाजनपद के रूप मंे उल्लेख मिलते हैं। यहां का राजा निर्वाचित राजप्रमुख होता था।
शंुगवंश
241-215विपू0 तक विन्दुसार तथा 216-175 तक सम्राट अशोक का शासनकाल माना जाता है। अशोक के बौद्धधर्म ग्रहण करने से कालांतर में मौर्य कुल शूरवीरता में दुर्बल हो गया और 128 वि0पू0 में सेनापति पुष्यमित्र द्वारा मौर्य बृहद्रथ का वध कर शासन पर अपना अधिकार कर लिया गया यह आगे चलकर अग्निवंश के नाम से विख्यात हुआ। प्रतीत होता है कि इस सम्पूर्ण काल में यह क्षेत्र स्वायत्तशासी राज्य की भांति था। शंुगकाल में बेरंजा एक प्रमुख नगर प्रतीत होता है जहां से मथुरा से श्रावस्ती जानेवाला व्यापारिक मार्ग गुजरता था।
शक, हूण आदि अनेक विदेशी जातियों के आक्रमण यूं तो मौर्य काल से ही होने लगे थे। पुष्यमित्र के बृहद्रथ वध का तात्कालिक कारण भी ऐसे विदेशी आक्रमण क समय अपने बौद्ध प्रभाव के चलते उचित प्रतिकार को उत्सुक न होना था किन्तु पुष्यमित्र व उसके निर्बल उत्तराधिकारियों के शासन में तो इन आक्रमणों की बाढ ही आ गयी। स्वयं पुष्यमित्र के समय में ही (103 वि0पू0 में) मैलेण्डर ने मथुरा तक का क्षेत्र अपने अधीन कर इस भूभाग पर अपना शासन स्थापित कर लिया था। यवनों के डिमेट्रियस नामक नरेश ने प0 पंजाब तक अपनी शक्ति बढा लेने के बाद मथुरा, माध्यमिका(चित्तोड़ के समीप) और साकेत(अयोध्या) तक आक्रमण किये। गार्गी संहिता के युगपुराण में यवनों द्वारा साकेत, पांचाल और मथुरा पर अधिकार करके कुसुमध्वज (पाटलिपुत्र) पहुंचने के विवरण मिलते हैं।
मित्रवंश
प्रतीत होता है कि यवनों का आक्रमण तो भारत मं काफी दूर तक हुआ तथा इस कारण जनता में कुछ समय घवड़ाहट भी रही किन्तु कतिपय कारणोंवश उनकी सत्ता मध्यदेश में जम नहीं सकी और उन्हें उत्तर-पश्चिम की ओर भागना पड़ा।
मित्रवंश कोई नवीन वंश नहीं, सेनापति पुष्यमित्र के उत्तराधिकारियांे की शाखा है। यद्धपि 100ई0पू0 के आसपास शुगवंश की प्रधान शाखा का अंत हो गया किन्तु उसकी अन्य शाखाएं बाद में भी शासन करती रहीं। इन शाखाओं के केन्द्र मथुरा, अहिच्छत्रा, विदिशा, अयोध्या तथा कौशांबी थे। जिले का जलेसर तक का भूभाग मथुरा शाखा के जबकि शेष भाग अहिच्छत्रा के मित्र शासकों के अधीन था। मथुरा से प्राप्त सिक्कों से इन शासकों के नाम- गोमित्र, ब्रहममित्र, दृढमित्र, सूर्यमित्र, विष्णुमित्र आदि मिले हैं तो अहिच्छत्रा के शासकों में ब्रहस्पतिमित्र जैसे नाम आते हैं।
पुनः शक शासन
प्रतीत होता है कि शुंगवंश के कमजोर पड़ते ही पुनः शकों की घुसपैठ इस क्षेत्र में आरम्भ हो गयी। आरम्भ में इन्होंने तक्षशिला से शासन किया किन्तु शीघ्र ही इसकी दूसरी शाखा का मथुरा पर तथा तीसरी शाखा का काठियावाड़, गुजरात व मालवा पर शासन हो गया। मथुरा के प्रारम्भिक शासकों क नाम हगान व हगामष मिलते हैं तथा उपाधि क्षत्रप। इनके बाद राजुबल मथुरा का शासक बना तथा ईपू0 80-57 के मध्य राजबुल का पुत्र शोडास राज्य का अधिकारी हुआ।
विक्रमादित्य
भारतीय इतिहास के प्रमुख पुरूष उज्जैनी नरेश सम्राट विक्रमादित्य (भले ही आधुनिक इतिहासकार उन्हें इतिहास पुरूष न मानें) इस काल के प्रमुख पुरूष हैं। सम्राट व्क्रिमादित्य के काल में ही प्रथम बार भारतीय संस्कृति का सुदूर अरब तक प्रचार-प्रसार होने के उल्लेख मिलते हैं। इसी काल में विराट हिन्दू धर्म ने अपनी बाहें प्रसार प्रथम बार उन विदेशियों को अपने में आत्मसात किया जो उनके शक, हूण आदि विदेशियों को भारत से मार भगाने के बाबजूद भारत में रह गये थे।
विक्रम संवत् 7(50ई0पू0) में एटा जनपद सहित यह समस्त भूभाग कुषाण वंशीय शासकों के अधीन था। कुषाण, कनिष्क, वशिष्क, हुविष्क व वासुदेव आदि शासक मथुरा को केन्द्र बना इस क्षेत्र पर अपना शासन करते थे। विक्रमादित्य के रूप में उज्जैन में जन्मे इस सम्राट ने इन्हें न सिर्फ यहां से अपदस्थ ही किया बरन भारत से भागने को भी विवश किया। इस घटना की स्मृति में सम्राट ने अपने नाम से नये विक्रम संवत् नाम के गणनावर्ष का आरम्भ कराया। किन्तु विक्रमादित्य के उत्तराधिकारी उन जैसे योग्य न हुए।
157 विक्रमी के आसपास शकों का एक अन्य आक्रमण हुआ जिसमें शक क्षत्रप राजुबल ने मथुरा पर अधिकार कर लिया। इसे शालिवाहन ने भारतीय सीमा से बाहर खदेड़ा। तथा इस अवसर पर शक संवत् नाम से एक नया गणनावर्ष आरम्भ किया। इन्हें सातवाहनों ने अपदस्थ कर 282 विक्रमी तक शासन किया।
दत्तवंश
उज्जयनी में शकों को मिली करारी पराजय से मथुरा का शक राज्य भी छिन्न भिन्न हो गया। मथुरा व आसपास मिले सिक्कों से अनुमान है कि इसके बाद यहां पुरुषदत्त, उत्तमदत्त, रामदत्त, कामदत्त, शेषदत्त तथा बलभूति नामधारी दत्तवंश के शासकों का का शासन रहा।
कुषाणवंश
ईसवी सन के प्रारम्भ से शकों की कुषाण नामक एक शाखा का प्राबल्य हुआ। इनका पहला शक्तिशाली सरदार कुजुल हुआ। लगभग 40 से 77 ईसवी के मध्य शासक बने विम तक्षम(विम कैडफाइसिस) के सिक्के पंजाब से बनारस तक मिलने से अनुमान है कि इसके काल में यह क्षेत्र कुषाणों के अधिकार में आ चुका था। विम के बाद उसका उत्तराधिकारी कनिष्क हुआ। एक मत के विद्वानों की मान्यता है कि इसी ने अपने राज्यारोहण पर एक नया संवत चलाया जिसे शक संवत के नाम से जाना जाता है।(जबकि विद्वानों के दूसरे मत का मानना है कि शक संवत की शुरूआत शालिवाहन द्वारा शकों को भारत से भगाने के अवसर पर हुई है।)। कनिष्क के बाद 106-138 ई0 तक हुविष्क, 138-176ई0 तक वासुदेव प्रथम का शासन माना जाता है। यह कुषाणवंश का अंतिम शक्तिशाली शासक था। इसके बाद कनिष्क द्वितीय व तृतीय व वासुदव द्वितीय जैसे नाम मिलते तो हैं किन्तु प्रतीत होता है कि वे प्रभावी शासक न थे।
नागवंश
विक्रम के 257वें वर्ष में पद्मावति के नागों ने कुषाण राजाओं के अंतिम अवशेष भी हटा, इस भूभाग पर अपना शासन स्थापित कर लिया। वीरसेन इस वंश का प्रमुख तथा विख्यात शासक था। इस वंश के अंतिम नरेश अच्युत को 377 वि0 में चंद्रगुप्त ने सोरों के समर में परास्त कर यह सम्पूर्ण भूभाग नागों से छीन लिया। हालांकि स्थानीय क्षेत्रों में इनका शासन 407वि0 तक चलता रहा।
गुप्तवंश
विल्सढ़ में उपलब्ध गुप्तकाल के 96वें वर्ष के कुमारगुप्त के अभिलेख से प्रतीत होता है कि यह क्षेत्र गुप्तवंश के काल में विल्सढ केन्द्र से संचालित था। गुप्तवंश के चंन्द्रगुप्त के अधिकार के बाद चंद्रगुप्त (377वि0-392वि0), के काल में तो उनके अधीन रहा ही, उनके उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त (392वि0-432वि0), चंद्रगुप्त द्वितीय (432वि0-471वि0), कुमारगुप्त (470वि0-512वि0) तथा स्कन्धगुप्त (512वि0-524वि0) के काल में भी गुप्त साम्राज्य के अधीन रहा। यहां मिले समुद्रगुप्त के समय के सिक्के तथा सोरों में प्राप्त गुप्तकालीन अवशेष इसकी पुष्टि करनेवाले हैं।
(गुप्तवंश का अंतिम शासक बुधगुप्त था जिसकी अंतिम ज्ञात तिथि 176 गुप्त संवत अर्थात 495ई है। यह उसकी एक रजतमुद्रा पर मिली है।- प्राचीन भारत का इतिहास, ले0 श्रीराम गोयल, प्र017)। बुधगुप्त के पश्चात वैन्यगुप्त, भानुगुप्त व नरसिंह गुप्त व बालादित्य गुप्त भी गुप्तवंश के शासक माने जाते हैं। प्रतीत होता है कि यह नाममात्र के सम्राट ही रह गये थे।
जनपद में गुप्त साम्राज्य और हूण
यूं तो हूणों के आक्रमण गुप्त सम्राट स्कन्धगुप्त के समय से ही (522वि0 के आसपास) होने प्रारम्भ हो गये थे परन्तु छटी शती तक आते-आते हूण इतने प्रबल हो गये कि गुप्त साम्राज्य ही विध्वस्त हो गया। छटी शताब्दी ई0 के प्रारम्भ में गुप्त साम्राज्य पर सफल आक्रमण करने का श्रेय तोरमाण को प्राप्त है। तोरमाण हूण जातीय था। ये पंजाब से आक्रमण कर सिंधु-गंगा की घाटियों को जोड़नेवाले दिल्ली-कुरूक्षेत्र मार्ग से घुसकर अंतर्वेदी (जनपद सहित इस क्षेत्र का प्राचीन नाम) पर धावा बोलते थे और सीधे बिहार और बंगाल तक पहुंचने की चेष्टा करते थे।
तोरमाण ने 500 और 510ई0 के मध्य पंजाब और अंतर्वेदी को जीत लिया। तोरमाण से सर्वप्रथम भानुगुप्त का संघर्ष हुआ। इसमें भानुगुप्त को पराजित होना पड़ा। दूसरी ओर प्रकाश धर्मा ने तोरमाण को परास्त कर दिया। तोरमाण के पश्चात मिहिरकुल हूणों का शासक बना जिसके शासन में पंजाब के अतिरिक्त गंगा की सम्पूर्ण घाटी थी और स्वयं गुप्त सम्राट बालादित्य(नरसिंहगुप्त बालादित्य) उसे कर देता था।(प्राचीन भारत का इतिहास -श्रीराम गोलय के प्र0 20 तथा 36 पर अंकित शुआन-च्वांग का साक्ष्य)।
मिहिर कुल 527ई0 में ग्वालियर तक के भूभाग का शासक था। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि वह स्वयं संकटों से घिर चुका था और गुप्त शासक नरसिंह बालादित्य ने उसे कठिनाई में फंसा देख एक बार पुनः गुप्त साम्राज्य को स्वाधीन घोषित कर दिया था। अंततः बालादित्य ने अपनी खोई प्रतिष्ठा की वापसी के सफल प्रयास किये तथा अपनी संगठित सेना द्वारा हुणों को पराजित कर मार भगाया। श्रीत्रेषु गंगाघ्र्वान शिलालेख बताता है कि गुप्त साम्राज्य ने हूणों को अंतिम शिकस्त सोरों की भूमि पर ही दी थी।
मौखरिवंश
समय के साथ गुप्तों का प्रभाव क्षीण और फिर छिन्नभिन्न हुआ तो इस भूभाग पर कन्नौज के मौखरिवंश का अधिकार हो गया। मौखरिवंश के हरिवर्मन, आदित्यवर्मन, ईश्वरवर्मन, ईशानवर्मन, शर्ववर्मन, अवन्तिवर्मन व गृहवर्मन ने इस भूभाग पर 597वि0 से 663वि0 तक शासन किया।
मालवा-बंगाल के नरेशों से राज्यवर्धन का युद्ध
कन्नौज के अंतिम मौखरि नरेश गृहवर्मन का विवाह थानेश्वर के शासक प्रभाकरवर्धन की पुत्री राज्यश्री के साथ हुआ था। गृहवर्मन की मालवा नरेश देवगुप्त से पुरानी अनबन थी। इसमें एकाकी सफल होने की संभावना न देख देवगुप्त ने बंगाल के शासक शशांक की सहायता ले कन्नौज पर आक्रमण कर गृहवर्मन को मार अपना अधिकार कर लिया। गृहवर्मन की पत्नी राज्यश्री को कारागार में डाल दिया गया। इस घटना के समाचार थानेश्वर पहुंचे तो प्रभाकर का पुत्र राज्यवर्धन सेना सहित अपनी बहिन की सहायता के लिए आया।
इधर राज्यवर्धन के आगमन का समाचार सुन देवगुप्त व शशांक की संयुक्त सेना ने कन्नौज से आगे बढ़ उसे सोरों के समीप घेर लिया। यहां हुए भीषण युद्ध में राजयवर्धन मारा गया। इस आक्रमण के कारण कन्नौज में फैली उत्तेजना का लाभ उठा राज्यवर्धन की बहिन राज्यश्री भी कारागार से मुक्त हो अपने भाई की सहायता के प्रयास करने में लग गयी थी। किन्तु भाई की मृत्यु की सूचना मिलते ही राज्यश्री ने भी मृत्यु का वरण करने का संकल्प कर लिया।
सोरों में हर्षवर्धन, कन्नौज की विजय
राज्यवर्धन की मृत्यु का समाचार थानेश्वर पहुंचने पर उसका 16 वर्षीय भाई हर्षवर्धन एक विशाल सेना लेकर सोरों आ पहुंचा। यहां उसका देवगुप्त से एक भीषण युद्ध हुआ जिसमें हर्षवर्धन ने देवगुप्त को मार डाला। देवगुप्त की मौत के बाद हर्ष ने द्रुतगति से बढकर कन्नौज पर अधिकार कर लिया। आरम्भ में हर्षवर्धन ने अपनी बहिन की ओर से कन्नौज का शासन संभाला। पिता की मृतयु के उपरान्त हर्ष थानेश्वर का राजा बना परन्तु थानेश्वर से दोनों राज्य संभालना संभव न जान हर्ष ने कन्नौज को ही अपनी राजधानी बना लिया। थानेश्वर व कन्नौज की सम्मिलित सेना के बल पर हर्ष एक विशाल साम्राज्य की स्थापना करने में सफल रहा।
हर्षवर्धन के समय में आये चीनी यात्री युवान-च्वांग ने मथुरा से नेपाल तक के राज्यों का वर्णन किया है। इस वर्णन में एक राज्य पी-लो-शन-न भी आता है। इतिहासकार इस राज्य को वीरसाण(वर्तमान विल्सढ) मानते हैं। दूसरा राज्य किया-पी-त (कपित्थ) है जिसके बारे में अनुमान किया जाता है कि यह फरूखाबाद जिले का कंपिल या संकिसा था। ये दोनों राज्य हर्षवर्धन के अधिकार में थे (प्रा0भा0 का इति0- श्रीराम गोयल प्र0241)।
वर्धनवंश
हर्षवर्धन ने 754वि0 तक शासन किया। हर्षवर्धन के बाद यशोवर्धन (कन्नौज के इतिहास के अनुसार अर्जुन व आदित्यसेन भी) इस भूभाग के शासक रहे।
809वि0 में कश्मीर नरेश ललितादित्य ने यशोवर्धन(इसे वर्धनवंश से प्रथक वर्मन वंश का भी माना जाता है।) को पराजित कर कन्नौज को अपने अधिकार में कर लिया। ललितादित्य ने 827वि0 तक शासन किया। कल्हण कृत राजतरंगिणी क अनुसार- यह महाराज पूर्व में अन्तर्वेदी (जनपद सहित गंगा-यमुना के मध्य का भाग जिसे मुस्लिम शासनकाल में दोआब भी कहा गया) की ओर बढ़ा और गाधिपुर (कन्नौज का प्राचीन नाम) मं घुसकर भय उत्पन्न कर दिया। क्षणमात्र में ही ललितादित्य ने यशोवर्मन की विशाल सेना को नष्ट कर विजय प्राप्त की। दोनों ही सम्राटों में सन्धि हो गयी। इस प्रकार यशोवर्मन क प्रताप और प्रभाव को ललितादित्य ने मूलतः नष्ट कर दिया। पराजित राजा के राज्य से कान्यकुब्ज देश (यमुनापार से कालीनदी तक का क्षेत्र) ललितादित्य के अधिकार में चला गया।
महाकवि भवभूति यशोवर्मन के शासनकाल के रत्न थे। यशोवर्मन के पश्चात आमराज, दुन्दुक, और भोज नामधारी तीन राजाओं के नाम और मिलते हैं जिनके 752 से 770ई0 तक शासन करने के उल्लेख प्राप्त हैं। इसके उपरान्त बज्रायुध (827वि0-840वि0), इन्द्रायुध (840वि0-841वि0) व चंद्रायुध (841वि0-867वि0) इस भूभाग के शासक बने।
इन्द्रायुध के समय में 840 से 842वि0 में उत्तर भारत में एक त्रिकोणात्मक युद्ध हुआ जिसका कारण कन्नौज पर अधिकार पाने की तत्कालीन 3 शक्तियों की अभिलाषा ही प्रमुख थी। पहली पाली में प्रतिहार शासकों व पाल शासक में युद्ध हुआ इसमं वत्सराज ने गौड शासक का पराजित किया। इसके बाद राष्ट्रकूट ध्रुव बढ़ा जिसने वत्सराज से युद्ध कर विजय पायी। ध्रुव के संजन ताम्रपट्ट के अनुसार- गंगा-यमुनर्योमध्ये राज्ञो गौडस्य नश्यतः। लक्ष्मी-लीलारविन्दनि-क्षेतक्षत्राणि यो5हरत्।। ध्रुव का कुछ समय को कन्नौज पर अधिकार तो हुआ किन्तु वह यहां अधिक समय तक न ठहर सका। फलतः पहले इन्द्रायुध, फिर चंद्रायुध कन्नौज का शासक बना रहा।
इसमें चक्रायुध को गौड नरेश धर्मपाल के अधीनस्थ शासक के रूप में माना जाता है। नारायणपाल के ताम्रलेख के अनुसार- जित्वेन्द्र-राज प्रभृतीन अरातिन उपार्जिता येन महोदयश्रीः दत्तः पुनः सा वालिन आर्थइत्रे चक्रायुध्य आनति वामनाय।। इस लेख में चक्रायुध का पुराणवर्णित वामन के समान याचक बताया गया है।
चक्रायुध के राज्याभिषेक के कुछ समय बाद दक्षिण क राष्ट्रकूट राजा गोविन्द-3 ने 864वि0 क लगभग चक्रायुध व उसके संरक्षक धर्मपाल पर आक्रमण कर दिया। गोविन्द की सैन्य शक्ति के समक्ष दोनों ने समर्पण किया किन्तु गोविन्द के दक्षिण लौट जाने पर चक्रायुध ही एक बार पुनः कन्नौज नरेश बना। इस पूरे कार्यकाल में एटा जनपद या तो कन्नौज के अधीन रहा अथवा विभिन्न शक्तियों के मध्य युद्धभूमि बना रहा।
गूर्जर-प्रतिहार
867 विक्रमी में यह क्षेत्र गुर्जर प्रतिहार वंश के अधिकार में चजा गया। अनुमान है कि ये प्रारम्भिक अवस्था में चालुक्यों तत्पश्चात राष्ट्रकूटों के सामन्त थे। इस वंश की दो शाखाओं में से नागभट्ट प्रथम वंश के नागभट्ट (नागभट्ट द्वितीय) ने 872वि0 के लगभग चंद्रायुध को परास्त कर कान्यकुब्ज राज्य छीन लिया। तथा अपनी राजधानी उज्जैनी से हटा कन्नौज बना ली। इस वंश में रामभद्र (890वि0-897वि0), और अपने आरम्भिक वर्षों में मिहिरभोज (377वि0-392वि0) इस क्षेत्र के शासक रहे। इनके अलावा महेन्द्रपाल तथा महीपाल भी इस वंश के प्रतापी शासक थे। इस वंश में महेन्द्रपाल, भोज द्वितीय, महीपाल या विनायकपाल प्रथम, महेन्द्रपाल द्वितीय, देवपाल, विनायकपाल द्वितीय, विजयपाल, राज्यपाल व त्रिलोचनपाल तथा यशपाल भी शासक रहे हैं किन्तु एटा जिले के भूभाग संभवतः इनके अधिकार क्षेत्र में न होकर चालुक्य व राष्ट्रकूटों के अधिीन थे।
मिहिरभोज को भोजदेव प्रथम भी कहा जाता है। यह भगवान वराह के अनन्य भक्त प्रतीत होते हैं। मान्यता है कि विद्वानों ने इन्हें सूकरक्षेत्र में आयोजित महाविजयोपलक्ष यज्ञ में इन्हें आदिवराह की उपाधि प्रदान की थी जिसका अंकन इनके काल के पुराविदों कोे प्राप्त हुए सिक्कों पर उपलब्ध है।
चालुक्य व राष्ट्रकूट वंश
इस काल में जनपद में ही जन्मे किन्तु परिस्थिति के चलते पहले अयोध्या फिर दक्षिण में गुजरात जा बसे जनपद के ही राजवंश चालुक्यवंश की एक शाखा के सोमदत्त सोलंकी ने इस आदि वराह के भक्त भोजदेव को परास्त कर अपनी उद्गम भूमि के अमापुर व उतरना तक के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। (यह इस क्षेत्र में राष्ट्रकूटों के सहायक के रूप में आये अथवा स्वतंत्र रूप में इस विषय में विद्वानों में काफी विमत हैं)। सोमदत्त सोलंकी के पूर्वज बेन द्वारा ही सोरों, अतरंजीखेड़ा व सोनमाली में पूर्व में दुर्ग निर्माण कराया गया था तथा इस वंश के सोनमति द्वारा सोंहार, सोनमाली व सोंगरा जैसे ग्राम बसाए गये थे।
अपने पूर्वर्जों की भांति सोमदत्त ने सोरों दुर्ग का जीर्णोद्धार करा उसे अपनी राजधानी बनाया तथा जनपद के अधिकांश भागों के अलावा बदायूं जनपद के अनेक भागों पर अपना अधिकार कर लिया। बाद में सोरों को सुरक्षित न समझ सोमदत्त ने अमापुर, उतरना आदि क्षेत्रों में अपने वंशजों को बसा तथा सोरों की धार्मिक महात्ता को दृष्टिगत रख इसे ब्राहमणों को दान दे स्वयं बदायूं के उसहैत क्षेत्र में बसोमा नामक स्थल का अपना मुख्यालय बनाया। (इस वंश के ताली नरेश के विवरण सत्रहवीं सदी तक सोलंकी राजा के रूप में तथा बाद में मोहनपुर के नबाव के रूप में मिलते हैं)।
और राजा ने अपनी राजधानी ही कर दी ब्राहमणों को दान
कहानी सोरों से सम्बन्धित है तथा अनुश्रुतियों तथा परम्पराओं में इतनी रची-बसी है कि आज भी इस राजा के परम्पराओं के माननेवाले वंशज सोरों का पानी तक नहीं पीते। सोरों में सुप्रसिद्ध सूकरक्षेत्र महाशमशान होते हुए भी इस वंश के किसी व्यक्ति का सोरों में अंतिम संस्कार नहीं किया जाता।
दरअसल सोरों का चालुक्य वंश (सोलंकी व बघेला) से अभिन्न सम्बन्ध रहा है। ‘चालुक्य वंस प्रदीप’ जैसी कृतियों के उल्लेख के अनुसार आबू पर्वत पर ऋषियों के यज्ञ के परिणामों से सृजित सूर्य एवं चंद्र वंश से पृथक नवीन अग्निवंश की स्थापना किये जाने पर इस नवीनवंश के 4 महापुरुषों में एक ‘हारीति’ ने सोरों सूकरक्षेत्र से ही अपने चालुक्य वंश का शुभारम्भ किया था।
इस कथा के अनुसार ऋषियों से आदेश पा हारिति सोरों आ गये जहां चुल्लूभर जल से जीवनयापन करते हुए उन्होंने घोर तपस्या की। इस तपस्या के फलस्वरूप उन पर तत्कालीन पंचाल नरेश शशिशेखर की दृष्टि पड़़ी, जिन्होंने उन्हें अपनी पुत्री के विवाह हेतु चयनित किया तथा वे शशिशेखर के निपूते मरने पर पंचाल के राजा बने। इनके पुत्र बेन के विषय में तो प्रसिद्ध है कि वह चक्रवर्ती शासक थे। (जिले के अतरंजीखेड़ा को इनकी राजधानी ‘बेरंजा’ माना जाता है तथा इस सहित उत्तरभारत के हिमालय से प0 बंगाल तक फैले करीब ढाई दर्जन प्राचीन पुरावशेष इन्हीं बेन के राज्य के दुर्ग माने जाते हैं।)। ‘चालुक्य वंस प्रदीप बेन’ के बाद भी सोरों/अतरंजीखेड़ा को इस सोलंकी वंश की राजधानी बताने के साथ-साथ सूचना देता है कि इस वंश के अजयदेव के राजधानी को अयोध्या स्थानांतरित किये जाने तथा वहां इसवंश की करीब 5 दर्जन पीढि़यों के शासन, फिर निस्तेज हो कुछ समय विपरीत परिस्थितियां सह दक्षिण को स्थांतरित हो वहां सुप्रसिद्ध चालुक्य वंश के राज्य की स्थापना किया जाना बताती है।
दक्षिण का सुप्रसिद्ध चालुक्य वंश भी स्वयं को इन माण्डव्य गोत्रीय हारीति का वंशज मानना तथा दक्षिण से पूर्व इनका अयोध्या का शासक होना स्वयं इनके शिलालेखों से सिद्ध है। साथ ही इनके राजचिहन पर भगवान वराह व मकरवाहिनी गंगा के अंकन से इन अनुश्रुतियों को ऐतिहासिक आधार मिलता प्रतीत होता है। अस्तु।
कन्नौज नरेश हर्षवर्धन के उपरांत कन्नौज साम्राज्य का विधटन होने लगा। इस विघटन काल में इस पर पहले प्रतिहार नरेशों का अधिकार हुआ बाद में प्रतिहारों से चालुक्य व राष्ट्रकूटों के संघर्ष हुए जिसमें प्रतिहारों की पराजय हुई तथा कन्नौज साम्राज्य के बदायू, सोरा,ें अमापुर, उतरना आदि भूभाग प्रतिहारों से निकल गये।
चालुक्य वंस प्रदीप के अनुसार यह युद्ध कन्नौज के तत्कालीन नरेश भोज प्रतिहार (भोज द्वितीय) से हुआ था। इस युद्ध में चालुक्य सेना का नेतृत्व सेनापति सोमादित्य (अनुश्रुतियों के सोमदत्त) ने किया था। युद्ध के बाद राष्ट्रकूट गंगा के बदायूं की ओर के भाग के शासक बने जबकि सोमादित्य गंगा के सोरों की ओर के भूभाग के स्वामी बने।
इन सोमदत्त अथवा सोमादित्य ने सोरों को अपनी राजधानी बना काफी अर्से तक शासन किया किन्तु तत्कालीन परिस्थिति के बिगड़ने पर नवोदित राष्ट्रकूट राज्य की सुरक्षा संभव न रहने पर राष्ट्रकूटों ने इन्हें अपने राज्य में जागीर दे वहीं बसा लिया।
पंचाल देश की ऐतिहासिकता पर शोध करनेवाले डा0 श्रीनिवास वर्मा शास्त्री के अनुसार राजा सोमदत्त ने वर्तमान बदायूं जिले के बसोमा नामक स्थल पर अपनी नयी राजधानी स्थापित की थी।
अपनी राजधानी परिवर्तन के समय उन्होंने अतरंजीखेड़ा (इस काल तक बेरंजा) दुर्ग व नगर तो अपने कुल की बघेला शाखा को प्रदत्त किया जब कि राजधानी के समीप के ताली दुर्ग को अपने एक सोलंकी वंशज को दिया। किन्तु राजधानी किसे सोंपें इस प्रश्न पर उन्हें खासा मंथन करना पड़ा। (संभवतः इसका कारण राजधानी पर अधिकार के अनेक दावेदार होने तथा इनमें से किसी को राजधानी सोंपने पर उसकी महत्वाकांक्षा से विपरीत परिणामों की संभावना होना कारण था)।
अंतः सोरों के तीर्थस्वरूप तथा उसकी धार्मिकता को दृष्टि रख महाराज ने एक अपूर्व निर्णय लिया। इस निर्णय में एक शुभदिन का चयन कर उन्हों से संकल्प कर यह नगरी अपने कुलपुरोहित के नेतृत्व में उपस्थित ब्राहमणों को दान कर दी।
अपने पूर्वजों के इसी दान के संकल्प को चरितार्थ करने के लिए आज भी परम्पराओं के माननेवाले सोलंकी बुजुर्ग न तो यहां का जल ग्रहण करते हैं न यहां के विश्वविख्यात शमशान में शवदाह ही करते हैं। हां, उनकी अपने पूर्वजों की रज में अपनी रज मिलाने की इच्छा के अनुरूप परिजय अपने बुजुर्गवार के अस्थि-अवशेष अवश्य यहां की हरिपदी गंगा में प्रवाहित करते देखे जा सकते हैं।
इसी काल में गौड देश के विग्रहपाल ने भी एक अल्पकाल के लिए कन्नौज पर अपना अधिकार कर लिया था। भोजदेव के उपरान्त उनक पुत्र महन्द्रपाल व भोज द्वितीय 942वि0 से 969वि0 तक कन्नौज के शासक रहे।
भोज द्वितीय के शासन में दक्षिण के राष्ट्रकूट शासकों ने अपने उत्तर भारत के विजय अभियान के समय बदायू सहित जनपद के एक भाग पर अपना अधिकार कर लिया। इस वंश के आगामी शासक ही सुप्रसिद्ध बदायूं का राष्ट्रकूट वंश कहलाए। प्रतीत होता है कि क्षेत्रीय संतुलन को दूर करने के लिए सोलंकी नरेशों ने चालुक्यों की अधीनता स्वीकार ली तथा चालुक्यों ने भी उन्हें उनके अधिकृत क्षेत्रों का अधिपति मान लिया। दसवीं व ग्यारहवीं शताब्दी में जनपद आंशिक रूप से (अलीगंज आदि फरूखाबाद से लगे भाग) कन्नौज व प्रमुख रूप से राष्ट्रकूटों के अधीन चालुक्यों द्वारा संचालित था।
इतिहासकार मानते हैं कि राष्ट्रकूटों ने पहले कन्नौज को ही अपनी राजधानी बनाया किन्तु महमूद गजनवी के आक्रमण के समय राष्ट्रकूट शासक के बदायूं हट जाने के बाद वे पुनः कन्नौज पर अधिकार न कर सके।
मान्यता है कि राष्ट्रकूट नरेश चंद्र, विग्रहपाल, भुवनपाल व गोपाल ने कन्नौज से ही शासन किया जबकि त्रिभुवनपाल के समय से राजधानी बदायूं स्थानांतरित हो जाने तथा राष्ट्रकूटों का कन्नौजीक्षेत्रों से प्रभाव समाप्त हो जाने के कारण अब राष्ट्रकूट बदायूं से ही शासन करते थे। त्रिभुवन पाल के उपरान्त के शासकों में मदनपाल, देवपाल, भीमपाल, सुरपाल, अमृतपाल तथा गोरी की सेनाओं से लड़नेवाले लखनपाल तक का शासन तो एक नरेश की भांति मिलता है। जबकि धारादेव नामक एक परवर्ती शासक का उल्लेख महासामंत के रूप में मिलता है।
राष्ट्रकूटों के बदायूं अभिलेख के अनुसार- प्रख्याताखिल राष्ट्रकूट कुलजक्ष्मा पालदोः पालिता। पांचालाभिध देश भूषण करी वोदामयूता पुरी।।
(एक दूसरी मान्यता के अनुसार राष्ट्रकूट बदायूं में तो पूर्व से ही स्थापित थे। सन् 1020 ई0 में कन्नौज पर हुए महमूद गजनवी के आक्रमण, व तत्कालीन नरेश राज्यपाल के पलायन के बाद की अराजकता का लाभ उठा चंद्र ने इस पर अधिकार कर लिया। चंद्र के बाद कन्नौज की गद्दी पर बैठे विग्रहपाल के विषय में लाट के चालुक्य वंशीय एक शासक ने 1050ई0 में लिखाए एक लेख से ज्ञात होता है कि इस समय कन्नौज में राष्ट्रकूट वंश का शासन था। इसी प्रकार भुवनपाल के शासनकाल (1050-75ई0) के विवरणों के अनुसार इस काल में चालुक्य सोमेश्वर प्रथम तथा चोल राजा विरजेन्द्र के कन्नौज पर आक्रमण के विवरण पाते हैं। राष्ट्रकूट शासक गोपाल को भी बदायूं अभिलेख में गाधिपुर का शासक कहा गया है। इतिहासकारों का मानना है कि गोपाल के राज्यकाल में गजनी के सुल्तान के पुत्र महमूद(महमूद गजनवी नहीं) ने कन्नौज जीत लिया। इस पराजय के उपरान्त राष्ट्रकूटों ने अपने को बोदामयूतापुरी में स्थापित कर लिया तथा यह वंश ही बदायूं के राष्ट्रकूट वंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। राष्ट्रकूटों के विवरण गोपाल के बाद उसके बड़े पुत्र त्रिभुवनपाल, फिर उसके छोटे भाई मदनपाल तथा उसके बाद सबसे छोटे भाई देवपाल का शासक बताते हैं। मदनपाल को बदायूं से गौडा जिले में स्थित सेत-महेत तक का शासक माना जाता है, जहां उसके अभिलेख मिले हैं। देवपाल के राज्यकाल में 1128ई0 के लगभग सेत-महेत व कन्नौज के गाहड़वाल शासकों के हाथों में चले जाने के संकेत मिलते हैं। इधर देवपाल के उपरान्त भीमपाल, सुरपाल व अम्रतपाल और लखनपाल के बदायूं से शासन किये जाने के विवरण उपलब्ध हैं। प्रतीत होता है कि 1202ई0 में दिल्ली के शासक कुतबुद्दीन ने इसी से बदायूं छीन इल्तुतमिश को बहां का राज्यपाल बनाया था।) राष्ट्रकूट नरेश लखनपाल के सोरों के सीताराम मंदिर में मिले अभिलेख से स्पष्ट है कि राष्ट्रकूटों के काल में सोरों व आसपास का क्षेत्र कन्नौज के नहीं बदायूं के अधिकार में था।
राष्ट्रकूटों के बाद गाहड़वाल
संवत 1157वि0 में बनारस के गहदवाल शासक चंद्रदेव अथवा चंद्रादित्य के कन्नौज पर अधिकार करने के संकेत मिलते हैं। इनका राज्यकाल 1085 से 1100ई0 तक रहा। चंद्रदेव व मदनपाल के 1097ई0 क ताम्रलेख से ध्वनित है- निज भुजोपार्जित श्री कान्यकुब्जाधिराजाधिपत्य श्री चंद्रदेवो विजयी। 1100ई से 1110ई तक का कार्यकाल मदनपाल का माना जाता है। मदनपाल के अभिलखों से ध्वनित है कि उनका राज्य बनारस से इटावा जिले तक था। प्रतीत होता है कि जिले के सोलंकी राजा अब कन्नौज के अधीन हो गये। इनकी स्थिति प्रायः अर्धस्वाधीन राज्यों सी प्रतीत होती है। मदनपाल के विषय में प्रसिद्ध है कि यह यवनों(अलादृद्दौला मासूद तृतीय) से हारा था तथा बंदी बना लिया गया था। इसे बाद में उसके पुत्र द्वारा धन देकर छुड़ाया गया।)
यह इतिहास का बड़ा ही अजीब मिथक है कि गहदवाल शासक कन्नौज नरेश के विरुद से जाने जाते हैं तथा इस क्षेत्र के भी शासक माने जात हैं, किन्तु गहदवाल नरेश चंद्र से लेकर जयचंद तथा उनके बाद गहदवालों के शासक बने हरिश्चंद्र अथवा बरदायीसेन के सारे के सारे अभिलेख इटावा जनपद से लेकर बिहार क मुगेर जिले तक ही मिलते हैं। यहां तक कि चंदेलों के क्षेत्र तक में गहदवाल काल के अभिलेख प्राप्त हुए हैं किन्तु इनका एक भी अभिलेख एटा, फरूखाबाद या बदायूं क्षेत्र से नहीं मिला। इसके विपरीत बदायूं के राष्ट्रकूट शासक लखनपाल का स्तम्भ लेख सोरों के सीताराम मंदिर में उपलब्ध है।
मदनपाल के उपरान्त गोविन्दचंद कन्नौज का अधिपति बना। इस काल तक कन्नौज साम्राज्य बन चुका था तथा मध्य एशिया के तुरूष्कों के भारत पर आक्रमण होने लगे थे। 1109 से पूर्व के तुरूष्क आक्रमण में बंदी बनाए गये मदनपाल तथा उन्हें छुड़ाने के लिए दिए गये धन ने गोविन्दचंद को तुरूष्कों के प्रति आक्रामक होने के लिए विवश किया तथा उसने तुरूष्कों के प्रति इतनी सफलता पायी कि कुमारदेवी के सारनाथ अभिलेख में उसे हरि(विष्णु) के अवतार की संज्ञा दी गयी। कन्नौज में लगाए गये तुरूष्क दण्ड(इसका उल्लेख गाहड़वालों के 1090 के बाद के भूमिदान पत्रों में पाया जाता है) से निर्मित गोविन्दचंद की सेना अनुश्रुतियों के अनुसार इतनी आक्रामक हो गयी थी कि उसने गज्जण(गजनी) नगर की भी विजय प्राप्त की।
बदायूं के राष्ट्रकूट नरेश मदनपाल के बदायूं अभिलेख में अंकित है कि उसके पौरूष के कारण ही हम्मीर(गजनी अमीर) के गंगातट पर आने की कथा फिर नहीं सुनाई दी। इस कथन से ध्वनित होता है कि इस युद्ध में मदनपाल भी गोविन्दचंद का सहयोगी था। इतिहास इस प्रश्न का समाधान नहीं देता कि यह सहयोग दो राज्यों के मध्य के सहयोग की भाति था, अथवा शासक व अधीनस्थ की भांति।
गोविन्दचंद के बाद कन्नौज के शासक बने विजयचंद के समय तक कन्नौज राज्य भारत का शक्तिशाली साम्राज्य बन चुका था। इस वंश के अंतिम स्वाधीन शासक जयचंद्र (1227वि0-1251वि0) थे। जयचंद को दलपुंगव की उपाधि आभासित कराती है कि जयचंद एक बहुत बड़ी सेना क स्वामी थे। अनुश्रुतियों के अनुसार तो एक बार दिल्ली से हुए किसी युद्ध में कन्नौज की सेना दिल्ली का विजित कर जिस समय कन्नौज बापस लौटी उस समय भी कन्नौज की सेना दिल्ली की ओर प्रस्थान कर रही थी। जयचंद के समय में बिलराम के शासक रह बलरामसिंह चैहान को अनुश्रुतियां जयचंद का करद सामन्त स्वीकारती हैं। इन्हीं बलरामसिंह को बिलराम का संस्थापक भी माना जाता है। किन्तु इस उल्लेख की विसंगति यह है कि खोर(वर्तमान शम्शाबाद, फरूखाबाद) को जयचंद ने अपने पिता मदनपाल के राज्यकाल(1125-1165) में भोरों को हराकर अपने अधिकार में किया है।
महाराज जयचंद का राज्य ‘योजन-शत-मानां’ अर्थात 700 योजन अर्थात 5600 वर्गमील क्षेत्र में माना जाता है। इटावा जिले का असद किला, फतेहपुर जिले के कुर्रा व असनी किले जयचंद द्वारा निर्मित माने जाते हैं। प्राचीन काम्पिल्य निवासी महाकवि श्रीहर्ष जयचंद के दरबारी कवि थे।
आल्हखंड का विरियागढ तथा लाखन
आल्हा के विवरणों के अनुसार महोबा नरेश महाराजा परमार्दिदेव या परिमाल ने 1165ई में किसी बात से अप्रसन्न हो आल्हा- को अपने राज्य से निकाल दिया। जयचंद ने इसे दुर्गुण न समझ इन्हें अपने राज्य में आश्रय दिया। अनुश्रुतियों के अनुसार ये महाराज के सरदार लाखनपाल के यहां विरियागढ(वर्तमान विल्सढ) में रहे।
पंचालक्षेत्र में नहीं मिलते गाहड़वाल शासकों के अभिलेख
यह बहुत आश्चर्यजनक ही है कि लगभग एक शताब्दी तक गाधिपुर (कन्नौज) के नरेश का विरुद धारण करनेवाले ग्यारहवीं से बारहवीं(1089-1196) के किसी गाहड़वाल शासक के अभिलेख, कोई शिलालेख, ताम्रपत्र या स्तम्भ लेख की प्राप्ति प्राचीन पांचाल क्षेत्र तो छोडि़ए कन्नौज व उसके आसपास से भी नहीं होती। जबकि माना यह जाता है कि गाहड़वालों के अंतिम नरेश महाराजा जयचंद ही वह कन्नौज नरेश थे जिनसे 1192 में मुहम्मद गौरी से चंदबार(वर्तमान फिरोजाबाद नगर मुख्यालय से करीब 8 किमी दूर यमुना के किनारे) में निर्णायक युद्ध हुआ था।
‘गाहड़वालों के इतिहास’ के अध्ययेता डा0 प्रशान्त कश्यप के अनुसार अब तक 84 गाहड़वालकालीन अभिलेख पुराविदों की दृष्टि में आ चुके हैं। इनमें 4 आरम्भिक गाहड़वाल शासक (संभवतः चंद्र) के हैं, जबकि 5 मदनपाल के, 48 गोविन्दचंद के, 4 विजयचंद के, 19 जयचंद के, 2 हरिश्चंद के तथा 2 गाहड़वालों के अधीनस्थ सामंतों के वे अभिलेख हैं जिनमें गाहड़वाल शासकों के उल्लेख हैं।
आश्चर्यजनक रूप से इन अभिलेखों का सर्वाधिक प्राप्तिस्थल वाराणसी व उसका वह अंचल है जहां के गाहड़वाल आरम्भिक शासक स्वीकारे जाते हैं। डा0 प्रशान्त के अनुसार गाहड़वालों के अभिलेख प्रदेश के इटावा जिले से लेकर मुंगेर (बिहार) व छतरपुर (म0प्र0) तक प्राप्त हुए हैं। आश्चर्यजनक रूप से इनकी प्राप्ति कन्नौल, फरुखाबाद, एटा, बदायूं, बरेली, पीलीभीत आदि पंचाल के उन भूभागों में नहीं मिलते जिन्हें परम्परागत रूप से कन्नौज राज्य माना जाता रहा है।
इस क्षेत्र में गाहड़वालों का कोई अभिलेख न मिलने से प्रश्न उठता है कि क्या तत्समय इस क्षेत्र के शासक गाहड़वाल नरेश थे अथवा कोई अन्य? इस शंका को आधार देता है मुस्लिम इतिहासकारों, चंदेल लेख, लक्ष्मीधर की प्रशस्ति तथा स्कन्द पुराण का गाहड़वालों को मात्र ‘काशी नरेश’ का संबोधन।
चंद्रदेव की कन्नौज विजय
गाहड़वाल काल के अभिलेखों के विवरण गाहड़वाल नरेश चंद्रदेव के विषय में बताते हैं कि यह कन्नौज का विजेता था। पर इसने कन्नौज विजित किससे किया? इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता। इतिहासकार नियोगी इस प्रश्न के उत्तरस्वरूप चंदेल नरेश- राजा सलक्षण वर्मा का नाम लेते हैं तो आरएस त्रिपाठी इसे राष्ट्रकूट नरेश गोपाल (बदायूं के सुप्रसिद्ध राष्ट्रकूट वंश का शासक) मानते हैं। गोपाल, लखनपाल के बोदामयूतापुरी (बदायूं) अभिलेख तथा 1176 विक्रमी (1118ई0) के एक बौद्ध लेख में गाधिपुराधिप के रूप में उल्लिखित है।
इधर संध्याकर नन्दी कृत रामचरित में पाल शासक रामपाल के सामन्त भीमयश को कान्यकुब्जवाजीनीगण्ठन कहे जाने से मामला और उलझ जाता है।
प्रतीत होता है कि गाहड़वालों ने कभी कन्नौज को विजित भले किया हो, वे कन्नौज के शासक कभी नहीं रहे। गाहड़वाल नरेश गोविन्दचंद की रानी कुमारदेवी का सारनाथ अभिलेख बताता है कि वह (गोविन्दचंद) दुष्ट तुरुष्क वीर से वाराणसी की रक्षा करने के लिए हर (शंकर) द्वारा नियुक्त हरि (विष्णु) का अवतार था।
तबकात-ए-नासिरी के अनुसार गजनी के राजा सुल्तान मसूद तृतीय (1099-1115) के समय हाजी तुगातिगिन गंगानदी पार कर उन स्थानों तक चढ़ आया जहां सुल्तान महमूद गजनवी को छोड़ अन्य कोई नहीं गया था। इसी प्रकार दीवान-ए-सल्ली की सूचनानुसार उसने अभागे राजा मल्ही को पकड़ लिया।
यदि इन इतिहासकारों के विवरण सही हैं तो प्रश्न उठता है कि यह पकड़ा गया मल्ही कौन था?
गोविन्दचंद के 1104ई0 के बसही अभिलेख के अनुसार वह मदनपाल था जिसे 1109 के रहन अभिलेख के अनुसार गोविन्दचंद ने बार-बार प्रदर्शित (मुहुर्मुहुः) अपने रण कौशल से (न सिर्फ छुड़ाया वरन) हम्मीर को शत्रुता त्यागने पर विवश किया।
किन्तु इतिहासकार आरएस त्रिपाठी के अनुसार यह मल्ही गाहड़वाल शासन नहीं, राष्ट्रकूट नरेश मदनपाल था। क्योंकि राष्ट्रकूट लखनपाल के बदायूं अभिलेख के अनुसार इस(मदनपाल) की प्रसिद्ध वीरता के कारण हम्मीर देवनदी (गंगा) तक पहंुच पाने में असफल रहा।
यह विवरण कदाचित सत्य प्रतीत होता है। कारण, मदनपाल के अन्य अभिलेख उसे पृथ्वी में एक छत्र शासन स्थापित कर अपने तेजबल से इंद्र को मात देनेवाला बताते हैं।
ऐसे में यही संभावना शेष रहती है कि कन्नौज के वास्तविक शासक (भले ही कालांतर में गाहड़वाल वहां के शासक तथा वे अधीनस्थ सामंत रहे हों) राष्ट्रकूट थे, न कि गाहड़वाल। राष्ट्रकूट नरेश मदनपाल के मुस्लिमों से तत्समय हुए संघर्ष में प्रारम्भिक विजयों के बाद मदनपाल को पराजय झेलनी पड़ी तथा बंदी मदनपाल को छुड़ाने के शौर्य के उपलक्ष में गाहड़वाल कन्नौज नरेश स्वीकारे गये। हालांकि वास्तव में उनकी राजधानी वाराणसी ही रही, कन्नौज नहीं। और निश्चय ही इसी कारण मुहम्मद गौरी ने चंदवार के युद्ध में जयचंद को पराजय दे अपनी सेनाएं कन्नौज नहीं, वाराणसी को विजित करने के लिए भेजी थीं।
क्या कन्नौज नरेश जयचंद का शासन एटा जिले में न था?
सुनने में अजीब भले ही लगे किन्तु यह सत्य है कि 12वीं सदी के उत्तर भारत के प्रबल शासक कन्नौज नरेश महाराज जयचंद के शासन का कोई अभिलेख ऐसा नहीं मिलता जिससे यह प्रमाणित हो कि उनका शासन एटा व कासगंज जिलों के भूभाग पर भी था। यही नहीं जयचंद को जिस गाहड़वाल वंश का माना जाता है उसके अब तक प्राप्त शिलालेखों में एक भी शिलालेख इस भूभाग या इसके पश्चात के भूभाग पर प्राप्त नहीं हुए हैं।
गाहड़वाल वंश के अब तक प्राप्त शिलालेखों व अन्य अभिलेखों से जो सूचनाएं प्राप्त होती हैं उनके अनुसार- इनके शासित क्षेत्र की सीमा उत्तर में श्रावस्ती(उ0प्र0), दक्षिण में छतरपुर(म0प्र0), पूरब में मुंगेर(बिहार) तथा पश्चिम में इटावा (उ0प्र) तक ही इनका राज्य होने का संकेत देती है।
कन्नौज राज्य के दूसरे प्रतिस्पर्धी राज्य दिल्ली-अजमेर के चैहानी राज्य की सीमाओं पर दृष्टिपात करें तो ये भी अंतिम रूप से कोल (वर्तमान अलीगढ़) तक आते-आते समाप्त हो जाने से यह भी निश्चित है कि यह भूभाग इस काल में चैहानी राज्य का भाग भी नहीं था।
प्रश्न उठता है कि फिर यह भूभाग किस राज्य में था?
ऐसे में जिस राज्य की ओर दृष्टि जाती है वह है बदायूं का राष्ट्रकूट राज्य।
इस वंश के लखनपाल के सोरों में सीताराम मंदिर में मिले शिलालेख से यह स्पष्ट है कि निश्चय ही सोरों तो इनके शासन का ही भाग था। रहा शेष जनपद का प्रश्न तो संभावनाएं इन्हीं के शासन की ओर इशारा करती हैं। और अगर यह सही है तो एटा व आसपास के सभी राठौर भी कन्नौज नरेश गहड़वाल जयचंद के नहीं इस शिलालेख में वर्णित तथा कभी कन्नौज नरेश रहे राष्ट्रकूट जयचंद के वंशज होने चाहिए।
पृथ्वीराज रासो में वर्णित संयोगिता प्रकरण को कतिपय विद्वान किसी नारी का वरण न मान संयुक्ता भूमि (अर्थात वह भूभाग जो या तो दो शासनों के मध्य संयुक्त भूमि हो अथवा दो राज्यों से जुड़ी ऐसी भूमि हो जो प्रत्यक्षतः किसी राज्य का भूभाग न हो किन्तु दोनों उसे अपनी भूमि मानते हों) के लिए हुआ संघर्ष मानते हैं।
चंद्रबरदाई ने अपने ग्रन्थ में संयोगिता प्रकरण का पृथ्वीराज व जयचंद के मध्य हुआ अंतिम युद्व सोरों के सुप्रसिद्ध सूकरक्षेत्र में लड़ा गया लिखा है।
अगर इस युद्ध को संयुक्ता भूमि के लिए हुआ युद्ध माना जाय तो यह क्षेत्र इस काल में ऐसा क्षेत्र होना चाहिए जिस पर कन्नौज के गाहड़वाल तथा दिल्ली के चैहानों में किसी का प्रत्यक्ष शासन न था तथा दोनों ही इस पर अपना अधिकार करना चाहते थे।
संभावना यह भी है कि गाहड़वालों की अतिक्रमणकारी नीति के चलते इस भूभाग के शासक कन्नौज नरेश की अपेक्षा चैहानी शक्ति के अधिक करीब थे किन्तु कन्नौज की दलपुंगव शक्ति के भय से स्पष्ट रूप से उनसे बैर की नीति भी नहीं अपनाते थे। साथ ही अतीत में गाहड़वालों द्वारा राष्ट्रकूटों की सहायता करना भी इस प्रच्छन्न मैत्री का एक कारण था। भले ही जयचंद तक आते-आते स्थितियां बदल गयी हों किन्तु मैत्री का दिखावा तो था ही।
स्यात् इसी समस्या के समाधान के लिए पृथ्वीराज ने इस संयुक्ता के हरण की योजना बनायी। एटा जिले के मलावन, फिरोजाबाद जिले के पैंठत तथा अलीगढ़ जिले के गंगीरी में स्थानीय देव के रूप में पूजे जानेवाले मल्ल, जखई व मैकासुर को अनुश्रुतियां पृथ्वीराज के उन सरदारों के रूप में स्मरण करती हैं जो इस संयुक्ता प्रकरण में इस स्थल पर वीरगति को प्राप्त हुए।
किन्तु प्रथम तो सोरों युद्ध में पृथ्वीराज को विजय नहीं, पराजय मिलना बताया जाता है। द्वितीय यह युद्ध यह स्पष्ट नहीं करता कि इस काल में यहां का स्थानीय शासक कौन था? ऐसे में यह प्रश्न फिर भी शेष रहता है कि क्या इस काल में यह क्षेत्र गहड़वालों के अतरिक्त किसी अन्य शक्ति के शासन में था?
इतिहास से इस समस्या का समाधान नहीं मिलता। हां, अनुश्रुतियां अवश्य इस समस्या के समाधान में किंचित सहायता करती प्रतीत होती हैं। इनके अनुसार बारहवीं सदी में एटा का भूभाग सोरों व अतरंजीखेड़ा के दो राजवंशों के अधीन था। इनमें सोरों के तत्कालीन नरेश सोमदत्त चालुक्यों की सोलंकी शाखा से थे, जबकि अतरंजीखेड़ा के मंगलसेन संभवतः डोर राजपूत।
सोलंकी नरेश सोमदत्त के विषय में प्रसिद्ध है कि उन्होंने तीर्थनगरी सोरों को ब्राहमणों को दान कर बदायूं जिले के बसोमा नामक स्थल पर अपनी नई राजधानी बसायी।
ऐसे में सोरों में मिला राष्ट्रकूटों का शिलालेख तीन संभावनाएं दर्शाता है। प्रथम शिलालेख के समय सोरों राष्ट्रकूटों के शासन में हो। द्वितीय सोमदत्त सोलंकी राष्ट्रकूटों के अधीन शासक थे। तथा तीन, सोमदत्त के सोरों छोड़ने के बाद सोरों राष्ट्रकूटों ने अपने अधीन कर लिया हो।
सोरों क्षेत्र पर ताली (तथा बाद में मोहनपुर नबाव) राजवंश के स्वाधीनता तक शासन से तथा इस क्षेत्र में सोलंकी क्षत्रियों के प्राबल्य से यह तो स्पष्ट ही है कि यह क्षेत्र सोलंकी प्रभाव का क्षेत्र रहा है। चालुक्य वंश प्रदीप जैसी रचनाएं तो सोन नामक प्रायः सभी स्थलों (जैसे- सोंहार, पुरसोन, सोनसा आदि) को सोलंकी नरेश सोनशाह द्वारा स्थापित बताती हैं। वहीं अतरंजीखेड़ा के शासक माने जानेवाले मंगलसेन के विषय में अलीगढ़ विश्वविद्यालय की खोजें इनकी पुत्री का विवाह सांकरा के शासक से होना पाती हैं।
ताली नरंश जो स्वाधीनता तक विधर्मी मोहनपुर के नबाव के रूप में अपना अस्तित्व बचाये रखने में सफल रहे हैं, का शासन सहावर क्षेत्र में ही रहा प्रतीत होता है।
हालांकि स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं किन्तु इस क्षेत्र में गाहड़वाल क्षत्रियों की जगह राठौर क्षत्रियों के प्राबल्य से संभावनाएं यही हैं कि यह क्षेत्र गाहड़वालों के अधीन नहीं, राठौर या सोलंकी शासकों के अधीन रहा है।
संयोगिता हरण के बाद
सोरों में हुआ था पृथ्वीराज-जयचंद का आखिरी युद्ध
      ‘पृथ्वीराज रासे’ दिल्ली सम्राट पृथ्वीराज चैहान के कार्यकाल का वर्णन करनेवाली सुप्रसिद्ध कृति है। माना जाता है कि इसकी रचना पृथ्वीराज के मित्र व दरबारी कवि चंद्रबरदाई द्वारा की गयी है। कतिपय इतिहासकार कई स्थानों के इसके विवरणों की अन्य समकालीन विवरणों से असंगति के कारण इसकी ऐतिहासिकता को विवादित मानते हैं। हो सकता है कि यह पृथ्वीराज की समकालीन कृति न हो किन्तु भाषा (डिंगल) तथा छंद प्रयोग की दृष्टि से यह एक प्राचीन कृति है, इसमें कोई संदेह नहीं। अतः स्वाभाविक है कि इतिहास न होते हुए भी इतिहास के अत्यन्त निकट की कृति है।
      चूंकि यह वीरकाव्य है अतः अपने नायक (पृथ्वीराज चैहान) का अतिशय वीरत्व दर्शाने के लिए इस काव्य में घटनाओं के अलंकारिक विवरण मिलना स्वाभाविक हैं।
रासो का एक सुप्रसिद्ध प्रसंग है ‘संयोगिता हरण’। माना जाता है कि यही जयचंद्र व पृथ्वीराज के मध्य मनमुटाब का ऐसा कारण बना जिसके बाद भारत का एक बड़ा भाग सदियों के लिए विदेशी विधर्मियों की गुलामी सहने को विवश हुआ।
संयोगिता हरण की कथा के अनुसार जयचंद्र की पुत्री संयोगिता दिल्ली-सम्राट की वीरता की कथाएं सुन-सुनकर उन पर बुरी तरह आसक्त थी तथा उन्हीं को अपने पति के रूप में वरण करना चाहती थी। इसके विपरीत जयचंद,्र पृथ्वीराज से कट्टर शत्रुता रखते थे।
दोनों की इस शत्रुता के कुछ तो राजनीतिक कारण थे और कुछ थे पारिवारिक। कहते हैं कि पृथ्वीराज ने दिल्ली का राज्य अपने नाना दिल्ली के नरेश राजा अनंगपाल सिंह तंवर (तोमर) से धोखे से हथियाया था। अनंगपाल के दो पुत्रियां थीं। इनमें एक कन्नौज नरेश को तथा दूसरी अजमेर नरेश को ब्याही थीं। कन्नौज ब्याही पुत्री के पुत्र जयचंद्र थे जबकि अजमेरवाली पुत्री के पृथ्वीराज।
अनंगपाल के कोई पुत्र न होने के कारण दोनों अपने को अनंगपाल के बाद दिल्ली का स्वाभाविक उत्तराधिकारी मानते थे। इसमें भी जयचंद्र की सीमाएं दिल्ली से मिली होने के कारण इस उत्तराधिकार के प्रति जयचंद्र कुछ अधिक ही आग्रही थे। किन्तु छोटा धेवता होने का लाभ उठा पृथ्वीराज अनंगपाल के अधिक निकट व प्रिय थे।
जयचंद्र तो धैर्यपूर्वक समय की प्रतीक्षा करते रहे जबकि पृथ्वीराज ने अपनी स्थिति का लाभ उठा, पृथ्वीराज को अपनी यात्राकाल में अपना कार्यभारी नियुक्त कर धर्मयात्रा को गये महाराज अनंगपाल की अनुपस्थिति में उन्हें सत्ताच्युत कर दिल्ली राज्य ही हथिया लिया। फलतः जयचंद्र की कटुता इतनी अधिक बढ़ गयी कि जब उन्होंने अपनी पुत्री संयोगिता का स्वयंवर किये जाने का निर्णय लिया तो पृथ्वीराज को आमंत्रित करने के स्थान पर उनकी एक स्वर्ण प्रतिमा बना उसे द्वारपाल के रूप में स्थापित करा दिया।
इधर प्रथ्वीराज को निमंत्रण न भेजे जाने की सूचना जब संयोगिता को मिली तो उसने अपना दूत दिल्ली-सम्राट के पास भेज उन्हें परिस्थिति से अवगत कराते हुए अपना प्रणय निवेदित किया और सम्राट पृथ्वीराज ने भी संयोगिता के ब्याज से जयचंद्र के मान-मर्दन का अवसर पा अपनी तैयारिया आरम्भ कर दीं।
स्वयंवर की निर्धारित तिथि को संयोगिता के साथ बनी योजना के तहत पृथ्वीराज गुप्त वेश में कन्नौज जा पहुंचे और स्वयंवर के दौरान जैसे ही संयोगिता ने सम्राट की स्वर्ण प्रतिमा के गले में जयमाल डाली, अचानक प्रकट हुए प्रथ्वीराज संयोगिता का हरण कर ले उड़े। अचानक हुई इस घटना से हक्की-बक्की दलपुंगव कन्नौजी सेना जब तक घटना को समझ पाये, पृथ्वीराज दिल्ली की ओर बढ़ चले।
चूकि यह हरण पृथ्वीराज की सुविचारित योजना से अंजाम दिया गया था अतः पृथ्वीराज के चुनींदा सरदार स्थान-स्थान पर पूर्व से ही तैनात थे तथा किसी भी परिस्थित का सामना करने को तैयार थे। इन सरदारों ने प्राणों की बाजी लगाकर अपने सम्राट का वापसी मार्ग सुगम किया।
( फिरोजाबाद जिले के पैंड़त नामक स्थल में पूजित जखई महाराज, एटा जिले के मलावन में पूजित मल्ल महाराज तथा अलीगढ़ जनपद के गंगीरी में पूजित मैकासुर के विषय में बताया जाता है कि ये पृथ्वीराज की सेना के उन्हीं चुनींदा सरदारों में थे जिन्होंने कन्नौज की सेना के सम्मुख अवरोध खड़े करने के दौरान अपने प्राण गवांए।)
एक ओर एक राज्य की दलपुगब कहलानेवाली सशक्त सेना, दूसरी ओर चुनींदा सरदारों के नेतृत्व में स्थान-स्थान पर बिखरी सैन्य टुकडि़यां। इस बेमेल मुकाबले में पृथ्वीराज के सरदार कन्नौजी सेना की प्रगति रोकने में अवरोध तो बने, उसकी प्रगति रोक न पाये।
और पृथ्वीराज के सोरों तक पहुंचते-पहुंचते कन्नौज की सेना ने पृथ्वीराज की घेरेबंदी कर ली।
अनुश्रुतियों एवं पुराविद रखालदास वंद्योपाध्याय के अनुसार सोरों के सुप्रसिद्ध सूकरक्षेत्र के मैदान में पृथ्वीराज व जयचंद्र के मध्य भीषण युद्ध हुआ तथा इस युद्ध में दोनों पक्षों के अनेक सुप्रसिद्ध योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए। अंततः एकाकी पड़ गये प्रथ्वीराज को कन्नौजी सेना ने बंदी बना लिया तथा उनहें जयचंद्र के सम्मुख प्रस्तुत किया गया।
क्रोधावेशित जयचंद्र तलवार सूंत पृथ्वीराज का वध करने ही वाले थे कि उनके सम्मुख संयोगित अपने पति के प्राणदान की भीख मांगती आ खड़ी हुई। अपनी पुत्री को अपने सम्मुख देख तथा नारी पर वार करने की हिन्दूधर्म की वर्जना के चलते जयचंद्र ने अपनी तलवार रोक ली और- दोनों को जीवन में फिर मुंह न दिखाने- का आदेश दे तत्काल कन्नौज राज्य छोड़ने को कहा।
पृथ्वीराज रासो के 61वें समय में इस प्रसंग का अंकन इस प्रकार हुआ है-
जुरि जोगमग्ग सोरों समर चब्रत जुद्ध चंदह कहिया।।2401।।
पुर सोरों गंगह उदक जोगमग्ग तिथि वित्त।
अद्भुत रस असिवर भयो, बंजन बरन कवित्त।।
अत्तेन सूरसथ तुज्झा तहै सोरों पुर पृथिराज अया।।2402।।
(इस सम्बन्ध में दो अन्य कथाएं भी प्रचलित हैं। इनमें पहली कथा के अनुसार तो संयोगिता नाम की कोई महिला थी ही नहीं। यह पूरा प्रकरण एटा-मैनपुरी-अलीगढ व बदायूं क्षेत्र की संयुक्तभूमि (संयुक्ता) पर अधिकार के लिए लड़े गये युद्ध का अलंकारिक विवरण है। वहीं दूसरी कथा के अनुसार दरअसल संयोगित (इस कथा की शशिवृता) जयचंद्र की पुत्री नहीं ... के जाधव नरेश... की पुत्री थी। ... का राज्य पृथ्वीराज की दिग्विजय से आतंकित था तथा अपने अस्तित्व के लिए किसी सबल राज्य का संरक्षण चाहता था। इस संरक्षण को प्राप्त करने के लिए उसने अपनी अवयस्क पुत्री शशिवृता को जयचंद्र को इस अपेक्षा के साथ सोंपने का निश्चय किया कि भविष्य में उसका कन्नौजपति जामाता उसका संरक्षक हो जाएगा। चूंकि यह विवाह राजनीतिक था अतः पृथ्वीराज के विरूद्ध अपनी शत्रुता को दृष्टिगत रख जयचंद्र ने भी इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकारा।
निर्धारित तिथि को जयचंद्र बारात लेकर पहुंचें, इससे पूर्व ही इस नवीन राजनीतिक गठबंधन को ध्वस्त करने के लिए पृथ्वीराज ने इस राज्य पर आक्रमण कर दिया। जयचंद्र के साथ गयी सेना के सहयोग से जाधव राजा ने आक्रमण तो विफल कर दिया किन्तु इस तनावपूर्ण परिवेश में विवाह की परिस्थिति न रहने के कारण जयचंद्र की वाग्दत्ता शशिवृता को जयचंद्र के साथ ही कन्नौज, उचित अवसर पर विवाह करने के वचन सहित भेज दिया।
इस युद्ध में पृथ्वीराज द्वारा दिखाए अपूर्व शौय से प्रभावित शशिवृता प्रौढ जयचंद्र के स्थान पर युवा पृथ्वीराज पर आसक्त हो गयी। जहां चाह वहां राह। शशिवृता के प्रणय-संदेश तथा संदेशवाहक द्वारा की गयी रूपचर्चा ने पृथ्वीराज की आसक्ति भी बढ़ाई और परिणाम- एक षड्यंत्र की रचना हुई।
इस षड्यंत्र के तहत एक दिन जब सजे-संवरे महाराज जयचंद्र ने दरबार जाने से पूर्व सामने मौजूद अपनी वाग्दत्ता शशिवृता से अपनी सजावट के विषय में पूछा कि- कैसा लग रहा र्हूं? तो शशिवृता ने उत्तर दिया- जैसा एक पिता को लगना चाहिए।
अवाक् जयचंद्र ने जब इस प्रतिकूल उत्तर का कारण पूछा तो पृथ्वीराज की दूती की सिखाई शशिवृता का उत्तर था कि एक कन्या का पालन या तो उसका पिता करता है या विवाहोपरान्त उसका पति। चूंकि महाराज से उसका विवाह नहीं हुआ है और महाराज उसका पालन भी कर रहे हैं तो महाराज स्वयं विचारें कि वे ऐसा किस सम्बन्ध के आधार पर कर रहे हैं।
निरुत्तर जयचंद्र ने बाद में शशिवृता को स्वयं अपना वर चुनने की स्वाधीनता देते हुए स्वयंवर कराया जिस में बाद में घटित घटनाक्रम ऊपर वर्णित ही है।)

एक हजार वर्षीय चिरंतन संघर्ष की गाथा
ईसा की छटी शताब्दी से इस्लामी आतंकवाद का शिकार बन रहे भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों की आंज कमजोर सीमान्त शासकों के कारण भारत के मध्यदेश तक पहुंचने लगी। आरम्भिक आक्रमणों में तो सक्षम चंदेल वंश व उसके सहयोगी स्थानीय नरेशों के कारण विजय इस आतताइयों से दूर ही रही किन्तु महमूद गजनवी के आक्रमण के समय ऐसी स्थिति न रही।
महमूद गजनवी और जनपद
संवतृ 1075 विक्रमी (1018-19 ई0) इतिहास का वह वर्ष है जब सर्वप्रथम इस भूभाग को किसी मुस्लिम आक्रामक की आक्रामकता का शिकार होना पड़ा। इस वर्ष महमूद के बारहवें आक्रमण का शिकार कन्नैज व मथुरा राज्य बना।
दिसम्बर 1018 को महमूद जमुना किनारे पहुंचा। यहां उसने मथुरा राज्य व नगर को लूटा। यहां से वह पूरब की ओर बढ़ते हुए कन्नौज पहुंचा। कन्नौज की लूट के बाद महमूद रोहेलखंड (तत्कालीन कटेहर) की ओर बढ़ा। यहां मार्ग में पड़नेवाले नगर, दुर्ग, गांवों को लूटने के साथ-साथ प्राचीन तीर्थस्थल सोरों (सूकरक्षेत्र) को भी पर्याप्त क्षति पहुंचाई।
सूकरक्षेत्र व इसके आसपास के दुर्गाें के बारे में स्थानीय अनुश्रुतियां ही प्रचलित हैं। इस्लामी नेखकों ने ये नाम नहीं दिये हें। हबीब-उस-सियार (लेखक- खुण्दमीर) में लिखित यह अवतरण जनपद में प्रचलित अनुश्रुतियों की आंशिक पुष्टि करनेवाला है। इसके अनुसार- बीस हजार स्वयंसेवकों की बढि़या सेना के साथ, जो काफिरों से युद्ध करके पुण्य प्राप्त करने हेतु उसके (यामिन-उद्-दौला) शिविर में आये थे, उसने कन्नौज की ओर प्रयाण किया। यहां सर्वप्रथम उसे कुलचंद्र से युद्ध करना पड़ा। इसके पश्चात सुल्तान एक ऐसे नगर (मथुरा) की ओर चला जिसे वहां के निवासी पवित्र मानते थे। इसकी लूट के बाद सुल्तान महमूद ने कन्नौज की ओर कूच किया। उसने गंगा के तट पर सात दुर्ग देखे जो खैबर जैसे थे। ये वीरों से रहित थे अतः उनको एक दिन में ले लिया गया। गजनवियों ने देखा कि इन दुर्गों और उनके प्रदेशों में दस हजार मंदिर हैं। उन्होंने यह भी पता लगाया कि हिन्दुओं का विश्वास है कि इन मंदिरों को बने चार लाख वर्ष हो चुके हैं। (भारत का इतिहास भाग 4 प्र0 134)। इस विवरण में मूंज और असाई जो इटावा जनपद में हैं के अलावा सोराह? के चांदराय के दुर्ग की विजय का उल्लेख है। उतबी, मीरखोंद व वशीरूद्दीन ने उनका उल्लेख किया है।
कन्नौज का तत्कालीन नरेश राज्यपाल कायर निकला। वह मुकाबला करने की जगह परिवार सहित महमूद की शरण में विना किसी प्रतिरोध के ही आ गया। अतः लूट के बाद वापस लौटे महमूद ने अपनी अधीनता में राज्यपाल को ही कन्नौज का अधीश्वर रहने दिया।
पर राज्यपाल की यह कायरता देश की अन्य शक्तियों को सहन नहीं हुई। परिणामस्वरूप महमूद के वापस लौटते ही कलिंजर के चंदेल शासक विद्याधर ने ग्वालियर नरेश के सहयोग से राज्यपाल का वध करा, उसके पुत्र चंद्रदेव को कन्नौज का नया शासक बना दिया। चंद्रदेव के वंश में अंतिम राजा जयचंद था जिसने 1194ई0 तक शासन किया।
राज्यपाल का पुत्र चंद्रदेव विद्याधर की आशा के अनुरूप ही निकला। उसने क्षेत्र में बस गये महमूद के सैनिकों को तो भगया ही। राज्य में रह रहे तुरूकों से ‘तुरुष्क दण्ड’ जैसे कर भी बसूले।
मुहम्मद मुईजुद्दीन गौरी का आक्रमण और जनपद
व्यक्तिगत मान-अपमान की बलिबेदी पर राष्ट्रीय गौरव की आहुति देने की देश के दो अविवेकी शासकों की प्रतिस्पर्धा के चलते भारत को एक बार पुनः विदेशी आक्रमण का शिकार बनना पड़ा। कन्नौज अधीश्वर गहदवाल वंशीय महाराज जयचंद व दिल्लीपति महाराज पृथ्वीराज चैहान के मध्य हुए वैमनस्य के फलस्वरूप मुहम्मद गौरी के साथ तरायन के मैदान में हुए भीषण युद्ध में दलपुंगव जयचंद ने कोई सहायता नहीं दी जिसके परिणामस्वरूप पहले दिल्ली नरेश को फिर कन्नौज नरेश को पराजित होना पड़ा।
तरायन युद्ध में पृथ्वीराज की पराजय के उपरान्त मुहम्मद गोरी हांसी व सुरसती तक का सम्पूर्ण शिवालिक क्षेत्र जीत लिया। उसने अपने गुलाम कुतबुद्दीन ऐबक को इस विजित क्षेत्र में अपना प्रतिनिधि बनाया और स्वयं गजनी लौट गया। गौरी के जाते ही जाटों ने हांसी को मुक्त करने के प्रयास किये। किन्तु ऐबक ने जटवान को मारकर जाटों को बांगर तक पीछे हटा दिया।
588हिजरी/ 1192 में ऐबक ने मेरठ व बरन (बुलन्दशहर) भी जीत लिये गये। 590हि0/ 1194 में ऐबक के कोयल (अलीगढ) की विजय के साथ एटा का मारहरा व पचलाना परगना के भूभाग भी उसके अधीन हो गये। इसी समय गोरी भी वापस आ गया और अपनी सेना के अलावा ऐबक की 50 हजार अश्वारोही सेना के साथ उसने कन्नौज के विरूद्ध प्रयाण कर दिया।
गोरी व वेरंजा नरेश के मध्य युद्ध
कन्नौज व कोल के मध्य एक छोटा सा राज्य बेरंजा था। यहां इस काल में राजा मंगलसेन शासक थे जो अपने शौर्य, सूझबूझ व दानवीरता के कारण अपने नाम से कम बेरंजा नगर के संस्थापक चक्रवर्ती नरेश ‘बेन’ के नाम से अधिक प्रसिद्ध थे। राजा मंगलसेन कोल की पराजय के बाद से ही आसन्न संकट का पूर्वाभास कर चुके थे तथा इससे निपटने के लिए कटिबद्ध थे।
बेरंजा को कन्नौज के मार्ग की बड़ी बाधा मानते हुए गोरी की सेनाओं ने सर्वप्रथम बेरंजा को ही अपना लक्ष्य बनाया। अनुश्रुतियां बताती हैं कि मंगलसेन ने इस आक्रमण का समुचित उत्तर देते हुए उसके आरम्भिक आक्रमणों का समुचित प्रतिउत्तर भी दिया किन्तु गोरी ने बेरंजा को चारों ओर से घेर मंगलसेन को बाहरी सहायता का मिलना असंभव कर दिया। इधर कन्नौज ने इस युद्ध में मंगलसेन की सहायता करने की जगह गोरी का चंदवार पर मार्ग रोकना अधिक उचित समझा। फलतःगोरी द्वारा बेरंजा की जल व्यवस्था विषाक्त करते ही मंगलसेन को सम्मुख युद्ध को विवश होना पड़ा। दोनों के मध्य हुए भीषण संग्राम में इस्लामी पाशविकता के समझ मंगलसेन की पराजय हुई और विजय के बाद गोरी ने बेरंजा की लूट करा नगर को तहस-नहस कर दिया।
पटियाली युद्ध
बेरंजा के बाद गोरी की सेनाओं का अगला लक्ष्य प्राचीन पटियाली नगर बना। जहां प्राचीन मंदिरों को नष्ट किया गया तथा नगर की खुली लूट करायी गयी।
गोरी की सेनाएं जहां बेरंजा व पटियाली आदि के दुर्गों को विजित करने में लगी थीं वहीं स्वयं स्वयं गोरी कन्नौज की ओर बढ़ा। कन्नौज नरेश जयचंद की सेनाओं ने आधुनिक फिरोजाबाद के समीप यमुना किनारे स्थित चंदवार नगर पर गोरी की सेनाओं को रोकने का प्रयास किया किन्तु 590हि0/ 1194 में हुए चंदवार युद्ध में सेनाओं के पराजित होने पर अनुश्रुतियों के अनुसार महाराज जयचंद ने गंगा में जलसमाधि ले ली। इसके बाबजूद भी गोरी ने कन्नौज को जीतना असंभव जान कन्नौज की जगह वाराणसी का रूख किया तथा वहां लूटमार की। बाद में गोरी सभी जीते क्षेत्र ऐबक को सौंप गोरी पुनः गजनी लौट गया।
जयचंद की पराजय के उपरान्त उनके पुत्र हरिश्चंद्र कन्नौज नरेश बने। इनसे 594हि0/ 1198ई0 में हुए द्वितीय युद्ध के उपरान्त ही कन्नौज को जीता जा सका। युद्ध में पराजय मिलने पर जयचंद के परिजनों को भी पलायन करना पड़ा। जयचंद क बाद कन्नौज के अधिपति बने महाराजा हरिश्चन्द्र कन्नौज के कुछ भागों पर पुनः अधिकार कर पहले खोर (आधुनिक शम्शाबाद, फरूखाबाद) में स्थापित हुए फिर बदायू। यहां से मुदई होते हुए अंततः जौनपुर के निकट जफराबाद चले गये। इसके बाद इनकी एक शाखा तो राजस्थान की ओर जा आधुनिक जोधपुर आदि राज्यों की संस्थापक बनी वहीं दूसरी शाखा ने एटा जनपद के विल्सढ, आजमनगर, सौंहार, बरना तथा राजा का रामपुर में अपने केन्द्र बनाए। जीम जपजसम उमदनस व िपदकपं में दिये राजा का रामपुर के विवरण
सोरों का पतन
एटा जिले का प्रमुख नगर सोरों इस काल में राष्ट्रकूटों के अधीन था। 594हि0/ 1197-98 में ऐबक की सेनाओं ने बोदामयूतापुरी (आधुनिक बदायूं) के राष्ट्रकूट नरेशों को भी हरा दिये जाने के बाद जिले के सम्पूण क्षेत्र पर विदेशी शक्तियों का अधिकार हो गया।  अनुश्रुतियों के अनुसार कुतबुद्दीन ऐबक व राष्ट्रकूट राजाओं के मध्य का निर्णायक युद्ध सोरों के समीप ही लड़ा गया था तथा इस युद्ध में धर्मान्धों की विजय के उपरान्त सोरों नगर को भी पर्याप्त क्षति उठानी पड़ी थी।
विदेशी सत्ता की राज-व्यवस्था और एटा जनपद
1197-98ई0 तक सम्पूर्ण दोआब विदेशी शक्तियों के अधिकार में आ चुका था। इस क्षेत्र का प्रबन्ध गोरी के विश्वसनीय गुलाम व इस क्षेत्र के नये सुल्तान कुत्बुद्दीन ऐबक के अधीन था। ऐबक ने मेरठ, बरन(बुलंदशहर), कोइल(अलीगढ़), बरज(बदायूं) तथा कन्नौज को अपनी इस नई सत्ता के प्रमुख केन्द्र बनाया। इन्हें इक्ता (एक प्रकार के राज्य) कहा गया।
जनपद एटा का मारहरा, बिलराम व जलेसर क्षेत्र (जिसे बाद में परगना के रूप में विभाजित किया गया) कोइल इक्ता में, फैजपुर बदरिया व सोरों क्षेत्र बरज इक्ता में, सकीट क्षेत्र बयाना इक्ता के अंतर्गत रखे गये। जनपद का शेष भाग कन्नौज इक्ता का अंग था। आगे चलकर सकीट को बयाना इक्ता से हटाकर इटावा नाम से बनायी गयी नई इक्ता में शामिल कर दिया गया।
ऐबक ने इन क्षेत्रों पर गोरी की मृत्य तक (602 हि0/ 1206ई0) एक अधीनस्थ शासक के रूप में तथा इसके बाद 1210ई0 तक स्वतंत्र शासक के रूप में शासन किया।
स्वाधीनता के प्रयास
1210ई0 में ऐबक की मौत से पूर्व गोरी की भी मौत हो चुकी थी। फलतः सत्ता के बंदरबाट के लिए उसके सहयोगियों में टकराव होने लगा। इससे विदेशी सत्ता शक्तिशाली न रही। यूं तो ऐबक के बंगाल व उत्तर पश्चिमी प्रदेशों के विद्रोहों व भारतीय शासकों से संघर्ष में उलझने के समय से ही सत्ता की कडि़यां ढीली पड़ने लगी थीं किन्तु उसकी मौत के बाद तो आपसी संघर्ष का दौर ही चल गया।
‘इस समय हिन्दू सरदारों की शक्ति बढ़ रही थी। चंदेलों ने कलिंजर से, परिहारों ने ग्वालियर से तथा गहदवालों ने (महाराज हरिश्चन्द्र के नेतृत्व में 1206ई0 से) बदायूं तथा खोर, (फरूखाबाद जिले का बाद में शम्शाबाद कहलाया क्षेत्र) से तुर्कों को खदेड़ दिया गया था तथा कई राज्यों ने कर देना बंद कर दिया। ऐसी स्थिति में ऐबक ने पुनः बदायूं विजित कर इल्तुतमिश को वहां का सूबेदार बनाया किन्तु यल्दौज के डर से वह राजपूतों से पूरी शक्ति से नहीं लड़ सका।’(मध्यकालीन भारत- ले0 नागौरी प्र0 44) दूसरी ओर सकीट, विलराम, भोगाव व चंद्रवार इस काल तक हिन्दू सत्ता के नये केन्द्र बनकर उभरे। यहां के शासकों ने अपने-अपने क्षेत्र विदेशी दासता से पुनः स्वाधीन करा लिये।
श्री रतनलाल बंसल कृत चंदवार के इतिहास के प्र0 16 के अनुसार ंतउमक मदेनतमबजपवद चतमअंपसमक पद जीम क्वंइ ंसेव ंदक हवअमतदवते मउचींेपेमक जीमपत ेनबबमेे इल ेनबी तमचवतजे ंे जीम बंचजनतम व िजीम त्ंरं व िबींदकूंत यह स्थिति लगभग सम्पूर्ण दोआब (मध्यकाल में गंगा-जमुना के बीच के क्षेत्र को दिया प्रशासनिक नाम) की थी। अंततः ऐबक को स्वयं कोयल(अलीगढ़ का प्राचीन नाम- कोल) व बरज (बदायूं) की सेना सहित इन्हें दबाने आना पड़ा तथा भीषण संघर्ष के बाद इन्हें आंशिक रूप से अपने अधीन करने में सफल रहा।
ऐबक की मृत्यु के उपरान्त प्रथम तो उसका पुत्र आरामशाह दिल्ली का सुल्तान बनाया गया किन्तु वह कोई उल्लेखनीय उपलब्धि अपने खाते में कर पाता इससे पूर्व ही आठ मास पश्चात बदायूं के ऐबक द्वारा बनाए गवर्नर इल्तुतमिश (सही नाम अल्तमश) ने दिल्ली की सत्ता हथिया ली।
इल्तुतमिश को 1210 से 1220ई0 तक अपने विरोधियों के दमन में इस हद तक उलझना पड़ा कि उसका मूल स्थान बदायूं भी उसके पास न रहा। 1221 से 1227ई0 के मध्य इल्तुतमिश को चंगेज खां नामक एक नये आतताई से संघर्षरत रहना पड़ा। वहीं 1228 से 1236ई0 तक उसे अपनी वैयक्तिक व वशीय सत्ता के संगठन में व्यस्त रहना पड़ा। स्थिति इतनी खराब थी कि ग्वालियर विजय के उपरान्त उसे इस क्षेत्र के कन्नौज, मेहर व महावन की सेनाएं इस विजय को स्थाई बनाए रखने के लिए बुलानी पड़ीं। पर इन सेनाओं के हटते ही सम्पूर्ण एटा जनपद सहित इस क्षेत्र के सभी भूभाग अपना आंशिक अधीनता का जुआ उतार पुनः स्वाधीन हो गये।
हालांकि नागौरी के अनुसार इल्तुतमिश ने बदायूं, बनारस, अवध आदि को पुनः अपने अधिकार में ले लिया। (मध्य भारत प्र0 47)।  ज्ीम भ्पेजवतल ंदक बनसजनतम व िप्दकपंद चमवचसम चंहम 135 से प्रतीत होता है कि इस काल में इस क्षेत्र के अधिकार के प्रश्न पर तुर्की सेनाओं से स्वाधीन हिन्दू नरेशों का भीषण संघर्ष अवश्य हुआ था। डवंज व िजीमेम ूमतमए ीवूमअमत चमतेवदंस जतपउचसंे ेीवतज सपअमक ंदक सवबंस पद मििमबज ंदक जीमल बवनसे कव सपजजसम जव ीमसच क्मसीप हवअमतदउमदज पद तमकनबपदह जीम मगजमदज ंदक चवूमत व िजीम भ्पदकन तमेपेजमदबमण् किन्तु इस विजय के उपरान्त हिन्दू नरेश सत्ताच्युत हुए या आधीन? इस प्रश्न पर इतिहास मौन है। और सत्ताधीशों का अपनी प्रशंसा का मौन यह मानने का पर्याप्त आधार है कि इस युद्ध के उपरान्त भी खाली हाथ ही थे।
20 शाबान 633हि0/ 30 अप्रेल 1236 को इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद उसका पुत्र रूकनुद्दीन जिसे इल्तुतमिश ने 1227 में बदायूं विजय के बाद वहां का सूबेदार बनाया था, दिल्ली का नया सुल्तान बना। सत्ता के संघर्ष का यह काल इतना घृणित था कि दिल्ली सुल्तनत को अपने चारों ओर तो देखने का भी अवकाश न था। 6 माह 28 दिन बाद 19 नवम्बर 1236 को रूकनुद्दीन को मार डाला गया।
अब सत्ता रजिया के हाथों पहुंची। रजिया सुल्तान का चयन अपने उत्तराधिकारी के रूप में स्वयं इल्तुतमिश ने भी किया था। क्योंकि ‘उसने उसकी योग्यताएं भली प्रकार देखी और परखीं थीं क्योंकि वह अपनी माता तुर्की खातुन सहित कुश्के फिरोजी में रही थी।’(मिन्हाज प्र0 175)
यह कुश्के फिरोजी नाम जिले के धुमरी उपनगर स्थित कटिंगरा का भी मिलता है जहां 1489 में सुल्तान बहलोल लोदी की सकीट में मौत के बाद उसके पुत्र सिकन्दर लोदी का अभिषेक हुआ था।
सुल्तान रजिया को महिला होने के कारण अपने सहयोगियों के षड्यंत्र का शिकार होना पड़ा। बदायूं के सूबेदार सहित कुछ प्रमुख अधिकारी रजिया के विरूद्ध थे। इन्होंने उसे बंधक बना लिया तथा 630हि0/ 1240ई में उसे मार डाला।
इल्तुतमिश से रजिया तक के इस काल में इस क्षेत्र में किसी भी आक्रमण का विवरण इतिहास में नहीं है। चंदवार का इतिहास लिखनेवाले रतनलाल बंसल तो बिलराम निवासी तत्कालीन जैन कवि लख्खण के काव्यग्रंथ अणुवय के आधार पर इस सम्पूर्ण क्षेत्र को हिन्दू शासकों द्वारा शासित एक पूर्ण स्वाधीन क्षेत्र मानते हैं।
21 अपेल 1240ई को रजिया की मौत से कुछ समय पूर्व बहराम दिल्ली का सुल्तान बनाया गया था जिसने 13 मई 1242ई0 तक शासन किया। इसके बाद 1244-46 में अलाउद्दीन मसूदशाह दिल्ली का नया सुल्तान बना।
दिल्ली की सत्ता इस काल में आपसी कलह, वैमनस्य तथा विवादों का केनद्र थी। सुल्तान पद प्रतीकात्मक रह गया था। वास्तविक सत्ता 40 अमीरों के संगठन के हाथों में थी और ये अमीर भी आपसी प्रतिस्पर्धा में उलझे थे। इस दल का नेता बलवन था। 646-665हि0/ 1247 से 1266ई0 तक सुल्तान रहा नसरूद्दीन मसूदशाह तो शासन की सम्पूर्ण शक्तियां बलवन में निहित कर ही सुल्तान पद पा सका था।
विल्सढ़ पर आक्रमण
सुल्तान शमसुद्दीन अल्तमश (इल्तुतमिश) द्वारा खोर से खदेड़े जाने पर जयचंद्र के बाद कन्नौज नरेश बने महाराजा हरिश्चंद्र तो जौनपुर की ओर बढ़ गये, जबकि उनके दूसरे भाई अथवा वंशज राजा वेणुधीर सिंह विल्सढ़ (अलीगंज तहसील में स्थित एक प्राचीन पुरावशेष जहां सम्राट कुमारगुप्त का विश्वप्रसिद्ध विल्सढ़ अभिलेख अंकित है) को केन्द्र बना राज्य करने लगे। ये दिल्ली की सत्ता के समक्ष एक प्रबल चुनौती थे। 1247ई0 को बलवन ने विल्सढ़ पर आक्रमण करने के लिए नसीरूद्दीन शाह को भेजा। विल्सढ़ के राठौर बड़ी वीरता से लड़े किन्तु प्रबल विपक्षी के सम्मुख उन्हें पराजित होना पड़ा। हालांकि महत्वाकांक्षी बलवन को भी 1253ई0 में पराभव का सामना करना पड़ा किन्तु दिल्ली की कमजोर राजनीति के चलते अगले ही वर्ष वह पुनः सत्ता की बागडोर संभालने में सफल हो गया।
बलवन द्वारा जलेसर व बिलराम शेरखां को सोंपे गये
656हि0/ 1258ई0 में बलवन का टकराव शेरखां नामक अमीर से हुआ। इसने अनेक संघर्षो के बाद अंततः बलवन को समझौते के लिए बाध्य कर दिया। इस समझौते के अनुसार बलवन ने फरवरी 1259ई0 में शेरखां को कोयल व बयाना की इक्ताएं व बिलराम व जलेसर के किलों का अधिकार सोंप उससे समझौता कर लिया।
(बिलराम के स्थानीय इतिहास के अनुसार इसकी स्थापना महाराज जयचंद? के सहयोगी बलरामसिंह चैहान द्वारा की गयी जो पृथ्वीराज चैहान व जयचंद के समय यहां के शासक थे। उपरोक्त विवरण शेरखां को बिलराम व जलेसर के किलों का अधिकार देने की बात करते हैं किन्तु यह इससे पूर्व किसके अधिकार में था? इस प्रश्न पर इतिहास तो मौन है किन्तु स्थानीय अनुश्रुतियां बिलराम किले के विषय में इससे पूर्व इसे चैहानों के अधिकार में होने के संकेत करती हैं।)
अमीर खुसरो
नसीरूद्दीन के शासनकाल में ही 1253ई0 में पटियाली में अमीर खुसरो का जन्म हुआ। पटियाली इस काल में विदेशियों की अधीनता में होना प्रतीत होता है। कारण, इस काल में पटियाली का नाम पटियाली न होकर मोमिनपुर या मोमिनाबाद था।
चैहान-राठौरों में रोटी-बेटी सम्बन्ध: एक ऐतिहासिक सम्मिलन
तोमरों की दिल्ली पर चैहानों के अधिकार से बिगड़े तोमर महाराजा अनंगसिंह के दोहित्र जयचंद व प्रथ्वीराज के सम्बन्धों ने चैहानों तथा राठौरों के कटु सम्बन्ध जो पृथ्वीराज रासो जैसी कृतियों के अनुसार संयोगिता प्रकरण के बाद शत्रुता के सम्बन्धों में बदल चुके थे, दिल्ली व कन्नौज के पतन के बाद भी शत्रुवत ही थे। अतीत में भारत के प्रमुख राजवंश रहे दोनों वंश अब भी अपनी-अपनी ऐंठ छोड़ने को तत्पर न थे। किन्तु इस काल तक आते-आते दोनों वंशों के प्रमुखों ने बदली परिस्थिति में अपने वैमनस्य को समाप्त करने के प्रयास करने आरम्भ कर दिये।
कभी हांसी-दिल्ली-अजमेर की प्रमुख शक्ति रहे चैहान इस काल तक राजस्थान के नींवराना में सिमट चुके थे। वहीं राठौर भी खोर (वर्तमान शमशाबाद, फरूखाबाद), बदायूं, विल्सढ़ आदि से हट अंततः राजा का रामपुर नगर की स्थापना कर वहां स्थापित हो चुके थे।
राजपूतों के परम्परागत वंशलेखक ‘राजस्थान के जगाओं’ के विवरणों के अनुसार संवत 1322 विक्रमी अर्थात 1265ई0 को राजा का रामपुर के तत्काली शासक राजा रामसहाय ने एक नयी पहल कर नींवराना के तत्कालीन शासक चतुरंगदेव चैहान के पुत्र कुंवर सकटसिंह से अपनी पुत्री का विवाह कर दिया।
सकीट राज्य की स्थापना तथा रिजोर की विजय
जगाओं के अभिलेखों के अनुसार राजा रामसहाय ने इस अवसर पर सकटसिंह को 24 गांव (सामान्य गांव नहीं राजस्व क्षेत्र) भी दहेज में दिए। सकटसिंह ने इन गांवों में प्रमुख सकीट जो एक शक्तिपीठ तथा प्रचलित किम्बदन्तियों के अनुसार भगवान विष्णु के क्रीट व कुण्डल सहित अवतरण का स्थल (स $ क्रीट) रहा है, को इस नवीन राज्य की राजधानी बनाया।
सकीट के समीप ही पुराणों में उल्लिखित राजा ऋतुपर्ण की नगरी रहा रिजोर का राज्य था जो इस काल में एक ब्राहमण राजा के अधिकार में था। 1266ई0 में सकट सिंह ने इस छोटे से राज्य पर आक्रमण कर इस राजा को परास्त कर इस पर भी अधिकार कर लिया।
उधर दिल्ली की सल्तनत कमजोर हो रही थी, इधर सकटसिंह अपने राज्य का क्षेत्र बढ़ा रहे थे। धीरे-धीरे समीप के अनेक क्षेत्र जीत राजा सकटसिंह का नवोदित राज्य वर्तमान अलीगढ़ जिले के जरतोली से लेकर लगभग सम्पूर्ण इटावा तक विस्तृत हो गया।
सकटसिंह के वंशज
जगाओं के वंश विवरणों के अनुसार सकटसिंह के 2 रानियों से 21 पुत्र थे। उनके बाद सकीट का नवोदित राज्य इन्हीं 21 पुत्रों में 21 ठिकानों के रूप में बंट गया। इनमें राव सुमेर सिंह इटावा के, धारासिंह अथवा धीरराज रिजोर के, प्रतापरूद्र भोगांव (बाद में मैनपुरी राजवंश) तथा जयचंद बिलराम के शासक बने। सकटसिंह के ही एक अन्य पुत्र चंद्रसेन ने चंदवार की पुनस्र्थापना कर वहां का शासन संभाला।
(जगाओं के इन विवरणों को अन्य श्रोत स्वीकार नहीं करते। चंदवार व फिरोजाबाद का प्राचीन इतिहास पुस्तक के लेखक श्री रतनलाल जैन की मान्यतानुसार- 7वीं या 8वीं सदी में माणिक राव नामक एक राजकुमार के नेतृत्व में चैहान राजपूतों का एक दल राजपूताना से चलकर चम्बल के तटवर्ती स्थानों में पहुंचा। कालांतर में इन लोगों ने यमुना पार कर कुछ प्रदेशों पर अधिकार कर लिया जो इस समय आगरा-फिरोजाबाद-मैनपुरी व एटा आदि जिलों के अंतर्गत हैं।
बिलराम से प्राप्त एक शिलालेख से भी यही ध्वनित होता है कि बिलराम पर 1265ई0 से पूर्व भी चैहानों का अधिकार रहा है। देखें- काली सरिद्धन ददिग्भवभूविभागे प्रग्कारियेन नगरं बलराम संज्ञम् स्वर्गम्गतो .... मधर्म भूतां वरिष्ठः चैहानवंशतिलको बलरामसिंह श्री कान्यकुब्जकृनरपाल-सभा-सदस्यः श्रेष्ठाश्रयस्च सुधियो विदुषां कवीनाम्...।)
अधिक संभव यही प्रतीत होता है कि चैहानों का पूर्व में भी इस क्षेत्र के कतिपय स्थलों पर अधिकार रहा था किन्तु एक राज्य के रूप में सकटसिंह के काल से ही अस्तित्व में आये। इस तथ्य का प्रमाण बिलराम शिलालेख तो है ही, गोरी-जयचंद के मध्य चंदवार युद्ध भी यही संकेत देते हैं कि दोनों क्षेत्र चैहानी अधिकार में होते हुए भी कन्नौज के राठौरों के अधीन थे न कि स्वतंत्र चैहानी राज्य।
इस काल में एटा जनपद काली नदी को आधार मानें तो इसके उत्तर में सोरों, सहावर, अमापुर आदि पर सोलंकियां का, पटियाली व अलीगंज क्षेत्रों पर राठौरों का तथा शेष जनपद पर चैहानों का अधिकार था।
चैहानी राज्य-व्यवस्था
इस तथ्य के स्पष्ट उल्लेख तो नहीं मिलते किन्तु करीब 300 वर्षों तक क्षेत्र की प्रमुख शक्ति रहे तथा देश की स्वाधीनता तक क्षेत्र के प्रमुख राजवंश रहे चैहानों की इस काल की ऐतिहासिंक घटनाएं आभास दिलाती हैं कि चैहानी राज्य एक ऐसे गणराज्य के रूप में संचालित था जिसमें इस राजवंश का वरिष्ठ सदस्य वंशप्रमुख के साथ राजप्रमुख भी होता था। यही कारण है कि समस्त चैहानी शक्ति कभी सकीट नरेश के नेतृत्व में तो कभी भोगांव नरेश के तो कभी इटावा नरेश के नेतृत्व में तो कभी चंदवार नरेश के साथ दिल्ली की विदेशी सत्ता से जूझती है। संभव है इसमें कभी व्यवधान भी पड़ा हो किन्तु अधिकतर समय चोहान अपनी इसी व्यवस्था के चलते अपनी एकता बनाये रखने में सफल रहे हैं।
दिल्ली सुल्तान बलवन और एटा
665हि0/ 1233ई0 में जब ग्यासुद्दीन बलवन दिल्ली का वास्तविक सुल्तान बना तो उसके सामने प्रमुखतः 4 समस्याग्रस्त प्रदेश थे। प्रथम दिल्ली का निकटवर्ती प्रदेश, दूसरा गंगा-यमुना का दोआब, तीसरा व्यापारी मार्ग विशेषतः अवध जानेवाला मार्ग तथा चैथा कटेहर अर्थात बरेली अंचल का वह क्षेत्र जिसे बाद में रूहेलखंण्ड कहा गया।
इन में दो समस्याएं एटा जिले के भूभाग से सम्बन्धित थीं। दोआब की समस्या तथा व्यापारी मार्ग की समस्या। ऐसा प्रतीत होता है कि गंगा-यमुना के मध्य हरिद्वार से लेकर प्रयाग तक का सम्पूर्ण भूभाग इस काल में इतना स्वाधीन हो चुका था कि तुर्की सुल्तान को इस पर पुनः अधिकार बड़ी समस्या प्रतीत होता था। ये सुल्तनतकालीन इतिहासकारो की दृष्टि में विद्रोही माने जाते थे जो उसके शासन को स्वीकार न करते थे।
स्वयं सुल्तान की राजधानी दिल्ली का हाल यह था कि दिल्ली के दरवाजे दोपहर को ही बंद कर दिये जाते थे। इसके बाद तो सामान्य जन को तो छोडि़ए स्वयं सुल्तान का भी साहस न था कि वह दिल्ली से बाहर निकलने का साहस कर पाता। दिल्ली के आसपास रहनेवाले मेव प्राणपण अवसर की तलाश में थे कि कब मौका मिले और कब वह दिल्ली को हस्तगत करें।
सुल्तनत की तत्कालीन स्थिति का वर्णन इतिहासकार डा0 अवधविहारी पाण्डे ने इन शब्दों में किया है। उनके अनुसार- साम्राज्य के केन्द्रीय भाग में स्थित राजपूत सरदार एवं भूमिपति सुल्ताने के कर्मचारियों को सताने और उसके खजाने अथवा रसद के सामान को लूटने से ही संतुष्ट नहीं होते थे बरन उनमें से कुछ इतने साहसी और बलवान हो गये थे कि वे राजधानी में घुसकर दिनदहाड़े लूटमार करते थे और मुस्लिम स्त्रियों के न केवल आभूषण वरन वस्त्र भी उतारकर सुल्तान की शक्ति और प्रतिष्ठा को बार-बार चुनौती देते थे। मुस्लिम इतिहासकारों ने उनको डाकुओं अथवा लुटेरों की संज्ञा दी है परन्तु मालूम होता है कि वे राजपूत प्रत्याकृमण और प्रतिशोध के अग्रगामी दस्ते थे।
बलवन ने लगभग 1 वर्ष मेवों के दमन में लगाया जो उसकी पहली समस्या थे। अब उसने दोआब की ओर ध्यान दिया।
जिले की तत्कालीन स्थिति
इतिहासकार बरनी के विवरणों से प्रतीत होता है कि जिले का पटियाली व समीपवर्ती फरूखाबाद के कम्पिल व भोजपुर नगर इस काल में किसी एक ही सत्ता के अधीन थे। ये कौन थे इस विषय में अब सिर्फ अनुमान ही लगाया जाना संभव है। किन्तु थे इतने उद्भट कि दिल्ली की सत्ता तक इनका खौफ मानती थी।
दूसरी ओर सकीट को हम इस काल में दूसरे केन्द्र के रूप में पाते हैं। यह संभवतः नवोदित चैहानी शक्ति का केन्द्र था। जिले के बिलराम व जलेसर के बारे में स्पष्ट नहीं कि वे किसी सत्ता के केन्द्र थे अथवा चंदवार के अधीन जैसा कि चंदवार के ऐतिहासिक विवरण संकेत देते हैं।
बलवन का अभियान और जनपद
बलवनकालीन इतिहास लेखक बरनी के अनुसार-‘मेवों का दमन करने के पश्चात सुल्तान ने दोआब की ओर ध्यान दिया। दोआब के नगर और प्रदेश उन इक्तेदारों को प्रदान किये गये जिनके पास आवश्यक धन था। बलवन ने यह आदेश दिए कि जिन गांवों के लोग आज्ञाकारी नहीं हैं, उन्हें बिल्कुल नष्ट कर दिया जाय। निवासियों की हत्या की जानी थी और उनके स्त्री-बच्चे लूट की सम्पत्ति के रूप में अधिकृत कर लेने थे। जंगल पूर्णरूपेण काटे जाने थे। कुछ बड़े अमीर जिनके पास विशाल सेनाएं थीं, ने यह काम पूरा करने के लिए कमर कस ली। उन्होंने विद्रोहियों का विनाश किया, जंगल काट डाले, अराजकता फैलानेवालों का अत कर दिया गया और दोआब की जनता को समर्पण और अधीनता स्वीकार करने पर विवश कर दिया।’
स्पष्ट है कि यहां युद्ध नहीं विनाश किया गया। भारत के इतिहास में किसी राज्य के लिए युद्ध के नाम पर इससे पूर्व सामान्य जन के इस प्रकार के समूल विनाश के विवरण नहीं मिलते।
जनपद के स्वाधीन शासकों के सारे प्रयत्न विफल हुए। उन्हें सबल होते हुए भी पाशविकता के समक्ष अपने सामान्य जन के प्राण बचाने के लिए समर्पण करना पड़ा। और लाशों के व्यापारी बलवन ने अपनी पाशविकता के बल पर इस इलाके में अपनी आंशिक सत्ता जमाने में सफलता पायी।
पटियाली, कम्पिल व भोजपुर का नरसंहार
तुर्कों की इस पाशविकता के बावजूद भी क्षेत्रीय हिन्दू नरेश पूरी तरह हताश न थे। उन्होंने यथाशक्ति दिल्ली सुल्तनत को पराभूत करने के प्रयास किये। प्रत्यक्ष युद्ध में सफलता की आशा न देख अब उन्होंने युद्ध की छापामार शैली का सहारा लिया। इनके प्रयास इतने सफल थे कि बलवन के भेजे अमीर नामक गुण्डे भी इनका कुछ न बिगाड़ सके। अंततः एक विशाल सेना के साथ स्वयं बलवन को मैदान में आना पड़ा।
बरनी के अनुसार- दोआब की समस्या का समाधान करने के बाद बलवन ने हिन्दुस्थान (अर्थात् अवध) (जी हां, इस काल के विवरणों के अनुसार जो भाग सुल्तनत का कभी भी भाग रहे उन्हें उनके स्वाधीन रहते हुए भी सुल्तनत के विवरणों में सुल्तनत का भाग तथा स्वाधीन नरेशों को विद्रोही कहा जाता था। जबकि जो भाग इस काल तक प्रत्यक्ष रूप से सुल्तनत के भाग नहीं बने थे उन्हें हिन्दुस्थान कहा जाता था।) का मार्ग खोलने की दृष्टि से दो बार नगर से कूच किया। वह कंपिल और पटियाली पहुंचा और उन क्षेत्रों में पांच या छह माह रहा। उसने बिना किसी सोच विचार के डाकुओं और विद्रोहियों (इन्हें वास्तविक डाकू या विद्रोही न समझें। यह तो इन स्वाधीनता के पुजारियों को सुल्तनत के कथित इतिहासकारों द्वारा यह नाम दिया गया है।) का संहार किया।
हिन्दुस्तान की ओर का मार्ग खुल गया और व्यापारी तथा कारवां सुरक्षित आने जाने लगे। इन क्षेत्रों से भारी मात्रा में लूट की सम्पत्ति दिल्ली लायी गयी। (स्वयं निर्णय करें, डाकू व लुटेरा किसे कहा जाय? उन स्वाधीनता सेनानियों को या इस कथित सुल्तान को?) जहां दास और भेड़ें बड़ी सस्ती हो गयीं। कम्पिल, पटियाली और भोजपुर में जो हिन्दुस्तान के मार्ग में डाकुओं के बड़े-बड़े केन्द्र थे, दृढ दुर्गों तथा विशाल मस्जिदों का निर्माण (स्वाभाविक है हिन्दू मंदिरों को तोड़कर) कराया गया। उपरोक्त तीनों दुर्ग सुल्तान ने अफगानों के लिए निश्चित किये और दुर्गों से सम्बद्ध भूमि गफरूज (कररहित) कर दी गयी। अफगानों तथा अन्य मुसलमानों को कररहित भूमि प्राप्त हो जाने से उस क्षेत्र के नगर इतने दृढ हो गये कि मार्गों में डकैती और लूटमार हिन्दुस्तान जानेवाले मार्ग से बिल्कुल समाप्त हो गयी।
क्रान्ति व विद्रोह में महज सफलता-असफलता का अंतर होता है। सफल विद्रोह क्रान्ति तथा असफल क्रान्ति विद्रोह की श्रेणी में आता है। वस्तुतः बलवन ने दोआब में युद्ध तो कहीं किया ही नहीं था। उसने तो ‘बिना किसी सोच विचार के डाकुओं और विद्रोहियों का संहार’ कराया था। सल्तनतकालीन तथा सुल्तान के प्रिय विवरण लेखक बरनी के ये शब्द तत्कालीन परिस्थिति की भयावहता को बताने के लिए पर्याप्त है कि- इन क्षेत्रों से भारी मात्रा में लूट की सम्पत्ति दिल्ली आयी जहां दास और भेड़ें बड़ी सस्ती हो गयीं। समझ नहीं आता कि डाकू किसे कहें? बरनी के बताये लोगों को, या लूट कर सम्पत्ति दिल्ली ले जानेवाले कथित सुल्तान को।
अनुश्रुतियां इस प्रत्याक्रमण व प्रतिरोध की बागडोर जिले में पटियाली नरेश बन्तासिंह के नेतृत्व में होना बताते हैं। ये सीमित साधनों से लगातार 5-6 माह बलवन से टकराकर अपनी वीरता का परिचय देते रहे किन्तु बलवन की भांति अत्याचारी न होने, उसकी भांति पाशविकता का परिचय न दे पाने तथा जल व्यवस्था प्रदूषित करने जैसे अनैतिक कार्य न कर पाने के कारण असफल रहे। फिरभी उनकी वीरता का प्रभाव अफगानों के मनो-मस्तिष्क में ऐसा छाया कि इस क्षेत्र का प्रबन्ध संभालने को कोई भी अफगानी या अन्य मुसलमान अमीर तैयार न हुआ। अंततः बलवन को यहां की उपजाऊ जमीनों को गफरूज (कररहित) करने को वाध्य होना पड़ा।
पटियाली, कम्पिल व भोजपुर ही नहीं बरन् जलाली (अलीगढ) व कटेहर (बदायूं व बरेली अंचल) के हिन्दू भी सुल्तनत की दृष्टि में विद्रोही थे। बलवन पटियाली आदि का दमन कर सेना को जलाली व कटेहर के विरूद्ध कूच का आदेश दे दिल्ली लौट गया। प्रतीत होता है कि पटियाली के पतन के उपरान्त इस स्वाधीनता आंदोलन का नेतृत्व संभवतः तत्कालीन सकीट नरेश के हाथ में आ गया। और अब सकीट इन स्वाधीनता के पुजारियों की गतिविधियों का केन्द्र बन गया।
1285ई0 में बलवन का सकीट पर आक्रमण हुआ। बलवन के कूच करने पर सकीट नरेश (जिनके नाम के विषय में इतिहास मौन है) प्रथम तो प्रतिरोध का प्रयास किया किन्तु बलवन की पाशविकता ने उन्हें समर्पण को विवश कर दिया। सकीट नरेश के अधीनता स्वीकारने व उसके खराज देने का वचन देने के बाबजूद हिंसाचार के आदी बलवन ने इसके बावजूद सकीट पर आक्रमण कर नगर को बुरी तरह लूटा तथा नगर के मंदिरों के नष्टकर इसके मलवे से 1285ई0 में एक भव्य मस्जिद का निर्माण करा दिया।
जलेसर की इस काल में क्या स्थिति थी, अस्पस्ट है। 1258ई0 में शेरखां को जलेसर दुर्ग दिए जाने के प्रस्ताव से अनुमान है कि इस काल में भी जलेसर विदेशियों के अधिकार में ही था। 128ई0 में बलवन ने मलिक सरवर को जलेसर का राज्यपाल बना उसे जलेसर सौंपा जाना भी सुल्तनत के अभिलेखों से विदित है।
1287ई0 में बलवन की मृत्यु हुई। बलवन के बाद कैकूबाद ने 1290ई0 तक, फिर 3 माह कैमुर्स ने दिल्ली की सुल्तनत को संभाला। यह काल स्वयं सुल्तनत के लिए ही अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष का काल था अतः सुल्तनत को अपने कब्जे में लेने हेतु प्रयासरत सभी तुर्की सरदार आपस में ही युद्धरत रहने लगे। इससे विखरी स्वाधीनता के पुजारियों की शक्ति को पुनः एकत्र होने का अवसर मिल गया।
खिलजी के समय में जनपद
1290ई0 में सुल्तान कैमुर्स को मारकर खिलजी वंश का जलालुद्दीन खिलजी दिल्ली का सुल्तान बन गया। शक्तिहीन इस खिलजी सुल्तान ने हिन्दुओं से लउ़ने के स्थान पर आीनस्थ शासक के रूप में मान्यता देने की एक नयी नीति अपनाई। अनेक विद्वानों का मानना है कि इस नीति के चलते जलालुद्दीन ने विस्थापित हिन्दू रायों (शासकों) को भी अधीनस्थ शासक के रूप में मान्यता देकर उनके राज्य उन्हें वापस कर दिये। खिलजी की यह नीति विखरे हिन्दू नरेशों के लिए रामवाण सिद्ध हुई।
इस अपेक्षकृत उदार सुल्तान को उसी के भतीजे अलाउद्दीन खिलजी ने 20 जुलाई 1296 को कड़ा में उस समय मार डाला जब वह अपने भतीजे के स्वागत के लिए वहां गया था। साथ ही अलाउद्दीन ने दिल्ली की सत्ता पर कब्जा करने के लिए दिल्ली कूच कर दिया।
नुसरत जलेसरी
अलाउद्दीन खिलजी के इस प्रयाण में जलेसर निवासी ‘नुसरत जलेसरी’ का बड़ा योगदान था। अलाउद्दीन ने कड़ा में ही अपना राज्याभिषेक कराते समय इसे नसरतखां के खिताब से नवाज इसे अपना प्रधान सेनापति बनाया था।
दिल्ली पर अधिकार हो जाने के बाद अलाउद्दीन द्वारा नुसरत को सुल्तनत का मलिक नायाब व दिल्ली का कोतवाल बनाया। यह सुल्तान के गुजरात अभियान का नायक, अवध का गवर्नर तथा कुछ काल तक सुल्तनत का बजीर भी रहा। जिले के पटियाली में जन्मे अमीर खुसरो भी अलाउद्दीन के समय में सुल्तनत के प्रमुख अधिकारी थे।
स्वरूपगंज (मारहरा) की स्थापना और अलाउद्दीन से संघर्ष
खिलजी (संभवतः जलालुद्दीन खिलजी) के समय में ही राजा स्वरूपसिंह ने वर्तमान मारहरा के समीप स्वरूपगंज की स्थापना की तथा आसपास के क्षेत्रों को विजित कर एक नवीन राज्य की स्थापना की। इन्हें 1297-98 में हुए एक युद्ध में अलाउद्दीन ने मार दिया। 1299ई0 में इनके पुत्र मणिराय ने अपने पिता के राज्य पर पुनः अधिकार किया किन्तु वे 1306ई0 तक ही शासन कर सके। 1306ई0 में अलाउद्दीन ने पुनः इस नवोदित राज्य पर आक्रमण कर मणिराय को भी मार डाला। अलाउद्दीन ने यहां पुनः संघर्ष की आशंका देख इसे मारहरा नाम दे अपना परगना घोषित कर दिल्ली सूबे से सम्बद्ध कर सीधे अपनी सुल्तनत से जोड़ लिया।
स्थानीय अनुश्रुतियां भी बार-बार हिन्दुओं को मारकर हरा देने के कारण को ही मारहरा के नामकरण का आधार मानती हैं। मारहरा में खिलजी द्वारा निर्मित विशाल मस्जिद आज भी दृष्टव्य है जो इन अनुश्रुतियों की पुष्टि का जीवंत प्रमाण है।
अलाउद्दीन और हिन्दू
बरनीकृत फतवा-ए-जहांदारी के अनुसार ‘अलाउद्दीन का हिन्दुओं के प्रति कठोर व्यवहार था। उन्हें भूमिकर उपज के आधे भाग के रूप में देना होता था। इसके अलावा चरागाह व पशुओं पर भी कर लगाया गया था।’
जजिया कर के भुगतान का तरीका और भी अमानवीय तथा बहशी था। डा0 लाल के अनुसार- जजिया के भुगतान के समय जिम्मी (हिन्दू) का गला पकड़ा जाता और जोरों से हिलाया तथा झकझोरा जाता था। जिससे जिम्मी को अपनी स्थिति का ज्ञान हो सके। कोई हिन्दू सर ऊॅचा करके नहीं चल सकता था।
जहां सम्पूर्ण देश में हिन्दू द्वितीय श्रेणी के रूप में लक्षित हो रहा हो वहां स्वरूपसिंह द्वारा नवीन राज्य की स्थापना कर सकने तक का दुस्साहस यह दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि जनपद में ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी अदम्य साहस की कमी न थी। दूसरी ओर इससे यह भी आभास होता है कि इस क्षेत्र पर अधिकार भले ही विधर्मियों का हो उनका शिकंजा ढीला ही था।
तुगुलक शासनकाल में जनपद
1316ई0 में अलाउद्दीन की मृत्यु हो गयी। इसके बाद 35 दिन के लिए मिहीउद्दीन उमर, 1316ई0 से 1320ई0 तक कुत्बुद्दीन मुबारक खिलजी तथा 1320ई0 में ही नसीरूद्दीन खुसरो शाह दिल्ली का सुल्तान बना।
8 सितम्बर 1320ई0 को अलाउद्दीन खिलती के अंगरक्षक ग्यासुद्दीन तुगलक सुल्तान खुसरोशाह की हत्या कर दिल्ली का सुल्तान बना। स्वयं की कोई विशिष्ट हैसियत न होने तथा तुर्की अमीरों की ओर से होनेवाले सतत षड्यन्त्रों ने इसे भी स्थानीय हिन्दू नरेशों व सरदारों से मधुर सम्बन्ध रखने को बाध्य किया। ‘हालांकि ग्यासुद्दीन का सामान्य हिन्दुओं के प्रति व्यवहार उदार न था। अलाउद्दीन द्वारा लगाए गये सभी प्रतिबन्ध इसके काल में भी यथावत थे।’
फिर भी क्षेत्र के स्वाधीन या अर्ध स्वाधीन शासकों के लिए यह अनुकूल सुल्तान था। इसने सभी नरेशों को औपचारिक रूप से स्वाधीन शासक मान उनके साथ मैत्री के प्रयास किये। यह व्यवस्था हालांकि अधिक काल तक नहीं चल सकी। एक षड्यंत्र के तहत फरवरी 1325ई0 में इसी के पुत्र ने इसकी हत्या कर दी।
अब इसका पुत्र जूनाखां, मुहम्मद बिन तुगुलक के नाम से दिल्ली का नया सुल्तान बना। शंकित मनोवृत्ति के इस सुल्तान को जनता के इरादों पर तथा जनता को इसके इरादों पर शंकाएं थीं। मुहम्मद सुल्तान कम लूट की मनोवृत्तिवाला लुटेरा अधिक था। स्वाधीन हिन्दू शासकों व अधीनस्थ सरदारों से इसका निरंतर टकराव चला। उनके लगातार विद्रोहों के फलस्वरूप सुल्तान इतना अधिक शक्तिहीन हो गया कि वह किसी विद्रोह का दमन करने में भी समर्थ न रहा।
प्रतीत होता है कि सुल्तान मुहम्मद बिन तुगुलक के समय में जनपद के राठारों के प्रभावक्षेत्रों में उल्लेखनीय कमी आयी तथा उनकी क्षेत्र से प्रभावशाली अधिसत्ता भी समाप्त हो गयी। किन्तु मुहम्मद चैहानी सत्ता के विरूद्ध कोई खास उपलब्धि अर्जित करने में असफल प्रतीत होता है।
दिल्ली में अकाल और सुल्तान का लूट अभियान
अपने शासन के सातवें वर्ष सुल्तान को प्रकृति के कोप से जुझना पड़ा। देश में भयानक अकाल पड़ गया और इस अकाल से बचने का जो नायब तरीका सुल्तान के पास था, वह था- दोआब की खुली लूट। इतिहासकार खालिक अहमद निजामी लिखते हैं- सन् 1333ई0 में वर्षा न होने के कारण सुल्तान के पास इसके अतरिक्त और कोई विकलप न था कि वह दोआब के किसानों से अनाज छीन ले। 1328ई0से 1334ई0 की छह वर्षों की अवधि में जब सुल्तान अपने अमीरों मलिकों और सैनिकों सहित दिल्ली में था, उसकी स्त्रियां और बच्चे देवगिरि में थे, कठोर मांगों तथा असंख्य उपकरणों के कारण दोआब का क्षेत्र उजड़ गया।
हिन्दुओं ने अपने अनाज में आग लगा दी और जला डाला। उन्होंने अपने मवेशी घरों से निकाल दिये। सुल्तान ने अपने ‘शिकदारों’ तथा ‘फौज’ को आदेश दिये कि वे लूटमार करें। कुछ अंधे बना दिये गये तथा जो बचे उन्होंने एकत्रित होकर वनों की शरण ली। इस प्रकार प्रदेश उजड़ गया। इन दिनों सुल्तान शिकार खेलने बरन (बुलंदशहर) गया। उसने बरन का समस्त प्रदेश लूटने तथा हिन्दुओं के कटे सर लाकर बरन के दुर्ग के मीनारों से लटकाने के आदेश दिये...। इसके बाद सुल्तान ने हिन्दुस्तानियों को लूटने के लिए एक बड़ी सेना भेजी जिसने कन्नौज से डलमऊ तक का क्षेत्र लूटा। इतिहास में उल्लिखित न होते हुए भी यह तथ्य है कि बुलंदशहर से कन्नौज-डलमऊ तक हुई इस लूट में यह जनपद भी उतना ही प्रताडि़त था जितना बरन या कन्नौज।
सुल्तनतकालीन इतिहासकार बरनी के अनुसार- सुल्तान के मन में यह आया कि दोआब के किसानों पर भूमिकर बढ़ाकर एक से दस गुना कर देना चाहिए। इसे क्रियान्वित करने के लिए कठिन नियम बनाए गये और अमीर रैयत जिनके पास धन था, विद्रोही बन गये।
सुल्तान का स्वर्गद्वारी राहत शिविर
देश की स्थिति इस काल तक इतनी बिगड़ चुकी थी कि स्वयं सुल्तान ने विवश होकर नागरिकों को अकाल से बचने के लिए सपरिवार हिन्दुस्तान (अर्थात वह क्षेत्र जो मुसलमानों के अधिकार में नहीं था) जाने की अनुमति दे दी। सुल्तान मुहम्मद भी राजधानी से बाहर आया तथा पटियाली और कम्पिला होते हुए खुद गंगा किनारे नगर के सामने अपनी सेना सहित डेरा लगाया। सैनिकों ने अपने घास-फूंस के मकान खेती की हुई भूमि के सामने बसाए। उस शिविर का नाम स्वर्गद्वारी रखा गया (स्वर्गद्वारी नाम का यह तत्कालीन नगर अब भी एक गांव के रूप में पटियाली तहसील में अवस्थित है)।
ढ़ाई बरस तक दिल्ली सुल्तनत की राजधानी रहा स्वर्गद्वारी
स्वयं सुल्तान के स्वर्गद्वारी में रहने से इस काल में स्वर्गद्वारी ही दिल्ली सुल्तनत की राजधानी तथा तत्कालीन गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र बन गया। स्वयं सुल्तान ने भी इस काल के अपने फतवों में स्वयं को ‘सुल्तान-ए-सर्गदारी’ कहकर उल्लिखित किया। इसी सुल्तान ने एक बार राजधानी दिल्ली से दौलताबाद भी स्थानांतरित की थी।
स्वर्गद्वारी नगर 738 हि0/ 1338ई0 के अंत में या 739 हिजरी के प्रारम्भ में बसाया गया। अर्थात इस गांव में सुल्तान के आने का समय 1338ई0 है। क्योंकि सुल्तान 741हि0 अर्थात 1241ई0 में दिल्ली लौट गया था अतः इब्ने बत्तूता के अनुसार- सुल्तान ढाई वर्ष स्वर्गद्वारी में रूका था।
सुल्तान को अपने स्वर्गद्वारी प्रवास के समय भी अनेक विद्रोहों का सामना तथा दमन करना पड़ा। इनमें सबसे प्रमुख विद्रोह आइनुलमुल्क माहरू का था। यह सुल्तान का घनिष्ट मित्र, सहचर तथा अवध व जाफराबाद का गवर्नर था। इसने 1338 में निजाम मई के कड़ा विद्रोह का दमन भी किया था। जब सुल्तान स्वर्गद्वारी में था..वह 50हजार मन गेहूं तथा चावल प्रतिदिन शाही शिविर में भेजता था।
पर शंकित सुल्तान उसकी इन सफलताओं से भी आशंकित हो गया तथा उसने उसे दौलताबाद स्थानांतरित करने का विचार बना लिया। सुल्तान की चाल भांप आशंकित आइनुलमुल्क अपने भाइयों से मिलकर भागने की योजना बनाने लगा। एक रात वह स्वर्गद्वारी शिविर से भाग निकला तथा अपने उस भाई से मिलने चला जिसने सुल्तान की साजसज्जा जो उसके अधिकार में थी, उसे हड़प लिया।
इससे सुल्तान ने स्वयं को संकटपूर्ण स्थिति में पाया। सुल्तान ने राजधानी लौटने का निश्चय किया किन्तु उसके अमीरों ने उसे तुरन्त कार्यवाही की सलाह दी। इसे स्वीकार कर उसने सामाना, अमरोहा, बरन व कोयल तथा अन्य नगरों से सेनाएं बुलाईं तथा स्वयं को कन्नौज दुर्ग में सुरक्षित किया। अंततः तगी के विद्रोह का दमन करते समय 20 मार्च 1351ई0 को इस सुल्तान की मृत्यु हो गयी।
दिल्ली के अगले सुल्तान बने फिरोजशाह तुगलक के राज्याभिषेक के समय तक तो जिले के प्रायः सभी भाग स्वतंत्र हो चुके थे। यही कारण है कि इसके सम्पूर्ण काल में इस क्षेत्र में हम किसी सुल्तनत के अधिकारी की नियुक्ति नहीं पाते। हां इस काल में पहली बार दिल्ली दरबार में इस क्षेत्र के 3 शासकों अर्थात मंदारदेव, राय सुबीर व रावत अधरन को हम कालीनरहित फर्श पर बैठने का विचित्र विशेषाधिकार मिलता अवश्य पाते हैं।
जबकि फिरोज के विषय में डा0 आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ेका मत है कि भारतीय इतिहास में सिकन्दर लोदी को छोड़कर अन्य किसी शासक की शासन नीति पर औरंगजेब से पूर्व धर्म का इतना प्रभाव नहीं था जितना फिरोज तुगुलक के समय था। फिरोज मुसलमानों के साथ उदार, हिन्दुओं के साथ कठोर था..उसने ब्राहमणों पर भी जजिया कर लगाया...हिन्दुओं को उच्च पदों से हटाकर बलपूर्वक मुसलमान बनाया।
सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस प्रकार का विशेष अधिकार पानेवाले यह हिन्दू शासक इतने शक्तिशाली होने चाहिए कि हिन्दुओं से अपनी घृणा के बावजूद उस दरबार में बैठने का भले ही कालीन रहित फर्श पर ही सही, देना पड़ा जहां सुल्तान के अतरिक्त दस-बारह अधिकारियों को ही बैठने का अधिकार था, शाही परिवार के सदस्यों सहित शेष को तो दरबार के समय खड़े ही रहना पड़ता था। बाद की घटनाएं राय सुबीर, राय अधरन आदि की शक्ति का परिचय करानेवाली हैं।
और राजा को मिला
कालीनरहित फर्श पर बैठने का विशेषाधिकार
भारत में 1192ई0 में दिल्ली सम्राट पृथ्वीराज चैहान की पराजय के बाद से बदली परिस्थियां 20 मार्च 1351 को दिल्ली के सुल्तान बने फिरोजशाह तुगुलक के समय तक आते-आते इस प्रकार की बन चुकी थीं कि भारतीय भूभाग के हिन्दू नरेश अपने इस्लामी प्रतिद्वन्द्वियों को सहन करने लगे थे वहीं इस्लाम के नाम पर आये आक्रांता भी अपने हिन्दू विरोधियों को बर्दाश्त करने लगे थे।
इस काल तक 159 वर्ष के संघर्ष ने इस्लाम के अनुयायी सुल्तानों को अपनी प्रबल संघर्ष शक्ति के बल पर कई बार भारत से जाते-जाते रोका था तो अपनी आक्रामकता के बावजूद वे हिन्दू राष्ट्र भारत को इस्लाम के झंडे के नीचे लाने में असफल रहे थे।
अव शासन की एक नयी परिभाषा भी गढ़ी जाने लगी थी। यह परिभाषा थी सुल्तानों द्वारा उन हिन्दू शासकों का सहयोग लेने को बाध्य होना जो सुल्तनत के प्रबल शत्रु होते हुए भी बदली परिस्थिति में सुल्तनत के सहयोगी बनने को तैयार थे तथा उस समय की विदेशी शासकों की आपसी आपाधापी में सुल्तान के एक अच्छे सहयोगी थे।
सुल्तानों के मध्य दोआब के नाम से विख्यात उ0प्र0 का गंगा-यमुना के मध्य का भाग इस काल में स्थानीय शासकों के स्वाधीनता प्रेम के चलते सुल्तनत के शासकों के मध्य सर्वाधिक उपद्रवी प्रदेश माना जाता था। यहां बलबन जैसे सुल्तानों ने 6-6 माह के नृशंस कत्लेआम के दौर भी चलाए थे। किन्तु यहां के शासकों को न तो दबा सक,े न पराधीन ही कर सके।
इस क्षेत्र के अधिकतर शासक या तो कन्नौज नरेश जयचंद के वंशज थे या बाद में राठौर नरेश रामसहाय द्वारा चैहानों से अपनी पुत्री का विवाह कर विवाह के अवसर पर दान दिये ठिकानों का शासन करने नींवराना से यहां आये चैहान। सोरों से बदायूं के मध्य के भाग पर सोलंकी भी एक बड़ी शक्ति के रूप में थे। सभी की दृष्टि में वे इस भरतभू के स्वाभाविक शासक थे जब कि सुल्तान आदि आक्रान्ता। अतः अपनी स्वाधीनता को बरकरार रखने के लिए वे प्राणपण संघर्ष कर रहे थे।
इधर सुल्तनत के शासकों में गोरी विजय के बाद उसके गुलामों का दौर चल रहा था तथा वहां इस प्रकार का वातावरण था कि पिता पुत्र का शत्रु था, नौकर, मालिक का। परिणाम, शान्ति के लिए हिन्दू नरेशों को सुल्तानों की जरूरत थी तो स्थाइत्व के लिए सुल्तानों को हिन्दू नरेशों के सहयोग की।
अतः दोनों में कटुता कुछ घटी। और दोआब के नरेशों ने दिल्ली सुल्तनत की नाममात्र की अधीनता स्वीकारी। वहीं दिल्ली के सुल्तानों ने भी उस समय के कट्टरपंथी माहौल में उनकी सम्मान-रक्षा के यथासंभव प्रयास किये।
दिल्ली का सुल्तान फिरोजशाह तुगुलक के दरबार की परम्परा थी कि उसके सार्वजनिक दरबार के समय 10-12 शाही वंशजों व वरिष्ठ अधिकारियों के अतरिक्त किसी को भी बैठने की अनुमति नहीं होती थी। भले ही वह शाही परिवार का सदस्य हो या इक्तेदार अथवा कोई अधिकारी।
और तो और फिरोज के सुरक्षामंत्री, जिसका स्थान फिरोज के सिंहासन के बायीं ओर था, उसे भी सुल्तान के समक्ष बैठने की अनुमति नहीं थी। कारण, कानूनी दृष्टि से वह सुल्तान का दास था। ऐसे में जब सुल्तान फिरोज की दोआब के 3 हिन्दू शासकों ने जिन्हें सुल्तनतकालीन अभिलेखों में राय कहा गया है, तो उनके सम्मानार्थ सुल्तान ने उन्हें शाही दरबार के समय बैठने का विशेषाधिकार दिया। जानते हैं ये विशेषाधिकार क्या था? दरबार के समय कालीनरहित फर्श पर बैठने का विशेषाधिकार। कालीन रहित फर्श पर इसलिए कि आततायी विचारधारा के अनुसार हिन्दू जिम्मी अर्थात द्वितीय श्रेणी के नागरिक थे। अतः वे इस्लाम के अनुयाइयों के समकक्ष नहीं बैठ सकते थे।
(ऐसे ही विशेषाधिकार अकबर के समय तक मिला करते थे जिसमें निश्चित कर चुकानेवालों को आगरा के किनारी बाजार में हाथी पर बैठकर गुजरने का विशेषाधिकार शामिल था।)
सकीट की स्वाधीनता
इस विशेष सम्मान के बावजूद फिरोज के काल में सामान्य हिन्दू जनता व हिन्दू शासकों की स्थिति काफी अपमानजनक ही थी। अतः दिल्ली की सत्ता शिथिल होते ही 1377-78 में सकीट नरेश राय सुबीर, भोगांव के राय अधरन तथा इटावा के मुकद्दमों ने स्वाधीनता की घोषणा/ सुल्तनत के विवरणों में विद्रोह कर दिया। सुल्तनत की सेनाओं से इनका भीषण युद्ध हुआ जिसमें इन्हें पराजित हो समर्पण करना पड़ा। इन्हें इनके परिवार के साथ दिल्ली ले जाया गया तथा इस क्षेत्र की व्यवस्था का दायित्व ताजुद्दीन तुर्क के पुत्र मूलिकजादा फीरोज और मलिेक बली अफगान केो सोंपा गया।
उपरोक्त विवरण विश्वसनीय प्रतीत नहीं होते। कारण, मुहम्मदशाह के समय वीरसिंह, राय सुबीर, अधरन, जीतसिंह राठौर, भोगांव के मुकद्दम वीरभान तथा चंदवार के मुकद्दम अभयचंद्र को पुनः स्वाधीन/ विद्रोही होते देखते हैं। अनुश्रुतियों तथा इन राजवंशों के विवरण तो यही आभास कराते हैं कि इस काल में भी सकीट के तत्कालीन शासक राय सुबीर अपनी पूर्ण स्वाधीनता का उपयोग करते रहे थे।
हां, यह अवश्य हुआ कि इन तीनों की संयुक्त सेना के बिलराम केसमीप हुए युद्ध में पराजित होने पर बिलराम सहित अपने अधिकार के कुछ भाग छोड़ने को अवश्य विवश होना पड़ा। फिरोज इनके बिलराम में रहनेवाले परिवारों को ही बंधक बना अपने साथ दिल्ली ले जा सका था। और इसी कारणवश परिवार की सुरक्षा के लिए राय सुबीर को खराज देकर अधीनता स्वीकारने को विवश होना पड़ा।
बिलराम के पश्चात 1379ई0 में तुगुलक ने जलेसर पर अचानक हमला कर तथा उसे अपने अधिकार में लेकर हिन्दू नरेशों को भारी क्षति पहुंचाई। जलेसर इस काल में चंदवार के मुकद्दम अभयचंद के शासन में था। 13 सितम्बर 1388 में इस धर्मान्ध सुल्तान की मौत हो गयी।
कुछ इतिहासकार राय सुबीर को इटावा का शासक मानते हैं। इनके अनुसार राजा सुमेरसिंह ही सुल्तनत के विवरणों में उल्लिखित राय सुबीर हैं। परन्तु इन्हीं विवरणों में ‘राय सुबीर, राय अधरन और इटावा के मुकद्दमों’ को पृथक-पृथक उल्लिखित किये जाने से स्पष्ट है कि इटावा के मुकद्दम राजा सुम्मेरसिंह भी विद्रोही तो थे किन्तु राय सुबीर और राजा सुम्मेरसिंह दो भिन्न-भिन्न व्यक्ति थे।
‘चंदवार तथा फिरोजाबाद का इतिहास’ पुस्तक के लेखक रतनलाल बंसल इस काल में चंदवार के राजा के रूप में अभयचंद की ही पुष्टि करते हैं। किन्तु अभयचंद को सुल्तनतकालीन इतिहासकारों ने चंदवार के मुकद्दम के रूप में ही लिखा है। दरअसल ये मुस्लिम इतिहासकार कोई स्वतंत्र इतिहास लेखक न होकर अपने सुल्तान के मुंहलगे तथा उन्हीं पर आश्रित होने के कारण एवं अपनी धर्मान्ध मानसिंकता के चलते अपने सुल्तान के अनावश्यक महिमामंडन को विवश थे। जिसके चलते वे अपने सुल्तान को सर्वशक्तिमान, जबकि हिन्दू शासकों को अधीनस्थ, मामूली और अराजक शासक की भांति चित्रित करते थे।
मुस्लिम इतिहासकारों ने राय संबोधन उन्हीं हिन्दू रायों के लिए दिया है जो इस काल में स्वाधीन शासक थे। जैसे- सम्राट पृथ्वीराज चैहान के लिए राय पिदौरा संबोधन। अतः इस बात की संभावनाएं तो नगण्य ही हैं कि एक व्यक्ति राय भी हो और सुल्तनत के अधीन मुकद्दम भी।
सुल्तान फिरोजशाह के जीवनकाल में ही अगस्त-सितम्बर 1387ई0 में उसका पुत्र मुहम्मद नसीरुद्दीन मुहम्मदशाह का खिताब धारण कर सिंहासनारूढ हो गया था। इससे फिरोजी दासों में विद्रोह फैल गया तथा नसीरुद्दीन करे सिरमूर की पहाडि़यों में भागना पड़ा। स्थिति शान्त होने पर फिरोज ने फतेहखां के पुत्र तुगुलक शाह को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इसे फिरोजशाह की मृत्यु के उपरान्त फिरोजी दासों ने ही 24 फरवरी 1389 को मार डाला।
फिरोजशाह का पौत्र अबूबकरशाह दिल्ली का नया सुल्तान बना। इधर मुहम्मदशाह भी 4 अप्रेल 1389 को दुबारा राज्याभिषेक करा दिल्ली की गद्दी पर अपना दावा करने लगा। वह कुछ काल तक दिल्ली पर कब्जा करने में भी सफल रहा किन्तु फिरोजी दासों ने उसे पुनः दिल्ली से भगा दिया।
जलेसर बना मुहम्मदशाह की राजधानी
इतिहासकार निजामी के अनुसार- तत्पश्चात (दिल्ली से पलायन करने के पश्चात) मुहम्मद गंगा तट पर स्थित जलेसर में स्थापित हुआ और लगभग 50 हजार तटस्थ सैनिक उसके पास एकत्रित हो गये। अगस्त 1389 में उसने पुनः दिल्ली की ओर कूच किया किन्तु फिर पराजित हुआ। अब यह स्पष्ट हो गया था कि फिरोजी दास निश्चित रूप से मुहम्मद के विरुद्ध थे।... और उसने उन विरोधी दासों के विरुद्ध कठोर कदम उठाए जो दिल्ली से बाहर थे।
तारीख-ए-मुबारकशाही (भाग4 प्र0 17) के अनुसार 19 रमजान 791हि0/ 11 सितम्बर 1389 को एक ही दिन मुल्तान, लाहौर, समाना, हिसार-फिरोजा व हांसी आदि स्थलों के फिरोजी दास सुल्तान मुहम्मद के आदेशानुसार अकारण राज्यपालों और नागरिकों द्वारा शहीद कर दिए गये।
इसी समय मुहम्मदशाह के द्वितीय पुत्र हुमायूं खां ने जनवरी 1390ई0 में दिल्ली पर आक्रमण किया किन्तु वांछित सफलता न मिली। दिल्ली ने अबूबकर को अपना सुल्तान मान लिया था परन्तु केन्द्रीय सत्ता के समर्थक क्षेत्रीय अधिकारी मुहम्मदशाह के साथ थे।
अबूबकर का जलेसर पर आक्रमण
मुहम्मदशाह के जलेसर में स्थापित होने तथा लगातार दिल्ली पर दबाव बनाने के कारण अंततः अबूबकर ने जलेसर पर ही आक्रमण कर दिया। इसके जबाव में मुहम्मदशाह ने दिल्ली पर ही आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया। परिणाम, अबूबकर को अपने प्रतिद्वन्द्वी से निपटने दिल्ली लौटना पड़ा। अब अबूबकर के साथी फिरोजी दास भी उससे असन्तुष्ट हो मुहम्मदशाह से मिल गये। फलतः अबूबकर को पलायन करना पड़ा। अब मुहम्मदशाह वास्तविक दिल्ली-सुल्तान बना।
क्षेत्र के हिन्दू शासकों के विरुद्ध षड्यंत्र
जलेसर में रहने के दौरान मुहम्मदशाह इस क्षेत्र के हिन्दू शासकों की शक्ति से भलीभांति परिचित हो चुका था। अतः इन्हें अपने ढुलमुल शासन के लिए कभी भी चुनौती बन सकनेवाला मान, वास्तविक रूप से दिल्ली की सत्ता संभालने के अगले ही वर्ष अर्थात 1390ई0 में मुहम्मदशाह दोआब के हिन्दू शासकों, अर्थात- राय वीरसिंह, राय सुबीर, राय अधरन, राय जीतसिंह राठौर, भोगांव के मुकद्दम वीरभान तथा चंदवार के मुकद्दम अभयचंद से युद्ध करना आ पहुंचा।
सुल्तान इटावा के लिए रबाना हुआ जहां नरसिंह उसकी सेवा में उपस्थित हुआ। उसे खिलत देकर विदा किया। 794हि0 में उपरोक्त सर्वधरण और वीरभान ने विद्रोह कर दिया। सुल्तान ने इस्लामखां को नरसिंह के विरूद्ध भेजा और स्वयं सर्वाधरण और अन्य काफिरों के विरुद्ध कूच किया। दुष्ट नरसिंह ने इस्लामखां की सेना का सामना किया परन्तु ईश्वर के अनुग्रह से वह हारकर भाग गया। विजेताओं ने पीछा किया और काफिरों को नर्क में भेजा। उन देशों को बर्बाद कर डाला। अंत में नरसिंह ने दया की भिक्षा मांगी और इस्लामशाह की सेवा में आया। इस्लाम खां उसे दिल्ली ले आया। सर्वाधरण ने बलारा (बिलराम-फरिश्ता) के कस्बे पर आक्रमण कर दिया परन्तु जब सुल्तान विया (काली) नदी के किनारे पहुंचा तो काफिर भागकर इटावा में घुस गये। 795हि0/ 1393ई0 में सर्वाधरण और जीतसिंह राठौर तथा भानुगांव (भोगांव) के मुकद्दम वीरभान तथा चण्डू (चंदवार) के मुकद्दम अभयचंद ने विद्रोह कर दिया।
तारीख-ए-फिरोजशाही भाग 4 प्र0 20-21 के ये विवरण यूं तो अपनी कहानी बताने में स्वयं सक्षम हैं किन्तु फिर भी स्पष्ट कर दें कि आक्रमणकारी प्रतिवर्ष अलीगढ़ जिले के जरतोली से लेकर इटावा व ग्वालियर तक के इन हिन्दू शासकों की संगठित शक्ति से सर टकराते थे, हारते थे तथा आक्रमण के समय की गयी लूट की सम्पत्ति को दिल्ली ले जा अपने खराज बसूल करने के शौर्य का प्रदर्शन करते थे। इस काल के इतिहास में इससे पूर्व तथा इसके पश्चात अनेक ऐसे उल्लेख आएंगे जिसमें राजा प्रतिवर्ष विद्रोही बताया जाएगा। उसके विरुद्ध सुल्तान या उसके गुर्गे का अभियान होगा। राजा भयभीत हो समर्पण करेगा। खराज देगा। और अगले ही वर्ष फिर विद्रोही हो जाएगा।
लगातार 2 वर्षों के प्रयास के बाद भी मुहम्मदशाह जब इन स्वाधीन हिन्दू नरेशों की सामूहिक शक्ति से पार न पा सका तो उसने एक षड्यंत्र को जन्म दिया। उसने षड्नंत्र का तानाबाना बुन 1392-93ई0 में मुर्करव-उल-मुल्क को इनका दमन करने भेजा। इसने इन नरेशों के दृढ निश्चय तथा संगठित शक्ति को देख अपने इसी षड्यंत्र के चलते आरम्भिक युद्ध के बाद इन सभी शासकों को समझौता वार्ता के नाम पर कन्नौज बुलाया। यहां समझौते को आये खोर के राजा उद्धरणदेव, जीतसिंह राठौर, वीरभान आदि इन स्वाधीन शासकों को अकस्मात बंदी बनाकर मार डाला गया। इस षड्यंत्र से राय सुबीर (तारीख-ए-मुबारकशाही के अनुसार सर्वाधरण) ही किसी प्रकार बच निकलने में सफल रहे।
जलेसर में मुहम्मदशाह की मृत्यु
कहते हैं कि दिल्ली का सुल्तान होते हुए भी मुहम्मदशाह को जलेसर अतिप्रिय था। उसने यहां अपने नाम से एक दुर्ग भी बनवाया था और उसका नाम मुहम्मदाबाद रखा था। 1393 में सुल्तान एक घातक बीमारी से ग्रस्त हो गया तथा अपने अंत समय में अपने प्रिय नगर जलेसर आ गया। यहां 20 जनवरी 1394 (मुबारकशाही के अनुसार 17 रबीउलअब्बल अर्थात 15 जनवरी 1394) को उसकी मृत्यु हो गयी। इसे जलेसर में ही दफना दिया गया।
मुहम्मदशाह के बाद 2-3 माह के लिए अलाउद्दीन सिकन्दरशाह तत्पश्चात नसीरुद्दीन महमूद दिल्ली का सुल्तान बना। इस काल में दिल्ली सुल्तनत का हाल इतना बुरा था कि कोई भी इस पद पर अभिषिक्त होना ही नहीं चाहता था। नसीरुद्दीन को भी काफी जद्दोजहद के बाद 23मार्च 1394ई0 को सुल्तान बनने को राजी किया जा सका था। इसने भी 796हि0 में इटावा, कोल, कनील और कन्नौज के आसपास के कथित बलवाइयों को दण्डित करने के प्रयास किये। इसी के काल में बजीर ख्वाजा-ए-जहां को सुल्तान शर्क की उपाधि देकर कन्नौज से बिहार तक शासन करने का अधिकार दिया गया। यही आगे चलकर जौनपुर के शर्की साम्राज्य के नाम से जाना गया।
1395ई0 में सआदतखां ने फिरोजाबाद पर कब्जा कर नसीरूद्दीन नुसरतशाह को सुल्तान बना एक बार फिर दिलली की सत्ता के दो दावेदार बना दिए। इनमें संघर्ष चल ही रहा था कि भारत पर तैमूर का आक्रमण हुआ। तैमूर के भय से दिल्ली सुल्तान नुसरतशाह दोआब के किसी नगर (संभवतः जलेसर) में जाकर छिप गया। तैमूर के जाने के पश्चात इसने पुनः दिल्ली अधिकृत करने के प्रयास किये परन्तु इसे सफलता न मिली। अंततः इसे मेवाड़ पलायन ेकरना पड़ा जहां इसकी मृत्यु हो गयी।
पटियाली पर आक्रमण
जैसा कि स्वाभाविेक था, दिल्ली की दुर्दशा का अधिकाधिेक लाभ इन क्षेत्रीय शासकों ने उठाया। कन्नौज के षड्यंत्र से किसी प्रकार बच निकलने में सफल रहे राय सुबीर (या सर्वाधरण) ने दिल्ली की कमजोर सत्ता से बदली हुई परिस्थिति का लाभ उठाते हुए 1400 ई0 तक इटावा से पटियाली तक अपना स्पष्टतः तथा बिलराम से जरतोली तक आंशिक अधिकार स्थापित कर लिया।
दिल्ली की सत्ता के कुछ स्थिर होते ही महमूद शाह के सेनापति मल्लू इकबाल खां ने एक विशाल सेना लेकर पटियाली पर आक्रमण कर दिया। वह 803हि0/ दिसम्बर 1400 में काली नदी के तट पर होता हुआ पटियाली पहंुचा। उसके साथ बयाना का शम्शखां और नाहरखां के पुत्र मुबारकखां थे। यहां उसका रायसिन (राय सुबीर) और दूसरे काफिरों से मुकाबला हुआ जिनके साथ बहुत बड़ी सेना थी। अगले दिन लड़ाई हुई और मुस्लिम धर्म के रक्षक ईश्वर ने विजय इकबाल खां को प्रदान की। (विजय की सत्यता संदिग्ध- लेखक) काफिर भाग गये और उसने इटावा की सीमांत तक पीछा कर बहुतों को मार डाला और कितनों को ही बंदी बना लिया। (4/28)
राणा कतीरा द्वारा जलेसर विजय
इस काल में इटावा, भोगांव, पटियाली, चंदवार व ग्वालियर के हिन्दू राज्यों की स्वाधीनता के बीच जलेसर एक ऐसे कूबड़ की भांति बन गया था जहां से प्राप्त सहायता के बल पर सुल्तनत के अधिकारी इन स्वाधीन शासकों की गतिविधि में रोड़ा अटकाने में सफल रहते थे।
अनुश्रुतियां बताती हैं कि इस काल में जलेसर का गवर्नर सैयद इब्राहीम था। यह एक क्रूर व शातिर शासक था। साथ ही अपने को पीर प्रचारित कर इसने अपने इर्दगिर्द एक ऐसा शिष्यवर्ग बना लिया था जिनके बल पर वह इन हिन्दू शासकों के क्षेत्र से सभी सूचनाएं सहज ही पा लिया करता था। इसे समाप्त करने के लिए उदयपुर के राणा कतीरा ने प्रयास किये। उन्होंने एक बड़ी सेना के साथ जलेसर के विरूद्ध प्रयाण कर दिया। इब्राहीम ने ससैन्य राणा को रोकने के काफी प्रयास किये किन्तु राणा ने प्रबल सैन्य शक्ति व कौशल के चलते अंततः सैयद इब्राहीम व उसके खजांची पीर जारी को मार जलेसर पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।
1403ई0 में राणा ने यहां के पुराने जरासंध का किला नाम से विख्यात पुरावशेष पर एक नवीन व सुदृढ दुर्ग का निर्माण करा इसकी सुरक्षा व्यवस्था इतनी दृढ कर दी कि फिर कोई इसे छीन न सका। प्रतीत होता है कि राणा इसे चंदवार शासकों के संरक्षण में दे मेवाड़ वापस लौट गये।
(जलेसर में हिजरी संवत के शाबान मास के 19वीं से 26वीं तारीख तक लगनेवाला उर्स इसी इब्राहीम की स्मृति में लगता है। स्थानीय मिथक सैयद इब्राहीम को एक चमत्कारी व्यक्तित्व मानते हैं। उनके अनुसार जलेसर युद्ध में वध के समय इब्राहीम का सर तो जहां उर्स लगता है उस स्थल पर गिरा, जबकि धड़ बदायूं जिले के सहसवान नगर में जाकर गिरा। इस सर के गिरने पर हुए कई कथित चमत्कारों के कारण ही जलेसर का नामकरण जल्वा-ए-सर का अपभं्रश बतानेवाले इन कथित अनुयायियों के दुष्प्रचार के चलते अनेक अनजान लोग भी जलेसर स्थापना का कारण इसी इब्राहीम के सर का गिरना मानते हैं। वास्तव में जलेसर एक प्राचीन नगर है जिसके उल्लेख इसी पुस्तक में ही इससे पूर्व कई बार आ चुके हैं। इसका जलेसर नाम भगवान शंकर के प्राचीन जलेश्वर नाम का अपभं्रश है। अनुश्रुतियों के अनुसार द्वापर काल में यह मगध नरेश जरासंध के अधीन था तथा उन्होंने ही यहां किला निर्माण कर अपने जामाता कंस की सहायतार्थ सेना रखी थी। अनुश्रुतियां तो रुक्मिणी हरण का प्रसंग भी यहां से करीब 8 किमी दूर नोहखेड़ा नामक कस्बे का मानती हैं। हजरत इब्राहीम की दरगाह की देश की अन्य दरगाहों की भांति गुरुवार के स्थान पर शनिवार को लगनेवाली जात तथा इस अवसर पर वहां चढाया जानेवाला नारियल व कलावा भी इस दरगाह के इब्राहीम से संबध पर प्रश्नचिहन लगानेवाला है। अनेक विद्वान इसे शनिदेव का मंदिर तथा वर्तमान पूजा को इस्लाम का मुलम्मा चढी शनिदेव की पूजा बताते हैं।)
सैयद सुल्तानों का काल और जनपद
808हि0/ 1405ई0 में इस समय तक उपेक्षित से कन्नौज में पड़े हुए सुल्तान महमूद को पुनः दिल्ली का सुल्तान बनाया गया। मल्लू इकबाल खां कोयल (वर्तमान अलीगढ) का इक्तेदार बना। महमूद 1412 में खिज्रखां व जौनपुर के शर्की सुल्तानों की दो विरोधी शक्तियों से संघर्ष करते-करते मर गया। इसके बाद दौलत खां दिल्ली का सुल्तान बना जिस पर चढाई कर खिज्रखां ने 1414 में दिल्ली की सत्ता हस्तगत कर ली। 6 जून 1414ई0 को खिज्रखां ने शाहरुख नामक मुगल शासक के नाम से शासन संभाला। खिज्रखां पूर्व में भी तैमूर लंग द्वारा विजित क्षेत्र पर उसके प्रतिनिधि के रूप में शासन कर चुका था।
दिल्ली की सत्ता हस्तगत करते ही उसने सर्वप्रथम ताजुल्मुल्क के नेतृत्व में कटेहर (बदायूं-बरेली क्षेत्र का सुल्तनतकालीन नाम) के राय हरसिंह  के विरूद्ध सेना भेजी जिसने कटेहर पहुंच वहां के शासक राय हरसिंह को अनवाला की पहाडि़यों में भागने को विवश कर दिया। यहां बदायूं का अमीर मुहौब्बत खां उससे मिला। इस भेंट के उपरान्त ताजउल्मुल्क तो रहाब के रास्ते से गया और मुहौब्बत खां सर्गद्वारी (ये वही सर्गद्वारी है जहां सुल्तान मुहम्मदशाह ने ढाई साल बिताए थे) के उतार पर पहुंचा और वहां गंगा पार की। उसने खूर (आधुनिक शम्शाबाद, फरूखाबाद), कम्पिला (कम्पिल) के काफिरों को दण्ड दिया और सकीना (सकीट) के कस्बों में होकर बाघम (भोगांव) की ओर रबाना हुआ। रापरी का अमीर हसब खां और उसका भाई मलिक हमजा उसकी सेवा में उपस्थित हुए। ग्वालियर, सिहोरी और चंदवार माल और महसूल लेकर आये और अधीनता के साथ सर झुकाए। इसी काल में उसने चंदवार से एक बार फिर जलेसर छीन लिया। इसके बाद वह इटावा के हिन्दू सरदारों को दण्ड दे दिल्ली लौट गया।4/36।।
1416-17ई0 में खिज्रखां के आदेश पर ताजउल्मुल्क पुनः बयाना व ग्वालियर के विरूद्ध अभियान करने आया। यहां से वह पटियाली व कम्पिल की तरफ रबाना हुआ जहां से वह कटेहर की ओर चला गया।4/38।।
1418-19 में ताजुल्मुल्क तीसरी बार कटेहर के विरूद्ध फौज लेकर आया जहां वांछित सफलता न मिलने पर वह बदायूं की ओर बढ़ा और पटियाली के निकट गंगा पार कर पटियाली, भोजपुर होता हुआ वह इटावा की ओर बढ़ा। इटावा का राय दुर्ग में बंद हो बैठ गया किन्तु अंत में खराज देना स्वीकार किया।4/38।।
खिज्रखां स्वयं भी 1418ई0 में कटेहर पहंुचा। परन्तु कोई सफलता न मिली। 1420 में ताजुल्मुल्क चैथी बार इटावा आया। इसने सर्वप्रथम कोयल के विद्रोही सरदारों को दण्ड दिया फिर इटावा पहुंचकर राय सुबीर को घेर लिया जो इस समय इटावा के किले में थे। राय ने घुटने टेक दिये और खराज देना स्वीकार किया। तत्पश्चात वह चंदवार गया और उसे लूटा। कटेहर में उसने राय हरसिंह से खराज बसूल किया।4/39।।
1421ई0 में खिज्रखां फिर कोटला, मेवात, ग्वालियर विजित करता हुआ इटावा की ओर चला। इस समय तक राय सुबीर मर चुका था। उसके पुत्र ने निष्ठा प्रकट की और खराज दिया।4/40।। 13 जनवरी 1421 को ताजउल्मुल्क तथा 20 मई 1421 को खिज्रखां की मौत हुई।
आक्रमण-खराज बसूली- और अगली बार पुनः आक्रमण- फिर खराज बसूली और वापसी, न तो पूर्व सुल्तानों की भांति पराजित शासकों को बंदी बनाना न उनके प्राण या अधिकार छीनना। ग्वालियर से लेकर कटेहर, कोयल से लेकर इटावा तक का सम्पूर्ण क्षेत्र विद्रोही फिर भी दिल्ली सुल्तान इतना दयालू कि वह बार-बार सेना सहित आने के बावजूद खराज मिलते ही राजा पर इतना दयालू हो जाता है कि उसे बिना कोई दण्ड दिये, बिना अपदस्थ किये दिल्ली वापस लौट जाता है। पाठक स्वयं ही विश्वास करें कि वे इस कथित इतिहास पर कितना विश्वास करेंगे। हमारा मानना तो यही है कि सुल्तान उपाधिधारी खिज्रखां नामक यह सुल्तान अपने पूरे जीवनकाल में बयाना, ग्वालियर, पटियाली, कम्पिल, सकीट, भोगांव, इटावा, चंदवार, रापरी व कोयल आदि के इन स्वाधीन शासकों से जूझता अवश्य रहा, सफल एक बार भी नहीं हुआ। जनपद में खिज्रखां की एकमात्र विजय बस जलेसर पर पुनःअधिकार करने तक सीमित रही।
खिज्रखां ही नहीं उसके पुत्र मुबारक शाह का भी यही हाल रहा। वह 22 मई को सुल्तान बना तथा दिसम्बर-जनवरी 1422-23 में उसे कटेहर के विरूद्ध कूच करना पड़ा। दिल्ली सुल्तनत के विवरणों के अनुसार वह राठौरों के प्रदेश की ओर भी गया और विद्रोहियों और उपद्रवियों को दण्ड दिया। उसने गंगा के तट पर कुछ दिन विश्राम किया तथा मुबारिज जीरक खां और कमाल खां को राठौरों से निपटने हेतु कम्पिल छोड़ इटावा की ओर चला गया। 4/44।।
इटावा में राय सुबीर का पुत्र इस संकट का सामना न कर सका अतः पलायन कर गया। मलिक खैरुद्दीन ने ससैन्य उसका पीछा किया। राय का प्रदेश उजाड़ डाला परन्तु राय को पकड़ने में असफल रहा। सुल्तनतकालीन विवरणों के अनुसार- यह विद्राही सरदार दुर्ग में सुरक्षित हो बैठ गया। मुबारक भी इटावा पहुंचा और उसने राय को समर्पण करने के लिए वाध्य कर परम्परागत खराज देने का वचन लिया।
1424 ई0 में मुबारक पुनः कटेहर होता हुआ जनपद में आया। इस बार उसने कंपिल के पास गंगा पर की और इस क्षेत्र के विद्राहियों को दण्डित किया। 1426ई0 में वह फिर बयाना, सीकरी, ग्वालियर, थनकिर होता हुआ चंदवार पहुंचा जहां ‘चंदवार व आसपास के रायों से’ अधीनता स्वीकार करा कानूने कदीम (प्रचीन परम्परा) के अनुसार खराज भुगतान का वचन लिया।
उपरोक्त इतिहास के विवेचन से दो बातें संभव दिखती हैं। या तो सुल्तान ही इन अभियानों में असफल रहा है और ये विवरण उसके कृपाकांक्षियों की कोरी मक्खनबाजी हैं अथवा आसन्न विपत्ति से बचने के लिए स्थानीय शासक ही अब मात्र अधीनता स्वीकारने तथा खराज अदायगी का वचन देने का स्वांग कर सुल्तान को प्रसन्न करने का गुर सीख चुके हैं।
शर्की आक्रमण: मुबारक और जनपद
मुबारकशाह के समय में ही उसका एक अन्य प्रबलतम शत्रु उत्पन्न हो गया। यह था जौनपुर का शर्की सुल्तान इब्राहीम शर्की। दिल्ली की सत्ता के कमजोर क्षणों में यह भी महत्वाकांक्षी हो गया और भोगांव तक बढ आया। यहां से वह भोगांव को उजाड़ बदायूं की ओर बढने के लिए प्रयासरत था।4/47।। कालपी के शासक से सूचना पाकर मुबारक शाह ने शर्की गतिविधियों को रोकने के लिए नूहप तल पर यमुना पार की, छरटोली को लूटा और अतरौली की ओर बढा।
इस बीच शर्की का भाई मुख्तस खां भी एक विशाल सेना लेकर इटावा के निकट आ पहुंचा। मुबारक ने इसके विरूद्ध दस हजार की सेना भेजी किन्तु मुख्तस खां इब्राहीम शर्की से मिलने में सफल रहा। महमूद ने शर्की शिविर पर राज में आक्रमण के कई प्रयास किये किन्तु असफल रहा। इब्राहीम इस समय तक बुरहनाबाद तक पहंुच गया। मुबारक ने भी अपना पड़ाव बैनकोटा के कस्बे में डाला। परिणाम इब्राहीम को अपना मार्ग बदलना पड़ा और वह रापरी (शिकोहाबाद) की ओर मुड़ गया।
अंततः चंदवार में दोनों सेनाओं का टकराव हुआ जिसमें पराजित हो शर्की को वापस लौटना पड़ा। इटावा के विरूद्ध 1432 में भी मुबारकशाह क्षरा कमानुलमुल्क के नेतृत्व में सेनाएं भेजने के अस्पुष्ट विवरण मिलते हैं। 1434ई में सखरूलमुल्क ने एक षड्यन्त्र रच मुबारक खां की हत्या कर दी। मुबारक के सम्पूर्ण कार्यकाल पर इतिहासकार निजामी की यह टिप्पणी उल्लेखनीय है- उसने भरसक प्रयत्न किये परन्तु किसी ठोस वास्तविक उपलब्धि में असफल रहा।
मुबारक शाह के बाद मुहम्मदशाह 1434 से 1443 तक सुल्तान बना। इसने बयाना, अमरोहा, नारनौल, कोहरान और दोआब के कुछ परगने सिद्धिपाल, सधारन और उसके बन्धु बांधवों को दे दिये।4/60।। यह दूसरे अर्थ में इन कथित विद्रोहियों की सत्ता को औपचारिक स्वीकृति थी। सिद्धिपाल ने सरवर-उल-मुल्क के साथ मिलकर सुल्तान के वध का भी प्रयास किया किन्तु असफल रहा तथा अपने मकान में आग लगा अपने परिजनों सहित अपनी आहुति दे गया।4/62।। सुल्तान के अंतिम दिनों में उसकी सत्ता केवल दिल्ली के आसपास करीब 20 कोस के क्षेत्र में सीमित रह गयी। दिल्ली के 20 कोस दूर रहनेवाले अमीरों ने भी उसकी अधीनता त्याग दी और स्वाधीनता का दम भरने लगे।4/64।।
सुल्तान अलाउद्दीन के काल(1443-76) को सुल्तनत के गृहयुद्ध का काल कहना अधिक समीचीन होगा। इस काल में जनपद के सभी शासक स्वाधीन शासक की भांति कार्य करते रहे। अंततः बहलोल लोदी ने इस सुल्तान को अपदस्थ कर दिल्ली की सत्ता पर अधिकार कर लिया। पटियाली के शासक राय प्रताप इस काल में सुल्तान अलाउद्दीन के प्रमुख सलाहकार थे। बहलोल के दिल्ली आक्रमण करने के समय ‘सुल्तान अलाउद्दीन ने रापरी के शासक कुत्बखां व राय प्रताप से सलाह ली और बहलोल के सुझाव पर नियुक्त हमीद खां को पदच्युत कर बंदी बनाने की सलाह मान ली। उसकी इक्ताओं के 40 परगने अपनी खालसा भूमि में मिला लिये। हामिद खां के विरूद्ध विद्वेष से प्रेरित होकर- जिसके पिता ने उसका क्षेत्र लूटा था- राय प्रताप ने सुल्तान को हमीद खां के वध के लिए भी उकसाया’ किन्तु यह योजना क्रियान्वित न हो सकी और स्वयं सुल्तान अलाउद्दीन को ही दिल्ली से निर्वासित होना पड़ा।
लोदी सुल्तान के समय जनपद
19 अप्रेल 1451ई0 को सैयद वंश का पतन हुआ और बहलोल लोदी दिल्ली का नया सुल्तान बना। जैसा कि पूर्व विवरणों से स्पष्ट है राय प्रताप के इस काल में दिल्ली के पूर्व सुल्तान अलाउद्दीन के मित्र व प्रमुख सलाहकार होने के कारण बहलोल को सर्वाधिक शंका इन्हीं के रूख की रही।
बहलोल के समय जिले के मारहरा, बिलराम आदि परगनों सहित कोयल (अलीगढ) पर ईसाखां तुर्कबच्चा का, रापरी, चंदवार व इटावा पर हसनखां के पुत्र कुतुबखां का अधिकार था। सकीट भी स्वाधीन था किन्तु इसके शासक का नाम नहीं मिलता। अनुश्रुतियों के अनुसार संभावना है कि इस पर सकटसिंह द्वितीय/ शक्तिसिंह या संकटसिंह शासन कर रहे थे।
सुल्तान बनने के उपरान्त दिल्ली में अपनी स्थिति दुरूस्त कर बहलोल ने सरदारों को अपने अधीन करने तथा अधीनता न मानने पर दण्डित करने का निश्चय किया। वह मेवात के अहमदखां का समर्पण कराता हुआ संभल आया। यहां से कोयल की ओर बढ़ा। कोयल के राज्यपाल ईसाखां ने निष्ठा व्यक्त की परिणाम, उसे राज्यपाल बना रहने दिया गया।
इस समय बहलोल की प्रमुख चिंता प्रान्तीय और स्थानीय प्रशासकों पर पूर्ण नियंत्रण पाने की थी। ताकि उसकी शक्ति का आधार इकाइयों को सुरक्षित किया जा सके। किन्तु जैसे ही इन राज्यपालों ने उसकी अधीनता स्वीकारी बहलोल ने उनके स्वामित्व को स्थाई करने में हिचक नहीं दिखाई।
बहलोल ने जनपदीय क्षेत्र हिन्दू शासकों को सोंपे
उसने अपना ध्यान सकेत (सकीट), कम्पिल, पटियाली, भोगांव, रापरी और इटावा की ओर मोड़ा। रापरी के कुत्बखां के अतरिक्त सभी सरदारों ने उसकी सत्ता स्वीकार कर ली किन्तु अल्प विरोध के पश्चात कुत्बखां ने भी अधीनता स्वीकार कर ली। बहलोल ने उन्हें उनके क्षेत्रों में स्थाई कर दिया। इसी समय हमीदखां के पिता फतेहखां ने राय प्रताप का राज्य हड़पने के लिए आक्रमण कर दिया। राय प्रताप ने इसका समुचित उत्तर दे उनका प्रयास विफल कर दिया।
इसके उपरान्त बहलोल को जोनपुर के शर्की शासकों से संघर्षरत होना पड़ा। यह संघर्ष 1452ई0 तक बिना किसी निर्णय के चलता रहा। अंत में राय प्रताप और कुत्ब खां ने सुल्तान महमूद शर्की से एक संधि की। इस संधि के अनुसार मुबारक शाह का प्रदेश बहलोल के अधिकार के क्षेत्र माने गये जबकि इब्राहीम शर्की के सभी प्रदेश महमूद शर्की के स्वामित्ववाले माने गये।
शम्शाबाद के लिए फिर छिड़ा संघर्ष
इस संधि के अनुसार शम्शाबाद सुल्तान बहलोल के एक अधीनस्थ अधिकारी को सोंपना था। शम्शाबाद में इस समय शर्कियों की ओर से जौनाखां शासन कर रहा था। इसने बहलोल के प्रतिनिधि (राजा का रामपुर के शासक) राय करन को दुर्ग सोंपने से इंकार कर दिया। फलस्वरूप बहलोल ने शम्शाबाद पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण में जौना खां पराजित हुआ। उसक खदेड़ दिया गया तथा रायकरन को वहां का अधिकारी बना दिया। इस पर महमूद शर्की बहलोल का सामना करने आया। शम्शाबाद के निकट दोनों की सेनाओं का सामना हुआ। इसमें कुत्ब खां को शर्कियों ने बंदी बना लिया तथा अंततः वे राय करन को शम्शाबाद से भागाने में भी सफल रहे। शर्की सुल्तान महमूद की मृत्यु के बाद उसका पुत्र मुहम्मदशाह नया शर्की सुल्तान बना।
राय प्रताप शर्कियों के साथ
अपनी राज्य सीमाओं के इतने निकट शर्की शक्तियों के जमाब ने राय प्रताप को सोचने को विवश कर दिया और वे सुल्तान बहलोल का साथ छोड़कर शर्की सुल्तान के सहयोगी बन गये। इस सम्मिलन के परिणामस्वरूप (राय प्रताप के राज्य को बिना कोई क्षति पहुंचाए) शर्की सुल्तान बरसरी (विद्वानों के अनुसार वर्तमान सिरसागंज, मैनपुरी) तक लौट गया।
रापरी के निकट(अन्य श्रोतों के अनुसार चंदवार के निकट) दोनों की सेनाएं एक बार फिर आमने-सामने आई। राय प्रताप, मुबारिज खां, और रापरी के राज्यपाल कुत्बखां के शर्कियों से मिल जाने से शर्कियों के साधन व शक्ति काफी बढ गये परन्तु शर्की राजकुमार जलालखां के गलती से लोदी कैंप में चले जाने से स्थिति बहलोल के पक्ष में हो गयी। उसने जलालखां को कैद कर लिया। अततः दोनों शक्तियों में पुनः एक समझौता हुआ जिसमें शम्शाबाद इस बार शर्कियों का माना गया। शर्की दबाव समाप्त होते ही राय प्रताप एक बार फिर बहलोल से मिल गये।
शम्शाबाद के लिए फिर संघर्ष
बहलोल शम्शाबाद की हानि सहन न कर सका अतः उसने एक बार फिर शम्शाबाद पर हमला कर उसे राय करन को सोंप दिया। इसके अतरिक्त उसने राय प्रताप के पुत्र राय वीरसिंह देव को दरियाखां से छीने पताका व नगाड़े (ये इस काल में शाही सम्मान के चिहन माने जाते थे) प्रदान किये। दरियाखां ने इसे अपना अपमान समझा और वह विद्रोही बन गया। उसने एक अचानक किये हमले में राय प्रताप के पुत्र राय वीरसिंह का वध करवा डाला। बहलोल स्थिति अनियंत्रित देख दिल्ली लौट गया।
1468-69 ई0 में बहलोल को मुल्तान में व्यस्त होना पड़ा। इस अवसर का लाभ उठाने के लिए शर्की सुल्तान ने दिल्ली पर अधिकार करने की योजना बना डाली। बहलोल मार्ग में सुल्तान हुसैनशाह के दिल्ली प्रस्थान का समाचार सुन दिल्ली लौट आया तथा चंदवार पहंुच शर्कियों की बढती सेना को रोका। सात दिन के युद्ध के बाद दोनों पक्षों में एक बार फिर तीन वर्ष का युद्ध विराम हुआ और दोनों अपने-अपने क्षेत्रों को लौठ गये।
समझौते की समाप्ति पर शर्की सुल्तान ने दिल्ली के विरूद्ध कूच कर दिया। बहलोल ने भरवारा में उसका सामना किया किन्तु बहलोल युद्ध करने की स्थिति में नहीं था अतः खानेजहां की मध्यस्थता से जौनपुर के अधीन दिल्ली नगर से अठारह करोह (करीब 36 मील) क्षेत्र का स्वामी होने को सहमत हो गया। परन्तु शक्ति के नशे में चूर शर्की द्वारा जब इस प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया गया तो बहलोल को विवश हो उससे युद्धरत होना पड़ा।
प्रतीत होता है कि बहलोल के प्रदेश सहित निकटवर्ती क्षेत्रों को लूटने के शर्की सुल्तान के अविवेकपूर्ण निर्णय के कारण इस युद्ध के तटस्थ स्थानीय शासक शर्की के विरोधी हो गये। इसी समय बहलोल ने शर्की शिविर पर अकस्मात आक्रमण कर उन्हें करारी शिकस्त दी। हुसैनशाह को मैदान छोड़कर भागना पड़ा।
जनपद बना लोदी-शर्कियों के रण का स्थल
 हुसैनखां ने फरवरी-मार्च 1479 में पुनः दिल्ली के विरूद्ध कूच किया परन्तु कुत्बखां की मध्यस्थता में हुए एक समझौते, जिसके अंतर्गत गंगा से पूर्व का क्षेत्र शर्की नियंत्रण में तथा पश्चिमी क्षेत्र बहलोल के नियंत्रण में रहें, का विश्वास कर हुसैन जौनपुर वापस लौट गया। इस समझौते के अनुसार जिले के पटियाली, सकीट आदि नगरों सहित गंगा के दक्षिण का सम्पूर्ण भाग पर शर्कियों का अधिकार होना था।
इस क्षति को सहन न कर पाने के कारण बहलोल अपने वचन से पीछे हट गया। उसने हुसैनशाह के दूर जाते ही शम्शाबाद, कम्पिल, पटियाली, कोयल, सकीट और जलाली पुनः दिल्ली सल्तनत में मिला लिये। इस समाचार को सुन हुसैन खां वापस लौटा और उसने रापरी के निकट दिल्ली की सेनाओं को ललकारा किन्तु पराजित हो बहलोल द्वारा अधिकृत परगनों को उसी के अधिकार में मान लेने के समझौते पर बाध्य हो दिल्ली लौट गया।
सौंहार का युद्ध
1479ई0 में बहलोल को पुनः शर्कियों से युद्ध करना पड़ा। इस युद्ध का कारण था शर्की सुल्तान हुसैन शाह शर्की का क्षेत्र के शम्शाबाद, कम्पिल, पटियाली, कोयल, सकीट व जलाली परगनों की हानि को न सह पाना। 1479ई0 में शर्की के पुनः दिल्ली की ओर कूच के समाचार मिलते ही बहलोल उसे रोकने के लिए चल पड़ा। उसने सोंहार (एटा से करीब 20 किमी दूर) के समीप शर्की की सेनाओं को रोका। इस युद्ध में शर्की सुल्तान की पराजय हुई। वह रापरी की ओर भागा किन्तु बहलोल ने उसका पीछा कर एक बार फिर युद्ध कर उसे करारी शिकस्त दी।
सकीट का युद्ध और बहलोल की मृत्यु
1488 में बहलोल ने हिसार-फिरोजा, ग्वालियर और इटावा की ओर प्रस्थान किया था। इस प्रयाण में उसने हुसैन शाह शर्की से इटावा छीने जाने के बाद उसे जिस चैहान सरदार सकटसिंह को सोंपा था उसे हटाकर राय दादू को इटावा का नया अधिकारी बना दिया।
स्वाभिमानी सकटसिंह इस अपमान से इतने आहत हुए कि उन्होंने दिल्ली की ओर लौटती बहलोल की सेनाओं को सकीट के मलगांव क्षेत्र में घेर लिया। अकस्मात हुए इस आक्रमण से सफल प्रतिरोध न करपाने से युद्ध में बहलोल बुरी तरह घायल हुआ तथा उसे मैदान छोड़कर भागना पड़ा। बहलोल की सेनाएं घायल बहालोल को साथ लिए भागकर मिलावली में पहुंचीं जहां 12 जुलाई 1489 को बहलोल की मृत्यु हो गयी।
सुल्तनतकालीन विवरण भी बहलोल की सकीट क्षेत्र में मृत्यु होना तो स्वीकारते हैं किन्तु वहां मृत्यु का कारण लू लगना बताया गया है।
रायप्रताप: जिनकी उपस्थिति ही जीत की गारण्टी थी
भारत में इस्लामी आक्रमण की दस्तक और उसके दिल्ली व आसपास के क्षेत्रों पर अधिकार ने देश के राजनीतिक भूगोल में बड़ा उलटफेर किया।
राजनीतिक उलट-पुलट के इस काल में जहां अनेक शताब्दियों से स्थापित राज्य नष्ट हुए वहीं अब भी अनेक ऐसे क्षेत्र थे जो शताब्दियों तक संघर्ष करते हुए अपनाअस्तित्व बचाए रखने में सफल रहे थे।
15वीं सदी का पटियाली राज्य ऐसा ही एक राज्य था जिसके नरेश न सिर्फ अपना अस्तित्व ही बचाए थे बल्कि दिल्ली की सुल्तनत में प्रभावी हस्तक्षेप करने की स्थिति में थे। सुल्तनत के विवरणों में दर्ज दोआब (गंगा-यमुना के मध्य का भाग) में स्थित इस राज्य में 3 दुर्ग तथा पटियाली, कम्पिल व भोगांव जैसे 3 उन्नत नगर थे। इस काल में यहां के नरेश थे महाराजा प्रताप सिंह (सुल्तनत के विवरणों के राय प्रताप)।
करीब 300 वर्ष से दिल्ली की सुल्तनत से चल रहे दीर्घकालीन व प्रायः स्थाई संघर्ष के इस काल में जय या पराजय जैसे शब्द तो बेमानी ही थे। घात-प्रतिघात के इसयुग में विजय जहां इन राज्यों को स्वतंत्र बनाती थी, वहीं पराजय मात्र खराज देने की विवशता लाती थी। न तो दिल्ली की सुल्तनत इन स्वाधीन राज्यों को स्थाई रूप से समाप्त करने में सक्षम थी, न ही ये छोटै-छोटे राज्य ही दिल्ली की आक्रामक शक्ति से सर्वथा स्वाधीन होने में समर्थ थे। अतः स्वाधीनता या पराधीनता के परिणाम दिल्ली सुल्तनत की कमजोरी या शक्ति पर आश्रित थे। शक्तिशाली दिल्ली सुल्तनत इन्हें अधीन कह खराज वसूलने की स्थिति में होती थीं जबकि कमजोरी इन्हें स्वाधीन कहलाने का अधिकार प्रदान करती थी।
1405ई0 में दोआब में जहां स्वतंत्र व अर्धस्वतंत्र भारतीय शासक थे वहीं सुल्तनत का हित अफगानों के हाथ में था। दौलतखां लोदी मियाने दोआब का फौजदार था तो हुसैन खां अफगान व इसका पुत्र कुत्बखां रापरी (फिरोजाबाद जिले में शिकोहाबाद के समीप) का शासक था। कोयल (बर्तमान अलीगढ) ईसाखां तुर्कबच्चा के हाथ में था, जबकि पटियाली, कम्पिल व भोगांव राय प्रताप के अधीन थे।
सय्यदवंश (1414-1451) के अंतिम सुल्तान अलाउद्दीन (1443-1476) के काल में राय प्रताप इतने प्रबल हो गये थे कि सुल्तान को भी उसके बुरे बक्त में सलाह दिया करते थे।
सय्यद वंश को अपदस्थ कर दिल्ली सुल्तान बने बहलोल लोदी के दिल्ली सुल्तनत हथियाने के पहले प्रयास के समय बहलोल के सहयोगी हमीदखां को बंदी बनाकर उसके 40 परगने सुल्तनत के खालसा में शामिल करने का सुझाव देनेवाले राय प्रताप ही थे।
दोआब इस काल में दिल्ली व जौनपुर के दो सत्ताकेन्द्रों के मध्य हो रही प्रतिस्पर्धा का केन्द्र बना हुआ था। जौनपुर का शर्की सुल्तान वर्तमान अलीगढ़ जिले अनेक भूभागों सहित इस दोआब का अधिकारी शासक माना जाता था, जबकि बहलोल उसके इस अधिकार को अस्वीकारता था।
परिणाम, 1451 में दिल्ली की सत्ता संभालने के बाद बहलोल ने इन कथित जौनपुर के अधिकारवाले क्षेत्रों को दिल्ली के अधीन करने के प्रयास किये। वह पहले मेवात गया जहां अहमद खां का समर्पण कराया। फिर वह कोयल आया जहां ईसाखां ने समर्पण कर उसके समक्ष अपनी निष्ठा व्यक्त की। यहां से वह सकीट, कम्पिल, पटियाली व रापरी होते हुए इटावा पहुंचा। रापरी के अल्प विरोध के अलावा शेष ने उसका सहज स्वागत किया। कारण, वे जानते थे कि दो बड़ी शक्तियों के मध्य चल रहे सत्ता-संघर्ष में बिना किसी का साथी बने अपना अस्तित्व बचाए रहना सहज न होगा।
इधर दिल्ली के पूर्व सुल्तान अलाउद्दीन का दामाद होने के कारण जौनपुर का शर्की सुल्तान बहलोल के सत्ता हस्तगत करने को ही अवैध मानता था। अतः उसने भी स्वयं दिल्ली सुल्तनत हथियाने के प्रयास शुरू कर दिये। दोनों में 1452 में हुई संधि में हालांकि बहलोल ने इब्राहीम शर्की को उसके प्रदेशों का अधिकारी तथा इब्राहीम ने बहलोल को मुबारक शाह के समय के प्रदेश का अधिकारी स्वीकार लिया था। किन्तु दोनों ही इससे संतुष्ट न थे।
इस संधि के अनुसार वर्तमान फरूखाबाद जिले का शम्शाबाद परगना बहलोल को मिलना था। बहलोल ने स्थानीय (तत्कालीन विल्सढ़ तथा बाद में राजा का रामपुर के राठौर राजवंश के पूर्व पुरूष तथा इस काल में आगरा के किलेदार) राठौर नरेश राजा कर्णसिंह (राय करन) को वहां का अधिकारी बना जब शमशाबाद भेजा तो शर्की अधिकारी जौना खां ने दुर्ग देने से इंकार कर दिया। इसकी सूचना जब बहलोल को मिली तो बहलोल ने स्वयं शम्शाबाद पहुंच जौना खां को खदेड़ दिया। बहलोल की इस कार्यवाही के विरोध में जौनपुर की सेनाएं भी शम्शाबाद पहुंच गयीं और यहीं दोनों में एक अनिर्णीत युद्ध भी हुआ। इस युद्ध के बाद दोनों में 1459 में फिर यथास्थिति की संधि हो गयी।
पर जौनपुर में शर्की सुल्तान महमूद की मृत्यु के बाद की परिस्थिति ने बहलोल को संधि तोड़ने को प्रेरित किया और वह पुनः इस क्षेत्र को हस्तगत करने को अग्रसर हो उठा।
बहलोल के आने की सूचना पर बहलोल से पहले पहुंची शर्की सेना ने शम्शाबाद से राय करन को मार भगया तथा जौनाखां को वहां पुनस्र्थापित कर दिया। साथ ही इस घटना से आतंकित हो अपने राज्य को आसन्न संकट से बचाने के लिए राय प्रताप भी जौनपुर के पक्षधर हो गये।
रापरी के समीप शर्की व बहलोल का युद्ध हुआ। शर्कियों की शक्ति रायप्रताप व कुत्बखां आदि के उनके पक्ष में शामिल हो जाने के कारण खासी बढ़ी हुई थी किन्तु जौनपुर की आंतरिक कलह ने उन्हें इसका कोई लाभ न होने दिया। इस बीच हुसैन शर्की का भाई जलालखां भूलवश बहलोल के कैम्प जा पहुंचा जहां उसे बंदी बना लिया गया तो दोनों में फिर संधि हो गयी।
यथास्थिति के लिए हुई इस संधि का तब कोई मूल्य न रहा जब बदली परिस्थिति में पटियाली नरेश राय प्रताप ने पुनः बहलोल का पक्ष ग्रहण कर लिया। इससे उत्साहित बहलोल ने एक बार पुनः शम्शाबाद को हस्तगत कर उसे राय करन को सोंप दिया।
राय प्रताप इस क्षेत्र की प्रमुख शक्ति थे। अतः उन्हें संतुष्ट व सम्मानित करने के लिए बहलोल ने दरियाखां से छीने पताका व नगाड़े राय प्रताप को प्रदान कर सम्मानित किया। यह दरियाखां को इतना अपमानजनक लगा कि उसने षड्यंत्र कर राय प्रताप के पुत्र राय बीरसिंह देव का वध करा दिया। स्थिति नियंत्रण से बाहर देख बहलोल जब बिना हस्तक्षेप किये दिल्ली लौट गया तो आहत राय प्रताप एक बार फिर रापरी के कुत्बखां के साथ जौनपुर से मिल गये।
राय प्रताप के अपने खेमे में आ जाने से उत्साहित शर्की ने इस बार अपनी ओर से पहल की और इस पहल के परिणामस्वरूप दोनों के बीच हुए 7 दिन के रक्तपातपूर्ण अनिर्णायक युद्ध के बाद एक बार फिर दोनों में 3 वर्षीय युद्ध विराम हो गया।
युद्ध विराम के 3 वर्षों में इटावा के अहमदखां मेवाती, कोयल के रूस्तमखां तथा बयाना के अहमदखां जलवानी के शर्की खेमे में आ जाने से शर्की शक्ति इतनी बढ़ गयी कि दोनों भरवारा के समीप फिर युद्ध के लिए आ पहुंचे। यहां लोदी इतना विवश था कि दिल्ली नगर और आसपास के अठारह करोह घेरे का भीतरी प्रदेश पा शर्की की अधीनता स्वीकारने को भी तैयार था। किन्तु शर्की के इंकार तथा उसकी अविवेकपूर्ण कार्यवाहियों ने बहलोल को दुस्साहस पर विवश कर दिया। और परिणाम बहलोल शर्की सेनाओं को हराकर शर्की हरम पर भी अधिकार करने में सफल हो गया। हुसैन को मैदान छोड़कर भागना पड़ा।
अब शमशाबाद,कम्पिल, पटियाली, कोयल, सकीट व जलाली दिल्ली सुल्तनत में शामिल मान लिये गये। शर्की ने 1479 में एक बार पुनः इन क्षेत्रों को हस्तगत करने का प्रयास किया किन्तु सोंहार के निकट हुए युद्ध की पराजय ने उसे क्षीण कर दिया।
सुल्तान सिकन्दर लोदी
सिकन्दर का सुल्तान के रूप में चयन
सुल्तान बहलोल लोदी की मृत्यु की सूचना मिलने पर सुल्तान के साथ मौजूद दिल्ली, बरन, बरज व संभल आदि के अधिकारियों के अलावा रापरी, कम्पिल, पटियाली जैसे नगरों के शासक, राय करन, रायप्रताप, उनके पुत्र राय बीरसिंह, राय त्रिलोकचंद और राय धांधर या धांधू जैसे सुल्तान के विश्वासपात्र सरदार मिलावली में एकत्र हुए।
‘बहलोल की मृत्यु के तुरन्त पश्चात सकती अर्थात सकीट से 15 मील उत्तर एक गांव (संभवतः मिलावली ही) में उसके उत्तराधिकारी के विषय में विचार-विमर्श करने के लिए सभी सरदार एकत्र हुए। कई छिटपुट घटनाओं के उपरान्त बहुमत अंततः आजमखां के पक्ष में होने के कारण उसे विधिवत सुल्तान घोषित किया गया। जो सिकन्दर के नाम से नया सुल्तान बना।’
इस मध्य बहलोल का शव दिल्ली की ओर भेजा जा चुका था। नया सुल्तान सिकन्दर लोदी जलाली, अलीगढ में बहलोल की शवयात्रा में सम्मिलित हुआ और जनाजा दिल्ली भेजकर 16 जुलाई 1489 में सिंहासनारूढ़ हुआ।
कालीनदी के तट पर एक टीले पर जो किसी समय फिरोजशाह तुगुलक के शिकार खेलने का स्थान (संभवतः धुमरी के समीप स्थित कटिंगरा) और कुश्के फिरोज के नाम से प्रसिद्ध था में यह राज्याभिषेक सम्पन्न हुआ।
पटियाली पर हमला
सुल्तान के रूप में अभिषेक करा सिकन्दर पहले रापरी गया जहां आलमखां लोदी सिकन्दर के भाई तथा सुल्तान पद के दूसरे प्रत्याशी रहे आजम हुमायूं से जा मिला था। उसने रापरी और चंदवार दुर्ग घेर लिये। आलमखां पटियाली भाग गया और ईसाखां लोदी का आश्रय लिया। रापरी घेरे का सामना नहीं कर सका और उसे समर्पण करना पड़ा। इसे खानेखाना को सोंपा गया। तत्पश्चात सुल्तान इटावा की ओर चला जहां उसे अधिकार करने में कई महीने लगे। बदली हुई परिस्थिति में आलम खां ने भी समर्पण कर दिया और सिकन्दर ने उसे क्षमा कर एटा भी उसके अधिकार में रहने दिया।
इसके बाद सिकन्दर अपने दूसरे महत्वपूर्ण सरदार ईसाखां से निपटने गया जो पटियाली में रहता था। सिकन्दर-ईसाखां के मध्य हुए भीषण युद्ध में ईसाखां पराजित हुआ और युद्ध में लगे घावों के चलते तुरन्त मर गया। सिकन्दर ने पटियाली बारबक का साथ छोड़कर सिकन्दर से आ मिले राय गणेश को पटियाली का नया अधिकारी नियुक्त किया।
जैथरा के विरुद्ध कूच
पटियाली के बाद सिकन्दर ने बारबक आदि को भी समर्पण करने के लिए बाध्य किया। फिर वह कालपी गया।
कालपी में अपनी स्थिति सुदृढ करने के उपरान्त सिकन्दर ने जथरा (एटा से करीब 35 किमी दूर जैथरा, अलीगंज) के राज्यपाल तातारखां लोदी के विरुद्ध कूच किया। तातारखां ने समर्पण कर दिया और सुल्तान ने उसके क्षेत्र पर उसके अधिकार की पुष्टि कर दी।
जलेसर, चंदवार, मारहरा व सकीट के बदले बयाना की मांग
तातारखां लोदी के समर्पण के पश्चात सुल्तान ने बयाना की ओर ध्यान दिया। यहां इस समय सुल्तान अशरफ का शासन था। यह एक स्वतंत्र जिलवानी सुल्तान था। सिकन्दर ने बयाना को दिल्ली साम्राज्य में मिलाना महत्वपूर्ण समझते हुए जिलवानी के समक्ष प्रस्ताव रखा कि यदि वह बयाना समर्पित कर दे तो वह जलेसर, चंदवार, मारहरा और सकीट के क्षेत्र उसे प्रदान कर देगा। -तारीख-ए-खानेजहां लोदी- नियामतुल्ला, प्र077 जिलवानी ने पहले तो प्रस्ताव स्वीकार कर लिया किन्तु जैसे ही उसे इन क्षेत्रों पर सुल्तान के अधिकार की वास्तविक स्थिति का भान हुआ, उसने अपनी सहमति वापस ले ली। 1491 में बयाना को जीत सिकन्दर ने दिल्ली सुल्तनत में मिला लिया।
बिलराम युद्ध
प्रतीत होता है कि राजा सकटसिंह से मलगांव में हुए युद्ध तथा इसमें हुई बहलोल की मृत्यु से आशंकित सिकन्दर इस क्षेत्र की संगठित हिन्दू शक्ति को समाप्त करने का निश्चय कर चुका था। साथ ही सिकन्दर के अनेक सरदार भी उससे असंतुष्ट थे।
अतः राय गणेश व तातारखां लोदी सहित राज्य के विभिन्न भागों के 22 असन्तुष्ट सरदारों ने सिकन्दर को सुल्तान पद से पदच्युत कर फतेहखां को सत्तारूढ करने की योजना बनाई। यह योजना आगे बढती इससे पूर्व स्वयं फतेहखां ने इसका भेद खोल दिया। फलतः योजना तो असफल हुई ही, योजना में शामिल असगरखां, सैयदखां सरवानी, दिल्ली का राज्यपाल, जैथरा के राज्यपाल तातारखां लोदी आदि सरदारों को षड्यन्त्र में शामिल होने के अभियोग में या तो मार डाला गया या निर्वासित कर दिया गया।
इस षड्यन्त्र के भागीदार पटियाली के राय गणेश को भी पदच्युत करने का प्रयास हुआ किन्तु उन्होंने शाही आदेश मानने से इंकार कर दिया। इस पर सिकन्दर ने अपने सेनापति राओ खां के नेतृत्व में पटियाली पर हमला करने के लिए सेना भेजी। राय गणेश ने जब बिलराम के समीप इस सेना से युद्ध कर राओ खां को परास्त कर मार डाला तो स्वयं सिकन्दर ने पटियाली के विरुद्ध कूच कर दिया।
राय गणेश द्वारा ग्वालियर में शरण
बिलराम के समीप हुए इस युद्ध में राय गणेश की पराजय हुई और उन्हें ग्वालियर में शरण लेने को बाध्य होना पड़ा। इससे सिकन्दर के ग्वालियर नरेश मानसिंह से भी सम्बन्ध बिगड़ गये। ग्वालियर के तोमर नामक ग्रंथ के लेखक हरिहरनिवास द्विवेदी के अनुसार ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर 1486-1519 की एक पटरानी को चैहानवंशीय मानते हैं। विवरण न होते हुए भी संभावना है कि ये राय गणेश की पुत्री अथवा कोई और सम्बन्धी हो सकती हैं। संभवतः इसकी कारण रायगणेश ग्वालियर की शरण पा सके।
मानसिंह ने 1501ई0 में सिकन्दर के पास मित्रता का हाथ बढ़ाने के लिए निहाल नामक एक हिजड़ा भेजा जो अपने कार्य में असफल रहा तथा स्थिति इतनी तनावपूर्ण हो गयी कि सिकन्दर को स्वयं ग्वालियर के विरुद्ध अभियान करना पड़ा। ग्वालियर के निकट असी नामक झील पर दोमाह सेनाएं डाल ग्वालियर का घिराव करने के कारण मानसिंह को अंततः संधि को विवश होना पड़ा। उसने 1503ई0 में सुल्तान को खुश करने के लिए सईदखां, बाबूखां व राय गणेश को राज्य से निकाल तथा अपने पुत्र विक्रमादित्य को बंधक रख सुल्तान सिकन्दर से संधि की।
इससे पूर्व 1500ई0 के आसपास सिकन्दर द्वारा इमाद और सुलेमान नामक अपने सरदारों को शम्शाबाद, जलेसर, मंगलोर व शाहाबाद परगने दिए, ऐसे विवरण भी सुल्तनतकाली अभिलेखों में मिलते हैं। सिकन्दर के आगरा को अपनी राजधानी बनाने के पीछे भी इन्हीं विद्रोहों का हाथ बताया जाता है। अन्य विवरणों के अनुसार 1505ई0 में जबकि नियामतुल्ला के अनुसार रमजान 906हि0/ 1501ई0 में सिकन्दर लोदी ने अपनी राजधानी दिल्ली से आगरा में स्थापित की। इसी के काल में 1511ई0 में सोरों में रामकथा के अमर गायक गोस्वामी तुलसीदास का जन्म हुआ।
तुलसी के जन्म के समय जमकर लुटी थी सोरों
16वी सदी में जन्में हिन्दी के अमर कवि व सुप्रसिद्ध संत गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी कृति ‘कवितावली’ में अपने जन्म के प्रसंग लिखते समय लिखा है- जाए कुल मंगन बधावने बजाए सुनि, भये परिताप पाप जननी-जनक कों।
विभिन्न विद्वानों ने इन पंक्तियों की अपनी-अपनी तरह से व्याख्या की है किन्तु तुलसी जन्म-विवाद तथा ऐतिहासिक तथ्यों की संगति के अभाव के कारण पंक्ति की व्याख्या पूज्यपाद की लेखनी के स्तर के आसपास भी नहीं ठहरती।
कई विद्वानों ने इस पंक्ति के आधार पर तुलसी का कुल ही ‘मंगन’ (अर्थात मांग कर खानेवाला) माना है तो कई इसे उनकी दरिद्रता से जोड़कर देखते हैं।
तुलसी जन्म की कथा में उनकी मां हुलसी की उनके जन्म के समय हुई मौत की अनुश्रुति के कारण अनेक इसे अपनी मां की स्मृति में कहा गया कथन मानते हैं। किन्तु इस व्याख्या में जननी-जनक के स्थान पर मात्र जननी की मृत्यु तथा ‘भये परिताप पाप’ की व्याख्या न मिलने के कारण यह अर्थ भी सार्थक प्रतीत नहीं होता।
किन्तु पूज्यपाद द्वारा विरचित इस पंक्ति की व्याख्या यदि तत्समय की ऐतिहासिक परिस्थितियों को दृष्टिगत रख किया जाय तो इन पंक्तियों का अर्थ काफी स्पष्ट हो जाता है।
तुलसी जन्म के विषय में देश भर में प्रचलित विभिन्न तिथियों में एक तिथि ऐसी भी है जिसे स्वयं को तुलसी का सम्बन्धी बतानेवाले कवि ने लिखा है। यह तिथि है कवि अविनाशराय ब्रहमभट्ट प्रणीत ‘तुलसी प्रकास’ की तिथि।
तुलसी प्रकास में तुलसी जन्मतिथि के विषय में निम्न दोहा दिया गया है-
         राम राम सागर मही सक सित सावन मास
         रवि तिथि भृगु दिन दुतिय पद नषत विसाषा वास।। 25।।
यह साहित्य में तत्समय प्रचलित गणना की विधि है। सौर गणना के अनुसार यह तिथि श्रावण शुक्ल सप्तमी शुक्रवार शक संवत 1433 (1568 विक्रमी) अर्थात 1511 ईसवी। इस तिथि पर अनुसंधान कर विद्वानों ने 01.08.1511ई0 तुलसी जन्म की तिथि मानी है तथा जन्मस्थल एटा (अब कासगंज) जिले का सूकरक्षेत्र उपाख्य सोरों।
ई0आर0 नीव्स द्वारा संपादित एटा गजेटियर (1911ई का संस्करण) के विवरण के अनुसार सोरों के सुप्रसिद्ध सीताराम मंदिर के अभिलेखों (मदिर स्तंभों पर यात्रियों द्वारा उत्कीर्ण विवरणों, जिनमें कनिघम द्वारा 48 पढ़े जा चुके हैं।) में सिकन्दर लोदी काल के विवरण नहीं मिलने से स्पष्ट है कि औरंगजेब द्वारा तोड़े जाने से पूर्व इसे सिकन्दर लोदी के द्वारा भी तोड़ा गया।
अलीगढ़ जिले के अतरौली के अपने सरदार राओखान के विद्रोह का शमन करने सिकन्दर लोदी के इस क्षेत्र में आने तथा इसी काल में सोरों के समीप विलराम के चैहानों से युद्ध के विवरणों का इतिहास साक्षी है।
सुल्तान सिकन्दर लोदी की धर्मान्धता के विषय में प्रायः सभी जानते हैं। अपने पिता बहलोल लोदी की सकीट के चैहानों के हाथों 1489 में हुई मौत के बाद सत्तारूढ़ हुए जलाल खां की बड़ी समस्या यह थी कि वह एक हिन्दू सुनार की पुत्री का पुत्र था। घोर इस्लामिक मतान्धता के युग में सुल्तान चयन समय भी सिकन्दर का यह पक्ष घोर विवाद का कारण बन चुका था। हालांकि तत्समय परिस्थितिवश उसे सुल्तान चुन लिया गया था, किन्तु अपने को किसी कट्टर मुसलमान से अधिक कट्टर प्रदर्शित करना उसकी विवशता भी थी, स्वभाव भी।
अतः स्वयं को कट्टर मुसलमान प्रदर्शित करने के लिए सिकन्दर लोदी ने हिन्दूओं पर असीम अत्याचार तो किये ही, उनके मंदिरों को नष्ट करते हुए उन पर इतने धार्मिक प्रतिबंध लगाए कि उस समय हिन्दुओं को अपने मुण्डन संस्कार के लिए नाई तक मिलने दूभर हो गये थे। (यह कल्पित विवरण नहीं, सुल्तनतकालीन इतिहासकारों द्वारा अपनी कृतियों में गर्वपूर्वक उल्लिखित सचाई है।)
ऐसे घोर प्रतिबंध के युग में जाए (जन्मे) रामबोला तुलसी के जन्म पर परंपरागत रूप से पुत्र जन्म पर बधाई बजानेवालों (कुल मंगन बधवने बजाए) सुनकर (सुनि) तुलसी के माता-पिता को ऐसा दुख हुआ कि मानो तुलसी का जन्म ही कोई पापपूर्ण कृत्य हो (भये परिताप पाप जननी जनक कों) बहुत ही स्वाभाविक था।
तुलसी के माता-पिता को यह दुख होने का तात्कालिक कारण भी था। इतिहास के अनुसार 1511ई0 में जिस समय तुलसी का जन्म हुआ हिन्दुओं के धार्मिक संस्कारों को प्रतिबंधित करनेवाला सुल्तान सिकन्दर समीप के विलराम में वहां के चैहान शासकों से युद्धरत था। ऐसे में सोरों के समीपवर्ती ताली ग्राम के सोलंकी नरेश (परिवर्ती काल में यह राजवंश भी विधर्मी हो स्वाधीनता तक मोहनपुर नबाव के नाम से जाना जाता था।) के कुलगुरु व कुलपुरोहित के दामाद द्वारा पुत्र जन्म के समय प्रतिबंधित धार्मिक कृत्यों का किया जाना इस क्षेत्र पर घोर संकट का सूचक था।
और यही हुआ भी। अनुश्रुतियां बताती हैं कि इसकी सूचना मिलते ही उत्तेजित सिकन्दर ने बिलराम विजय के बाद वहां के चैहानों को मुसलमान बनाने या वध करने के बाद सोरों प्रयाण किया और सोरों में नृशंस संहार कर राष्ट्रकूट नरेश लखनपाल द्वारा निर्मित सुप्रसिद्ध सीताराम मंदिर ध्वस्त कर दिया।(ताली राज के कुलपुरोहित या राजगुरु परिवार मांग के खानेवाला कुलमंगन कोटि का हो यह स्वयं ही विश्वसनीय तथ्य प्रतीत नहीं होता)।
स्थानीय अनुश्रुतियों के अनुसार अपने जन्म के समय ही अपनी मां हुलसी को गवांनेवाले तुलसी को सोरों के नरसंहार में जब अपने पिता आत्माराम को भी गंवाना पड़ा तो लोक में अमंगली माने गये तुलसी - जाति के सुजाति के कुजाति के पेटागिबस खाए टूक सबके विदित बात दूनी सौं वृत्ति अपनाने को विवश हुए।
21 नवम्बर 1517ई0 को सुल्तान सिकन्दर बयाना से दिल्ली लौटते समय मार्ग में मारहरा में रोहिणी रोग के कारण मर गया।
इब्राहीम लोदी का सकीट से युद्ध
सुल्तनत के 22 नवम्बर को नये सुल्तान बने सिकन्दर लोदी के पुत्र इब्राहीम लोदी को अपने पहले ही युद्ध में सकीट के सकटसिंह/ सामन्तसिंह से जूझना पड़ा। युद्ध में सामंन्त सिंह को पराजित होना पड़ा। इब्राहीम ने पराजित सामन्तसिंह से सकीट छीन इसे कोट मुसलमानों की बस्ती बसा उन्हीं को सोंप दिया। 6 जनवरी 1518 को वह भोगांव पहुंचा। जहां कन्नौज विजय की योजना बनी। यहां आजम हुमायूं सरवानी व उसका पुत्र फतेहखां जलालखां को छोड़ इब्राहीम से आ मिले जिनका इब्राहीम ने भी बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया।
इसी समय इब्राहीम को अतरौली/ जरतोली के शासकों के स्वाधीन होने की सूचना मिली। इन्होंने वहां के सुल्तनतकालीन अधिकारी उमरखां को मार डाला था। इब्राहीम द्वारा इनका बड़ी निर्ममता से संभल के राज्यपाल कासिम के सहयोग से दमन किया गया।
इब्राहीम के समय में ही मेवाड़ के सूर्य राणा संग्रामसिंह उर्फ राणासांगा के नेतृत्व में हिन्दू स्वाभिमान ने एक बार फिर अंगड़ाई ली तो जिले के हिन्दू शासक भी उनकी ओर आशा भरी नजरों से देखने लगे। इब्राहीम ने मेवाड़ पर आक्रमण कर राणा को दबाने का प्रयास किया किन्तु इब्राहीम को मुंह की खानी पड़ी।
स्थानीय अनुश्रुति के अनुसार इस अवसर पर राणा ने भी इब्राहीम को ‘जैसे को तैसा’ शैली में उत्तर दे, भागती सेना का पीछा कर इस जिले के प्रायः सभी भूभाग विजित कर स्थानीय हिन्दू अधिपतियों को सोंप दिया तथा इन राजाओं की रक्षार्थ सांगागढी नामक दुर्ग का निर्माण कर एक विशाल सेना उसमें छोड़ हिन्दू पदपादशाही का यह अनन्यतम योद्धा मेवाड़ वापस लौट गया।
मुगलवंश
अब इब्राहीम को एक नये आक्रन्ता बाबर से जूझना पड़ा। बाबर ने 1526 में इब्राहीम लोदी को पानीपत के ऐतिहासिक मैदान में हुए युद्ध में हराकर दिल्ली की सत्ता से लोदीवंश तथा भारत से सुल्तानवंश का अंत कर दिया तथा एक नये मुगलवंश की स्थापना की।
विजयी बाबर के सम्मुख कोल(अलीगढ) के शेख घुरन के समर्पण से कोल राज्य में सम्मिलित जनपदीय भूभाग, अर्थात- मारहरा व बिलराम और संभवतः जलेसर भी, बाबर के अधिकार में आ गया।
बाबर के आगरा पर भी अधिकार कर लेने से राणा सांगा द्वारा विजित कालपी, बयाना व धौलपुर सहित जनपद के शेष भूभागों पर भी संकट के बादल छा गये। फलतः राणा सांगा व बाबर में संघर्ष छिड़ गया।
छिटपुट प्रारम्भिक संघर्ष के उपरान्त 16 मार्च 1527ई0 में फतेहपुर सीकरी के समीप कानवाह/ खानवा के मैदान में लड़े गये निर्णायक युद्ध में दुर्भाग्यवश विजय के करीब पहुंचे राणा को अपने मुस्लिम सहयोगियों के विश्वासघात के चलते पराजित होना पड़ा। और इस पराजय से राणा का सम्पूर्ण विजित क्षेत्र बाबर के अधिकार में आ गया।
रिजोर की 5 हजार सेना भी लड़ी थी बाबर से
सोलहवीं सदी भारतीय इतिहास में दिल्ली सुल्तनत के अंत तथा मुगलवंश की स्थापना के रूप में जानी जाती है।
1526 में मुगलवंश का शासन स्थापित करनेवाले मुगल बादशाह का प्रमुख युद्ध मेवाड़ नरेश राणा सांगा (महाराणा संग्रामसिंह) से ही हुआ था।
फतेहपुर के समीप कानवाह या खानवा नामक स्थल  पर लड़े गये। इस युद्ध में एक ओर राणा सांगा के नेतृत्व में भारतीय सेना थी तो दूसरी ओर आधुनिक शस्त्रों व तोपखाने से सुसज्जित बाबरी सेना।
राणा सांगा की इस सेना में जहां उनके अधीनथ राजाओं व सरदारों का सेन्यल था तो इसमें ऐसे नरेशों की सेनाएं भी थीं जो एक विदेशी शक्ति के भारत में अधिकार का विरोध करने की भावना से स्वेच्छा से इस संघ में सम्मिलित हुए थे।
इन्हीं में एक थे तत्कालीन रिजोर नरेश के सेनानायक तथा चचेरे भाई राव मानकचंद। रिजोर नरेश ने इनके नेतृत्व में 5 हजार सेना का दल इस युद्ध में भाग लेने भेजा था।
आधुनिक टेक्नाॅलाजी व तोपों के समक्ष भारतीय शौर्य टिकता भी कि उसके सेनानायक राणा की आंख में लगा संघातिक वाण, युद्ध की विजय को पराजय में बदल गया। वाण के कारण राणा को युद्धक्षेत्र से हटाया जाना, राणा की पराजय का का कारण बन गया।
महाराणा के युद्धक्षेत्र से हटने के बाद जहां अन्य नरेशों की सेनाएं अपने-अपने राज्यों को वापस चली गयीं वहीं इस युद्ध में अपूर्व शौर्य का प्रदर्शन करनेवाले राव मानिकचंद को राणा ने वापस न आने दिया। राणा ने इन्हें कई युद्धों में अपने साथ रखा तथा मेवाड़ लौट इन्हें एक बड़ी जागीर दे वहीं स्थापित किया।
बाबरकालीन अभिलेखों के अनुसार 1527 में बाबर ने ख्वाजा इमामुद्दीन को मारहरा का आमिल (एक प्रकार का प्रमुख अधिकारी/ कलक्टर) बनाया। वहीं 1530ई0 में इस क्षेत्र को बिलग्राम क फरमूली सरदार शेख शाहमुहम्मद के अधीन हिसार प्रांत का भाग बना दिया।
हुमायूं की लूट
बाबर की 1530ई0 में मृत्यु के बाद उसका पुत्र हुमायूं बादशाह बना। इसे जल्द ही शेरशाह सूरी से संघर्ष करना पड़ा। शेरशाह ने कन्नौज के युद्ध में हुमायूं को हरा उसे अपदस्थ कर दिया तथा पलायन को विवश कर दिया।
पराजित हुमायूं जब भागता हुआ भोगांव क्षेत्र पहुंचा तो वहां सकीट, भोगांव व पटियाली के चैहानों की सामरिक शक्ति व किसानों के विरोध से जूझना पड़ा। उन्होंने इस पराजित सेना को पुनः पराजित कर उन्हें जमकर लूटा।
तज-किरात-उल-वाकियात, लेखक- जौहर के प्र0 118 के अनुसार हुमायूं जब रायप्रताप के क्षेत्र भोगांव पहुंचा तो ‘वहां के किसानों ने जो पराजित सेना को लूटने के आदी थे, उन्हें रास्ते में लूटा और एक ने वाण द्वारा मिर्जा यादगार को आहत कर दिया।
शेरशाह सूरी ने हुमायूं को तो परास्त कर दिया किन्तु सकीट के चैहानों ने बिना युद्ध उसे भी अपना शासक स्वीकार न किया। 1540ई0 में शेरशाह से हुए युद्ध में चैहानी शक्ति को पराजित होना पड़ा। यहां विजय के उपरान्त मसौद खां के पुत्र सौद खां ने  7 दिसम्बर 1540ई0 को एक मस्जिद का निर्माण कराया।
कहते हैं कि शेरशाह द्वारा प्रस्तावित शेरशाह सूरी मार्ग (इसे अतीत में सम्राट अशोक ने बनवाया था) को सकीट के चैहानों के भय से ही सकीट से करीब 4 मील दूरी से निकालना पड़ा। इस विजय के उपरान्त शेरशाह ने मारहरा के आमिल शेख ख्वाजा इमामुद्दीन के स्थान पर 1542ई0 में अपने दो पुत्रों को मारहरा का परगना चैधरी व कानूनगो बनाया। पदकपंद ीपेजवतपअकस तमंकमते इल रमउे ीण् हमदेम चण्98।
अकबर से संघर्ष
1556 से 1605 तक बादशाह रहे अकबर को भी जिले के इन शासकों से खासा जूझना पड़ा। उसका सकीट के चैहानों से तो भीषण संघर्ष हुआ ही। पटियाली व अवेसर के राजाओं से भी बड़ा संघर्ष हुआ। अकबर के काल में ही मारहरा को इमामुद्दीन के पौत्र फतेहखां व उम्रखां को मारहरा सोंपा। इन दोनों में आगे चलकर विवाद हो गया तो अकबर के दरबारी टोडरमल ने दोनों के लिए हरनीलगिरा व हरनीलमैद नाम से इस क्षेत्र को विभाजित कर दिया। कहते हैं कि डोटरमल की यह व्यवस्था ही आगे चलकर अकबर के शासन को उसके सम्पूर्ण क्षत्र में परगना आधारित चलाने का आधार बनी। विजयी होने पर अकबर ने सकीट मीर महमूद मुंशी की जागीर में दे दिया। मुंशी का कासिमअली नामक अफसर यहां का शिकदार था। तबकात-ए-अकबरी। निजामुद्दीन अहमद वक्शी। पंचमखंड प्र0 118।
जलेसर के परगने के बारे में तबकात-ए- अकबरी प्र0338 के विवरण इसे खालदी खां की जागीर में बताते हैं। अकबर ने शासन के 26वें वर्ष में (1581) में रबी की फसल के प्रारम्भ में इसे उससे लेकर शाह जमालुद्दीन हुसैन की जागीर में वेतन के रूप में दे दिया। परन्तु खल्दीखां द्वारा अवैध वसूली द्वारा अवैध वसूली करने पर मुजफ्फरखां ने उसे जेल में डाल दिया और चाबुकों से मारने का हुक्म दिया।
सकीट का अठगढ़ा
जहां मरते-मरते बचा था बादशाह अकबर
घटना 1562 ई0 की है तथा अकबरनामा में पूरे 4 पृष्ठों में उल्लिखित है।
1489 ई0 में दिल्ली के लोदी सुल्तान बहलोल लोदी को मार डालने के बाद सकीट राज्य पर संकट के बादल छा गये। पहले सिकन्दर लोदी, फिर इब्राहीम लोदी के काल में इनका संकट इतना बढ़ा कि इन्हें पलायन तक को विवश होना पड़ा। (इसक्षेत्र के अन्य राजवंशों के अस्तित्वहीन हो जाने के कारण उनके विवरण तो नहीं मिलते किन्तु स्वाधीनता तक इस क्षेत्र के शासक रहे रिजोर राजवंश के अभिलेख बताते हैं कि इस काल में वे भदावर नरेश के आश्रित थे।)
इब्राहीम लोदी पर बावर की विजय ने स्थिति बदली और अवसर का लाभ उठा इन्हें जब एक बार पुनः स्थापित होने का अवसर मिला तो इन्होंने अपने नवसृजित राज्य को इतना सशक्त बनाने का प्रयास किया कि कोई फिर इसे समाप्त न कर सके।
कतिपय अभिलेखों व अनुश्रुतियों के अनुसार इस व्यवस्था में सकीट को केन्द्र बना इसके चारों ओर लगभग 8-8 मील की दूरी पर पहले चारों दिशाओं में चार गढ़ों की स्थापना की गयी तथा इसके बाद पुनः 8-8 मील के अंतर से 4 गढ़ बनाए गये।
सकीट, सेनाकलां, इशारा, रिजोर व मलगांव इस व्यवस्था के मुख्य गढ़ थे तो बेैस खेरिया, पीपल खेरिया, चक गढिया, फफोतू, खुशालगढ़, रजकोट, रामगढ, सरदलगढ, बीगौर, गढियासीलम, महुआ खेड़ा, सलेमपुर खेरिया व बराखेड़ा आदि इस व्यवस्था के अन्य अवरोध थे। आठ मुख्य गढ़ों के कारण यह राज्य तत्समय ‘अठगढ़ा’ के नाम से विख्यात था।
अठगढ़ा के शासक बादशाह हुमायूं के काल तक तो यह इतने सशक्त हो गये कि शेरशाह सूरी से पराजित हो आगरा लौट रहे बादशाह हुमायूं को इन्होंने भोगांव-सकीट के मध्य बुरी तरह से लूट डाला।
हुमायूं की बादशाहत रहती तो अठगढ़ा के निवासी अवश्य दण्ड के भागी होते। किन्तु बादशाहत के नये शासक शेरशाह के शासन ने तो इनके इस कार्य को पुरस्कार योग्य ही माना और सूरी वंश ने अपने 1540-1562 तक के शासनकाल में इन्हें फलने-फूलने के अवसर ही उपलब्ध कराए।
अनुश्रुतियों की मानें तो इस मध्य दिल्ली के सम्राट बने हेमचंद्र विक्रमादित्य के शासन के तो ये प्रमुख आधार-स्तंभ थे तथा 1556 में उनकी अकबर से हुई लड़ाई में सम्राट के पक्ष से युद्धरत थे।
इस युद्ध में सम्राट हेमचंद्र विक्रमादितय (अकबरकालीन अभिलेखों के हेमू) की आंख में तीर लगने से हुई मौत से अकबर युद्ध का विजेता भले ही बन गया हो किन्तु ये विजेता की नहीं अप्रत्याशित व अचानक मिली विजय थी। परिणाम, पराजित होने के बाद भी इनमें न हौसला कम था न ही जूझने की क्षमता।
सारांश यह कि अकबर की आगरा बादशाहत के समय मुगलिया शासन की यह बड़ी बाधा थे।
‘अकबरनामा’ में इनके बारे में उल्लिखित उद्गार मुगल बादशाहत के इनके विषय में क्या विचार थे, इसका आइना दिखानेवाले हैं। यह प्रशस्तिवाचन आप भी पढ़ें-
‘‘सकीट के आसपास के मजरों के निवासीगण, जोकि आगरा से 30 कोस दूर है, अपनी एहसानफरामोशियों और बदमाशी का सानी नहीं रखते थे। अठगढा के नाम से जाने जानेवाले आठ गांव बदतमीजियों, लूटों, मानव वध, दुस्साहस और उत्पात के लिए प्रसिद्ध थे और बादशाह ने उनकी तरह के अन्य लो नहीं देखे थे। वह लोग रूखे(उजड्ड) और ऊबड़खाबड़ जगहों के कब्जेदार थे तथा सभ्य जीवन से दूर थे। स्थानीय अधिकारी लगातार उनकी उजड्डता की शिकायतें कर रहे थे।’’
शब्दों में अतिरंजना तथा एकपक्षीयता भले हो, सच यही था। आगरा पर अधिकार कर लेने के बाद बादशाह अकबर इस क्षेत्र सहित पूर्व सुल्तान के सभी क्षेत्रों का स्वयं को एकमात्र अधिकारी समझता था। वहीं वर्षों स्वाधीनता की छांव में जीवन बिता चुके ये रणबांकुरे किसी भी कीमत पर अपनी स्वाधीनता को अक्षुण्य बनाए रखने को तत्पर थे।
अकबर ने जब इस परगने के अपने अधिकारी ख्बाजा इब्राहीम बदख्शी से इस क्षेत्र में मुगलिया व्यवस्था लागू न कर पाने के विषय में बात की तो उसके उत्तर सुन उसने इन स्वातंत्रयवीरों का स्वयं इस क्षेत्र में आ दमन करने का निश्चय किया।
अकबर इस क्षेत्र में आ तो रहा था, किन्तु उसके भय का आकलन अकबरनामा के इस तथ्य से सहज ही किया जा सकता है कि वहे इस क्षेत्र के निवासीयों को खुल्लमखुल्ला युद्ध की चुनौती देने का साहस नहीं जुटा सका, अचेत अवस्था में अचानक मारने आया था।
योजना प्रकट न हो इसके लिए उसने शिकार का बहाना किया और इस क्षेत्र में आ धमका। अकबर के साथ उसके अनेक सरदार भी थे। अकबरनामा के विवरणों के अनुसार अकबर के इस अभियान में करताक शिकारी, दस्तमखां, मुकबिलख्ससन, बंदाअली, मुनीनखां काकुर्बेगी, सुल्तान अलीखरदार का बड़ा भाई, जुझारखां फौजदार, ख्वाजा ताहिर मुहम्मद, अलावल खां फौजदार, तातारखां तथा आमेर नरेश राजा भगवंतदास व राजा बदीचंद जैसे सरदार व सहयोगी अपनी-अपनी सेनाओं के साथ मौजूद थे।
अनुमान लगाया जा सकता है कि अठगढा की शक्ति तोड़ने के लिए शिकार के नाम पर की गयी यह कार्यवाही किस स्तर पर की गयी थी। इधर अकबर के इस अभियान की जानकारी मिल जाने तथा इसके प्रतिरोध के लिए अपनी तैयारियां करने के लिए अठगढावासियों ने भी तैयारियां कर लीं।
अकबरनामा के अनुसार-
अंत में शहंशाह शिकार के लिए उस गांव में गया। एक हप्पा नामक ब्राहमण शिकारियों के माध्यम से आया तथा बताया कि किस प्रकार उपद्रवियों ने उसके निर्दोष बच्चे की हत्या कर उसकी सम्पत्ति को लूटा।
बादशाह ने अगले दिन वहां जाकर दुष्कर्म करनेवालों को सुधारने को कहा।
सुबह होते ही बादशान ने शिकार से दूर आकर एक दल अठगढा की गतिविधि जानने भेजा। जब वह उनके पीछे गांव पहंुचा तो अग्रगामी दल ने बताया कि विद्रोहियों को शहंशाह का आना ज्ञात हो गया है और वह पलायन कर गये हैं।
इस पर अकबर ने पीछा करने के आदेश दिए। पीछे-पीछे बादशाह भी रवाना हुआ। रास्ते में करताक शिकारियों के मुखिया ने बताया कि उसने भागनेवालों का पीछा कर उनमें से एक को मार दिया है तथा दूसरे को घायल कर दिया है।
घोड़े पर सवार बादशाह तीव्र गति से डेढ़ दिन बीतने के पश्चात दूसरे गांव परोंख (जनपद मैनपुरी) पहुंचा। यहां उसे ज्ञात हुआ कि सभी विद्राही इस गांव में शरण लिए हैं।
बादशाह के गांव पहुंचने पर उसे बताया गया कि गांव में कोई नहीं है। पर बादशाह के अपने सूचना दल ने जब गांव में करीब 4000 लोगों के होने की सूचना दी तो अकबर ने गांव घिरवा लिया।
अकबरनामा के अनुसार इस समय बादशाह के पास करीब 1 हजार घुड़सवार व पैदल सैनिक थे। उसने 200 घुड़सवारों को शाही शिविर की देखभाल के लिए छोड़ शेष को विद्रोहियों की तलाश में लगाया। इसी समय 200 हाथियों सहित अन्य सरदार आ गये।
इसी समय तेज हवाएं चलने लगीं। अकबर का सम्मुख युद्ध के लिए साहस जबाव दे रहा था किन्तु भाग्य उसके साथ था। अकबरी सेना द्वारा रोशनी के लिए जलायी आग ने तेज हवाओं के बीच तीव्रता पकड़ ली और सारा गांव धू-धू कर जलने लगा। आग के बीच देखा गया कि विद्रोही सुरक्षित स्थान की तलाश में एक पेड़ के नीचे आसरा लिए हैं।
अकबरनामा का लेखक स्वयं की साक्षी दे आगे की कहानी इस प्रकार बताता है-
बादशाह सलामत ने अपने पवित्र होठों से मुझे यह कहानी इस प्रकार सुनाई। ‘जब गांव के निकट से हाथी जा रहा था तो मैंने एक पीला कपड़ा छत के ऊपर देखा। दस्तमखां के पास ऐसा कपड़ा था। मैंने समझा किउसी का है। मैंने पीलवान से हाथी को दत के पास ले जाने को कहा। इसी बीच लकडि़यों, पत्थरों और तीरों की बरसात होने लगी। .... जब मैं (बचता-बचाता) उसके पास पहुंचा तो मैंने देखा कि वह मुकबिल खान था। वह ऊपर चला गया था और एक व्यक्ति से कुश्ती कर रहा था तथा उसे छत से नीचे फेंकने की कोशिश कर रहा था। अनेक दुष्ट भावना के व्यक्ति उसे खत्म करने दोड़े तभी शहंशाह ने हाथी बढ़ा उन्हें छत पर खड़े होने को कहा।
बंदाअली, मुनीन खां का कुर्बेगी, और सुल्तान अली खां का बड़ा भाई बादशाह की सहायतार्थ छत पर दौड़े और उपद्रवी भाग गये।
इसी समय बादशाह का हाथी दिलशंकर के अगले पैर एक अनाज के गड्ढे में गिर गये। जुझार खां फौजदार जो बादशाह के पीछे था, दूसरे पर कूदा। बादशाह ने अपनी गैबी ताकत से हाथी को बाहर निकाला और उसे जहां विद्रोही छिपे थे, उस मकान की ओर ले गये।
बादशाह के साथ इस समय सिवाय राजा भगवंतसिंह, राजा बदीचंद के अन्य कोई न था।’
अब आमने-सामने की लड़ाई आरम्भ हुई। एक हिनदू ने तलवार खींच सीधा अकबर पर हमला कर दिया किन्तु बार अकबर को न लग उसके हाथी की जंजीर को जा लगा और हाथी ने इस वीर को अपने पांवों से कुचल डाला।
अपने पिता को हाथी के पांव से कुचला जाता देख एक 15 वर्षीय किशोर से न रहा गया और वह अकबर के हाथी पर कूद गया। जुझारखां ने उसे मारना चाहा किन्तु अकबर ने मना कर दिया।
इधर गांव में लगी आग के मध्य चारों ओर से अपने को घिरा पा अठगढा के वीरों ने एक भवन में मोर्चेबंदी कर ली।
अकबर आदि जब लक्षित भवन की ओर बढ़े तो हां पराजित फौजदार ख्वाजा ताहिर मुहम्मद मिले। अकबर ने भवन का द्वार तोड़ने के लिए अपना हाथी दरवाजे की ओर बढ़ा दिया।
बहुत ही घमासान युद्ध था। ऊपर से राजपूत वीर तीरों की वर्षा कर रहे थे। उनके तीर इतने प्रभावशाली थे कि उनमें से 7 तो अकबर की ढाल को ही बेध गये। इनमें भी 5 तो 5-5 अंगुल धंसे थे।
सिर से पांव तक शिरस्त्राण धारण किये अकबर अपने शिरस्त्राण व जिरहवख्तर में पहचाना नहीं जा रहा था। यहां तक कि उसी के फौजदार अलावलखां ने उसकी वीरता की प्रशंसा करते हुए उसे अकबर से ही पुरस्कृत कराने की बात कर डाली।
अकबर ने अलावलखां को चेहरा दिखाने के लिए अपना शिरस्त्राण हटाया तो वहां मौजूद तातारखां उसे देख टोकने लगा कि वह तीरों की बौछार में कहां जा रहा है। तातार खां द्वारा युद्धक्षेत्र में अकबर की पहचान बताये जाने पर जुझारखां ने उसकी लानत मानत भी की।
अंततः बादशाह अकबर के हाथी सहित 3-4 हाथियों ने उस भवन की दीवालें ध्वस्त करने में सफलता पायी। इस युद्ध में अधिसंख्य हिन्दूवीर मारे जा चुके थे। अकबरनामा के अनुसार करीब 1000 लोग इस भवन के आंतरिक भाग में मौजूद थे।
अकबरी सेना ने चारों ओर से इस भवन को घेर लिया तथा निर्लज्जतापूर्ण आचरण कर, उस स्थल की छत तोड़ वहां आग लगा दी।
और अकबर के इस नृशंस अग्निकांड में वे सभी 1000 स्वातंत्रयवीर जीवित ही अपनी स्वाधीनता के होम की हवि बन गये।
पटियाली का विद्रोह
अकबर के शासनकाल में ही पटियाली के विद्रोह के विवरण भी अकबर के अभिलेखों में दर्ज हैं। मुन्तखाब-उल-तवारीख अब्दुलकादिर बदायूनी प्र0408 के अनुसार अकबर ने इस विद्रोह के दमन के लिए कांत-गोला के शासक हुसैनखां मेहदी कासिम खां (हुसैनखां टुकडि़या) को आदेश दिया। यह 1573ई0 में बदायूं तथा पटियाली के विद्रोहियों के दमन के लिए इस क्षेत्र में आया तथा अत्यन्त भीषण युद्ध में इन शासकों का दमन किया।
मुगल बादशाह की राजधानी लूटता था अवेसर नरेश
राजा का नाम, राज्य के विवरण आदि के विषय में तो कुछ जानकारी नहीं मिलती किन्तु उसके दुस्साहसपूर्ण साहस ने उसे मुगलकालीन सशक्त बादशाह अकबर के अभिलेखों में अमर अवश्य कर दिया है।
मुन्तखाब-उल-तवारीख अब्दुलकादिर बदायूनी प्र0408 में इसे अवेसर क्षेत्र का नरेश तथा नौराही (वर्तमान न्यौराई) के जंगल में विचरण करनेवाला बताया गया है।
मुन्तखाब-उल-तवारीख ने इस राजा की प्रशस्ति में लिखा है कि इसने आगरा के आसपास बादशाह अकबर के राज्यारोहण के समय लूटमार करना शुरू किया था तथा (इस पुस्तक के लिखे जाने के समय तक) कर रहा था। और पक्का कजाक (डाकू) बन गया था।
उसने राजभक्त अमीरों के साथ कई लड़ाइयां लड़ी और कितने ही अच्छे-अच्छे आदमियों को मार डाला है।
निश्चय ही यह देशभक्त नरेश इस क्षेत्र में नयी-नयी स्थापित हो रही मुगल बादशाहत का विरोधी था तथा अपनी सीमित सैन्य शक्ति के बल पर यथाशक्ति उसके मार्ग में अवरोध उत्पन्न कर रहा था। ये कहां का राजा था? इस प्रश्न के उत्तर में 2 संभावनाएं नजर आती हैं। प्रथम संभावना आधुनिक अवागढ़ नगर का प्राचीन नाम अवेसर होने के विषय में है, तो द्वितीय समीपवर्ती फिरोजाबाद जिले के उड़ेसर के विषय में है जिसे संभवतः त्रुटिवश अवेसर लिखा गया है।
राजा की सैन्य शक्ति व युद्धों के विषय में मुन्तखाब बताती है कि इस दौरान उसने अनेक मुगल समर्थक अमीरों से लड़ाइयां लड़ीं और उनके अच्छे-अच्छे (अर्थात समर्थक व अनुयायी) लोगों को मार डाला।
इस राजा की सैन्य शक्ति भी कम न थी। उसकी सेना में अच्छे तीरंदाज थे तो आधुनिक बंदूकें भी थीं। अपने जंगलवास को ही युद्धक्षेत्र बनानेवाले इस नरेश ने पेड़ों में छेद कर निशाना लगाने के लिए स्थान बना रखे थे।
अकबर का एक मंसबदार हमीदखां टुकडि़या था जो अकबर की ओर से कांत-गोला जागीर (गोला गोकर्णनाथ का क्षेत्र) का प्रशासक बना रखा था। यह इतना कट्टर था कि एक बार गलती से किसी हिन्दू को सलाम करने के दण्डस्वरूप क्षेत्र के सभी हिन्दुओं को अपने कंधे पर एक पीला वस्त्र (टुकड़ा) रखने को विवश किया था ताकि वह पहचान सके कि सामनेवाला हिन्दू है। इसी कारण इसका उपनाम ही टुकडि़या पड़ गया था।
980 हिजरी में जब अकबर बादशाह से उसे बदायूं व पटियाली के विद्रोह (वास्तव में स्थानीय स्तर का स्वाधीनता संग्राम) के दमन के आदेश मिले। वह अभी इस क्षेत्र में पहुंचा ही था कि उसे आगरा राजधानी की रक्षा हेतु उपस्थित होने का फर्मान मिला।
हुसैन खां आगरा जाने के लिए पटियाली से चला तो उच्चाधिकारियों द्वारा उसे न्यौराई के जंगल से सावधानी से निकलने की चेतावनी दी गयी। इस पर जब हुसेन खां ने इसका कारण पूछा तो उसे इस राजा व इसकी गतिविधियों की जानकारी दी गयी।
इधर राजा को भी इस क्षेत्र से मुगल सेना के गुजरने की सूचना मिल चुकी थी अतः उसने भी इस सेना को यहीं समाप्त करने तथा सेना की रसद लूटने के उद्देश्य से अपनी तैयारियां कर लीं।
15 रमजान को आधी रात में जब मुगल सेना कूच कर रही थी, राजा ने उस पर बंदूकों तथा तीरों से हमला कर दिया। यह हमला इतना तीव्र था कि स्वयं हुसैन खां भी इस गोलाबारी से घायल हो गया।
बहुत ही तीव्र संघर्ष हुआ और दोनों पक्षों के अनेक आहत भी हुए किन्तु शाम होते-होते बाजी मुगलपक्ष की ओर मुड़ गयी। हुसैन खां विजयी हुआ।
अकबर के बाद, औरंगजेब तक
अकबर के कूटजाल में फंसी भोली हिन्दू जनता ने इसे अपने पूर्व जन्म का ब्राहमण तथा किन्हीं पापकर्मों के चलते यवन बने बादशाह के रूप में स्वीकार सामान्यतः इसकाल में शान्तिपूर्वक ही अधीनता स्वीकारी। जबकि स्थानीय शासकों की हताशा का बड़ा कारण जिले के एकदम समीप आगरा में प्रबल मुगल सेना की उपस्थिति था। यह व्यवस्था जहांगीर, शाहजहां तथा कमोवेश औरंगजेब के काल तक चलती रही।
जहांगीर के शासनकाल में 1608 मंे पीरजादों का मारहरा में आगमन हुआ। इस काल में जनपद प्रायः मुगलों के अधीन ही प्रतीत होता है। अकबर ने ही जनपद में परगना व्यवस्था चलाई। इसके अंतर्गत परगना फैजपुर बदरिया सूबा दिल्ली की बदायूं सरकार के सहसवान महाल के अंतर्गत थे जबकि तहसील जलेसर के भाग महाल जलेसर सरकार आगरा के तथा पटियाली, सकीट, सहावर व सिकन्दरपुर अतिरेजी नामक परगने कन्नौज सरकार के अधीन थे। जिले के बिलराम, पचलाना, सोरों तथा मारहरा कोल सरकार के अधीन मारहरा महाल के अंतर्गत थे।
शाहजहां के काल में बादशाह के एक मंत्री नबाव सादुल्लाखां ने सादाबाद नगर की स्थापना की तथा फिरोजाबाद तक अपनी जागीर बनाई। इस काल में जलेसर इसी के कब्जे में था। सादुल्ला खां 1655 में मरा।
सोरों और अगहत का विनाश
औरंगजेब (1658-1707ई0) के शासन मं धर्मान्धता की आंधी का शिकार जिले का प्राचीन तीर्थ सूकरक्षेत्र व अगस्त्य ऋषि के आश्रम को भी बनना पड़ा। सन 1658 में औरंगजेब को शहजादा शुजा के विद्रोह से निपटने के लिए सोरों में पड़ाव डालना पड़ा। राय मुशी देवीप्रसाद द्वारा अनुदित औरंगजेब पुस्तक के प्र0 637 के अनुसार ‘16 रबीउलअब्बल(1-2 सितम्बर 1658ई0) को दिल्ली से कूच हुआ। 20 रबीउलअब्बल को खबर आयी कि अगला लश्कर इटावे आ पहुंचा है। बादशाह भी शिकार खेलते हुए 3 रबीउलआखिर (14/16 सितम्बर) को सोरों में पहुंचा और शाह शुजाअ की मंशा मालूम करने के लिए नसीहत का एक खत भेजा मगर जब यकीन हो गया कि रियायत करने से कोई फायदा नहीं है तो 5(16-18 दिसम्बर) को सोरों से चढ़ाई की और शहजादा मुहम्मद सुल्तान को लिखा कि लड़ाई में जल्दी न करके हमारे पहुंचने का रास्ता देखो।’ इस प्रवास के काल में औरंगजेब की निगाह में सोरों का उत्सर्ग चढ गया और 1667ई0 में उसने सोरों के सीताराम के प्राचीन मंदिर को खण्डित कराया तथा 1686ई0 में अगहत को नष्ट करने के लिए वहां तत्कालीन जागीरदार इहामुल्ला तथा फौजदार अमीर बेग के माध्यम से वहां एक सराय का निर्माण करा इसका नाम सराय अगहत कर दिया।
औरंगजेब के बाद (1707-1803ई0)
औरंगजेब मुगल बादशाहत का अंतिम ऐसा बादशाह था जिसने इस क्षेत्र पर अपनी बादशाहत पूरे शान-शौकत-शक्ति और अधिकार से की। उसकी मौत के बाद मुगलिया सल्तनत बिखरने लगी।
देश में मराठा शक्ति का विकास, बुंदेलखण्ड में छत्रसाल का उदय, पंजाब में गुरू गोविन्दसिंह की वीरता तथा ब्रज में जाट शक्ति का उत्सर्ग वे कारण थे जो मुगलिया बादशाहत को कमजोर करने तथा अंततः अंग्रेजों को अपना प्रभाव जमाने का अवसर प्रदान करने में सहायक हुए।
अठारहवीं सदी के आरम्भ में जिले का जलेसर परगना जहां नवोदित जाट शक्ति के प्रभाव में था वहीं मारहरा, बिलराम परगना कोल(अलीगढ) पर अधिकार करनेवाली शक्ति के अधीन हो जाता था। सकीट परगना शिकोहाबाद-इटावा के मध्य होनेवाली मराठा गतिविध से प्रभावित था तो आजमनगर, पटियाली, बरना व सिढपुरा आदि परगने समीप के मऊ रशीदाबाद (बाद में फरूखाबाद) में स्थापित हुई नई अफगान शक्ति तथा उसे राजनीति में उलझानेवाले अवध नबाव की राजनीति का शिकार था।
औरंगजेब के बाद बहादुरशाह (1707-01712) शाहआलम के नाम से गद्दी पर बैठा। इसके बाद जहांदारशाह (1712-01713) व फर्रूखशियर(1713-01719) बादशाह बना। फर्रूखशियर के समय में ही बंगश नबाव की वीरता के कारण उसे इलाहाबाद की स्थापना कर अपनी राजधानी बनाई। इस समय कानपुर का पश्चिमी भाग सम्पूर्ण मैनपुरी जिला तथा एटा, बदायूं, अलीगढ तथा इटावा जिले के कुछ भाग इसकी अमलदारी में थे।
फर्रूखशियर के समय में ही सैयद भाइयों का एटा जिले पर प्रभाव स्थापित हुआ। 1713ई0 में मुजफ्फरनगर निवासी इन सैयद भाइयों ने मारहरा की भैरों पट्टी को अपने तथा हरनीलगरां पट्टी को फरूखाबाद के बंगश शासकों के अधीन किया था। बाद में सैयदों ने 177 गांव नबाव फरूखाबाद के अधीन तथा शेष भाग अवध के वजीर के अधीन कर दिया। बादशाह से असंतुष्ट हो बाद में मराठों का सहयोग ले 1719 में फर्रूख को हुसैनअली ने मार दिया।
स्थानीय शासकों में रिजोर व राजा का रामपुर राजपरिवार- दो ही ऐसे राजपरिवार हैं जिनके शासनकाल इस काल में भी प्रतीत होते हैं। ये कितने भूभाग के शासक थे, इसका विवरण तो उपलब्ध नहीं किन्तु बादशाह फर्रूखशियर के 1 मई 1829ई0 में रिजोर नरेश हरीसिंह को भेजे एक परवाने में इन्हें महाराज के रूप में संबोधन स्पष्ट करता है कि ये इस काल में एक बड़ी शक्ति व खासे बड़े भूभाग के शासक रहे होने चाहिए। (हालांकि परवाने में इन्हें जमींदार के रूप में ही संबोधित किया गया है।)
इन बड़े राजपरिवारों के अलावा कुछ ऐसे उल्लेख भी मिलते हैं जिनके अनुसार यह परिवार इस काल में खासे शक्तिशाली होने चाहिए। जैसे- मारहरा का शेरवानी परिवार, पटियाली का राजा हरनारायण का परिवार।
19वीं सदी में एटा के प्रभावी राजन्यवर्ग की श्रेणी में आए अवागढ नरेश इस काल अथवा इसके कुछ आगे-पीछे मीसा व अवा- मात्र दो गांवों के जमींदार थे जबकि अतिम एटा नरेश राजा डम्बरसिंह के पूर्वज एटा व इसके आसपास के कुछ गांवों के बड़े जमींदार। इन दोनों तथा 1730ई0 में धौलेश्वर के शासक बने राजा आदिकरणसिंह के परिवारों के उत्सर्ग का काल यही अठारहवीं सदी है। इसके विपरीत रिजोर व राजा का रामपुर राजपरिवारों के प्रभाव का अठारहवीं सदी में क्षरण हुआ पाते हैं।
1919ई0 में रफीउद्दाराजात, 1719 में ही रफीउद्दौला तथा 1719 में ही मुहम्मदशाह रंगीला दिल्ली का बादशाह बना। इसका मराठों से भीषण युद्ध हुआ जिसमें विजित हुए मराठों ने दिल्ली की बादशाहत से चैथ बसूलना प्रारम्भ कर दिया। 1737ई0 में सुप्रसिद्ध मराठा पेशवा बाजीराव का अपने सेनापति मल्हारराव होल्कर व पिलाजी जाधव के साथ मराठा सेना लेकर जनपद में प्रवेश हुआ। बाजीराव ने जलेसर में मुगल सेनापति बुहारनमुल्क से भीषण युद्ध किया किन्तु मराठाओं को पीछे हटना पड़ा।
दिल्ली की सत्ता पर 1748ई0 में काबिज हुए अहमदशाह ने आरम्भ में सफदरजंग को अपना वजीर बनाया तो उसे राजनीति में अपना प्रभाव स्थापित करने का अवसर मिल गया। 1749ई0 में रूहेलखण्ड के सूबेदार की मृत्यु हो जाने पर सफदर ने कूट षड्यंत्र रच पहले सम्पूर्ण रूहेलखण्ड को नबाव फरूखाबाद को सोंपा। जिसके परिणाम स्वरूप फरूखाबाद व रूहेलखण्ड की अफगानी शक्तियों को आपस में ही भिड़ना पड़ा। दोनों के मध्य कादरगंज में हुए भीषण संग्राम में नबाव कासिम मारा गया तथा जनपद पर रूहेला सरदार हाफिज खां का कब्जा हो गया। इसने पटियाली के राजा हरप्रसाद को यहां का स्थानीय प्रशासक बनाया। राजा हरप्रसाद ही 1739 मं हुए नादिरशाही आक्रमण क समय रूहला प्रतिनिधि के रूप में नादिरशाही दरबार में उपस्थित हुए थे। हाफिज रहमतखां का इससे पूर्व 1748 में भी नबाव फर्रूखाबाद से अलीगंज के समीप युद्ध हो चुका था तथा इस युद्ध में कायमखां, याकूतखां तथा कादरगंज के नबाव सुजातखां को हाफिज रहमतखां द्वारा मार डाला गया था। अलीगंज के शासक याकूतखां ने ही 1720 में कासगंज व याकूतगंज नगर की स्थापना की थी।
पेशवा बाजीराव की मां की सोरों-यात्रा
पेशवा बाजीराव ने उत्तर भारतीय नरेशों पर अपने प्रभाव का आकलन करने के लिए एक अभिनव राजनीतिक योजना बनाई थी। इस योजना के तहत अपनी माता राधाबाई को उत्तर भारत के तीर्थों की यात्रा के बहाने भेज दिया।
इस राजनीतिक धर्मयात्रा के लिए राधाबाई ने 14 फरवरी 1735 को पूना से प्रस्थान कर 18 अप्रेल को नर्मदा पार की और 6 मई को उदयपुर पहुंचीं। यहां महाराणा ने उसका भ्रातृवत स्वागत किया। 18 मई को राधाबाई ने नाथद्वारा के दर्शन किये और 29 जून को वह जयपुर पहुंच गयीं। जयपुर नरेश सवाई जयसिंह ने स्वयं तो उनके प्रति आदर प्रकट किया ही, उन्हें रनिवास ले जाकर अपनी रानियों से उनके पैर छुलवाए तथा अपनी पुत्री राधाबाई को उनकी गोद में बिठा प्रार्थना की कि उसके पद और प्रतिष्ठा की रक्षा की जाय। (बूंदी के रावराजा को ब्याही जयपुर नरेश की इस पुत्री के मामलों में इसीलिए पेशवा ने कभी कोई दखलंदाजी नहीं दी।)
जयपुर नरेश की प्रार्थना पर पूरे 3 मास जयपुर रुक राधाबाई ने सितम्बर-अक्टूबर में मथुरा-वृंदावन की ओर प्रस्थान किया। उदयपुर के महाराणा के सुझाव पर बादशाह मुहम्मदशाह ने उनके सम्मानार्थ 800 सैनिकों का एक दल नियुक्त किया तथा महाराज जयपुर का प्रतिनिधि रामनरायण दास इस सम्पूर्ण यात्रा में उनके साथ रहा।
राधाबाई के यमुना तट पर पहुंचने पर फरुखाबाद के नबाव मुहम्मद खां बंगश ने अपने दीवान राय हरनरायन (राजा हरनारायण पटियालीवाले) के माध्यम से उनकी आगवानी कराई तथा उन्हें एक हजार रुपयों की भेंट देते हुए उनके योग्य आसमानी साडि़यां उपहार में दीं।
राधाबाई की इस क्षेत्र की यात्रा राजा हरनारायण के संरक्षण में सम्पन्न हुई। यहां राजा हरनारायण ने पेशवा की माता को सुप्रसिद्ध तीर्थ सोरों सूकरक्षेत्र सहित क्षेत्र के रुदायन आदि प्राचीन तीर्थों की यात्रा करायी। यहां से राधाबाई कुरुक्षेत्र व प्रयाग आदि की यात्रा कर पूना बापस लौटीं।
नादिरशाह तथा रुहेलों के मध्य पटियाली के राजा हरनारायण ने कराया था समझौता
भारत पर अठारहवीं शताब्दी में हुए नादिरशाह के आक्रमण से सभी परिचित हैं। इन हमलों तथा हमलों के बाद की गयी नृशंसता इतनी वीभत्स थी कि आज भी किसी क्रूर कर्म या क्रूर व विवेकहीन आदेश को ‘नादिरशाही’ कर्म या आदेश कहा जाता है।
1738 में काबुल पर अधिकार करनेवाले नादिरशाह ने इसी वर्ष नवम्बर में जब पेशावर भी हथिया लिया तो उसका उत्साह चरम पर पहुंच गया और वह 1739 के आरम्भ में लाहौर के निकट आ पहुंचा तथां 12 जनवरी को लाहौर पर भी अधिकार कर लिया।
इधर भारत में मराठाओं के संरक्षण में रह रहे दिल्ली के बादशाह को अपने-अपने अधिकार में करने की होड़ कर रहे निजामुल्मुल्क, सआदत खां व रुहेलों को जब नादिरशाह की प्रगति की सूचना मिली तो वे उसके माध्यम दिल्ली के बादशाह पर अपना अधिकार जमाने का षड्यंत्र करने लगे।
दिल्ली में रह रहे मराठा राजदूत बाबूराव मल्हार द्वारा इस सम्बन्ध में पेशवा को भेजे प्रतिवेदन के अनुसार- निजामुलमुल्क और सआदत (बाद का नबाव अवध) नादिरशाह के साथ कुछ गुप्त और विश्वासघातपूर्ण मंत्रणा कर रहे हैं।
सच भी यही था। मराठों के बढ़ते प्रभाव तथा दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह की डगमगाती सत्ता ने निजाम-उल-मुल्क, सआदतखां, व रुहेला सरदार हाफिज रहमत खां को जहां आतंकित कर दिया था वहीं अपने-अपने स्वार्थो की पूर्ति करने के लिए प्रेरित भी किया। तीनों ने ही षड्यंत्र कर इस ईरानी आक्रमणकारी नादिरशाह को भारत पर आक्रमण करने तथा उसे लूटने को आमंत्रित किया था।
नादिरशाह के दिल्ली की ओर प्रयाण की सूचना पाकर मुहम्मदशाह ने भी 18 जनवरी को दिल्ली से प्रयाण किया और कर्नाल पहुंच गया। 5 फरवरी को नादिरशाह सरहिंद आ पहुंचा। 13 फरवरी को बादशाह के सहायक कर्नाल से आगे बढ़े तथा उन्होंने आक्रामक ईरानियों को रोकने के प्रयास किय,े किन्तु असफल रहे। इस युद्ध में मीरबख्शी खान-ए-दौरां आहत होकर मर गया जबकि सआदत खां गिरफ्तार कर लिया गया। निजाम-उल-मुल्क इस पूरे युद्ध में निष्क्रिय बना रहा।
अंततः निजाम-उल-मुल्क से संधि की चर्चा चली और 50 लाख ले नादिरशाह वापस लौटने को सहमत हो गया। यह संधि अमल में लायी जाती, इससे पूर्व नादिरशाह द्वारा निजाम-उल-मुल्क की मीरबख्शी पद पर नियुक्ति कर दी। इससे अपने लिए मीरबख्शी पद चाहनेवाला सआदतखां अप्रसन्न हो गया। फलतः उसने नादिरशाह को यह कहकर भड़का दिया कि वह दबाव डाले तो 50 लाख की जगह 50 करोड़ भी पा सकता है। नादिरशाह ने सआदतखां की बात मानकर मुगल शिविर घिरवा लिया तथा निजाम को कैद कर रिहाई के लिए 20 करोड़ की शर्त रखी। चूंकि बादशाह यह रकम देने की स्थिति में न था अतः उसे भी कैद कर लिया गया।
अब नादिरशाह ने आगे बढ़कर दिल्ली पर अधिकार कर लिया और 20 करोड़ की मांग सआदत खां से करने लगा। चूंकि सआदत खां भी 20 करोड़ देने की स्थिति में न था अतः परिस्थितियां विपरीत जान उसने विष खाकर आत्महत्या कर ली।
अब नादिरशाह ने 10 मार्च को दिल्ली के सिंहासन पर बैठअपने को भारत सम्राट घोषित कर दिया। इस अवसर पर हुए दिल्ली दरबार में निजाम-उल-मुल्क को गधे पर बैठ नादिरशाह को मुजरा करने को बाध्य किया गया और करायी गयी 9 मार्च से 1 मई तक दिल्लीवासियों की वह नृशंस लूट जो मराठा प्रतिनिधि के अनुसार 4 करोड़ तथा अन्य के अनुसार 1 अरब की थी।
नादिरशाह के इतने बड़े विवरण को दिए जाने का कारण नादिरशाह के समक्ष रुहेला सरदार हाफिज रहमत खां के वकील बनकर उसके दरबार में रह रहे पटियाली के तत्कालीन राजा हरनारायण हैं। हालांकि रुहेला हाफिज रहमत खां भी अपने देशद्रोहपूर्ण कृत्य के कारण नादिरशाह का विश्वास अर्जित करने की जगह उसके कोप का शिकार हुआ था किन्तु अपने वकील राजा हरनारायण के प्रयासों के कारण न सिर्फ समूल नाश से बचा बल्कि बादशाह का संरक्षक भी घोषित हुआ।
राजा हरनारायण के विषय में अधिक जानकारी तो नहीं मिलती किन्तु पटियाली स्थित राजा हरनारायण की स्मृति में है। राजा हरनारायण जहां रुहेलों, व सआदतखां के विश्वासपात्र थे वहीं पेशवा बाजीराव के भी अत्यन्त विश्वासपात्र थे। यही कारण है कि पेशवा बाजीराव की माता के उत्तर भारती के तीर्थों की यात्रा के समय फरूखाबाद के बंगश नबाव ने राजा हरनरायन के संरक्षण में ही उनकी सोरों, रूदायन सहित अपने क्षेत्र की यात्रा सम्पन्न करायी थी। मराठा सरदार द्वारा पेशवा को भेजे पत्र के अनुसार- राय हरनरायन इस काल (1735-36) में मुहम्मद बंगश का दीवान था तथा इनका एक सम्बन्धी रामनरायण दास जयपुर महाराज का प्रतिनिधि नियुक्त था।
दिल्ली में राजनीति, प्रभावित एटा जनपद
एटा जिले का अधिकांश भाग फरूखाबाद के बंगश नबाव के अधीन था। बंगश को यह जागीर फर्रूखशियर की सामूगढ युद्ध में सहायता करने के प्रतिफल में मिली थी। इसकी मृत्यु के उपरान्त 1743ई0 में इसका पुत्र कासिमखां नबाव हुआ। इसने अपनी सत्ता का प्रभावशाली विस्तार किया तो दिल्ली का तत्कालीन बजीर तथा नबाव अवध चिंतित होने लगा। इनसने कायमखां को रोहेलाओं से भिड़ाने के लिए उसे शाही फरमान भिजवाया जिसमें उसे रूहेलाओं के क्षेत्र पर आक्रमण करने का आदेश दिया गया था।
इस आदेश के बाद 27 नवम्बर 1749 को कायमखां अपनी 60 हजार की सेना के साथ निकला तथा कादरगंज आ गया। यहां से डोरी(बदायूं) पहुंचा। यहां 11 नवम्बर को रूहेलाओं से हुए युद्ध में अपूर्व वीरता के बावजूद गोली लगने से कायमखां की मौत हो गयी।
गुलिस्तां-ए-रूहेला प्र0 208 के अनुसार इस युद्ध में रूहेलों ने बंगश के उसैत, जलालाबाद, मऊबहेलिया, इस्लामगंज व सहसवान आदि क्षेत्रों पर अपना अधिकार कर लिया। रूहेला सेनाएं अमृतपुर जिला फरूखाबाद तहसील अलीगढ( संभवतः अलीगंज), खाखत व परमनगर भी पहुंचीं किन्तु इसे कायमखां के किसी गुमनाम चेले(अगरइया के क्षत्रिय से मुसलमान बने याकूतखां) ने बचा लिया।
 1745ई0 में हाथरस के जाट शासक के अधीन निधौलीकलां किले के किलेदार रहे राजा धारासिंह ने धौलेश्वर पर आक्रमण कर धौलेश्वर नरेश नबाव फरूखाबाद से सहायता लेने पहुंच गये।
नबाव कासिमखां के अधीनस्थ याकूतखां ने इस काल में अलीगंज की पुनस्र्थापना कर नगर के दक्षिण में एक किला निर्माण कराया। 1747 में ही क्षेत्र को नादिरशाही आक्रमण का शिकार होना पड़ा। इस युद्ध में अपमानित होने पर आगरा व अवध के सूबेदार तथा तत्कालीन बुहारूनमुल्क सादात खां को आत्महत्या करनी पड़ी।
अब सफदरजंग ने फरूखाबाद को अपनी अवध रियासत में मिलाने का षड्यन्त्र आरम्भ किया। उसने बादशाह को दौलत हासिल करने के बहाने फरूखाबाद पर आक्रमण के आदेश ले लिये।
नबाव कायमखां की मां बीबी साहिब ने इस स्थित का मुकाबला करने के लिए मोहम्मद खां बंगश के 11वें पुत्र इमामखां को बंगश का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। उन्होंने आक्रमण की सूचना मिलने पर मराठों से भी सहायता के प्रयास किये किन्तु असफल रही।
सफदरजंग 20 नवम्बर 1749 को दिल्ली से बादशाह के साथ रवाना हुआ। वह कोल (अलीगढ) पहुंचा। यहां बादशाह को अलीगढ में छोड़ सफदरजंग स्वयं आगे बढकर दरियावगंज आ पहुंचा। यहां से उसने अपने मंत्री नवलराय को भी ससैन्य उपस्थित होने के आदेश दिये। नवलराय ने जोरदार आक्रमण कर खुदागंज पर अधिकार कर लिया। कायमखां के 5 भाई व 5 चेले गिरफ्तार कर इलाहाबाद भेजे गये जबकि मुहम्मद खां के 5 चेले अपने पास रख लिये।
संधि की प्रत्याशा में बीबी साहिब 24 दिसम्बर 1749 को स्वयं सफदर के खेमे में पहुंचीं जहां उसने 60 लाख की रकम के बादले इमाम को नबाव बने रहने देने का प्रस्ताव किया। इसे सफदर ने स्वीकार कर लिया। बीबी ने चैथाई रकम नकद व जिंस के रूप में अदा कर जैसे ही शेष की किश्तें बना देने का निवेदन किया, सफदरजंग ने अपना समझौता भूल बीबी साहिब को भी हिरासत में ले लिया।
बंगश के इलाकों के 12 परगनों की आय बीबी साहिब के गुजारे को मुकर्रर कर सफदर ने सारे बंगश इलाके पर अपना अधिकार कर लिया। इसका शासन उसने नवलराय को सोंपा जो कन्नौज को राजधानी बना इस क्षेत्र पर शासन करता था। उसने बीबी साहिब को भी कन्नौज में कैद कर रखा था। बीबी साहिब के इस आपत्तिकाल के समय उनका सेवक मुंशी साहबराय उनके बड़े काम आया। इसने नवलराय से सम्बन्ध बना एक दिन नवलराय के नशे की हालत में उससे बीबी साहिब की रिहाई के आदेश पर हस्ताक्षर करा लिया और उसके सहारे उन्हें कैद से छुड़ा रातोंरात मऊरशीदाबाद ले आया।
मऊरशीदाबाद पहुंचने के बाद बीबी साहिब ने पठानी परम्परा के अनुरूप अपनी चादर शहरी और गांवों के पठानों के मध्य भिजवाई। यह अपने मान-सम्मान को बचाने की अपने कबीलाइयों से की गयी मार्मिक गुहार थी। चादर ने पठानों में जोश भर दिया। किन्तु इनमें योग्य नेता का अभाव था। यह कमी दूर की बीबी साहिब के सौतेले बेटे अहमदखां बंगश ने। अहमदखां की विरोधी रहीं बीबी ने भी परिस्थितिवश इसे पठानी नेता स्वीकार लिया तो पठानी सहयोग से 6 हजार की सेना गठित कर ली गयी।
शीघ्र ही अहमदखां ने फरूखाबाद पर आक्रमण कर उस पर अपना अधिकार कर लिया। जबाव में नवलराय सेना सहित खुदागंज आ गया तथा आक्रमण की सूचना सफदरजंग को भी दे दी गयी। सफदर ने नवलराय की सहायतार्थ एक बड़ी शाही सेना भी भेजी किन्तु वह जब तक आती, अपने एक मित्र राजा की सूचना पर अहमदखां बंगश ने अचानक नवलराय कैम्प पर आक्रमण कर उसे मार डाला। इसकी सूचना मिलने पर सफदरजंग स्वयं 6 जुलाई को बादशाह की अनुमति ले दिल्ली से रबाना हुआ।
उसने 22 जुलाई को इस्माईल बेग खां व राजा देवीदत्त के नेतृत्व में अग्रिम सेना भेजी और स्वयं अगस्त में मारहरा आ गया। यहां एक माह रूकने के दौरान उसने अपनी सेना बढाने के लिए आसपास के जमीदारों को फर्मान भेजे।(संभवतः इसी समय धौलेश्वर के आदिकरण सिंह ने उसका सहयोगी बन तथा युद्ध के दौरान अपनी प्रतिभा दिखा उससे राजा की उपाधि तथा अनुश्रुतियों के अनुसार 460 गांवों की बड़ी जमीदारी प्राप्त की)।
सितम्बर 1750 को सफदर युद्ध के उद्देश्य से रामछितौनी में स्थापित हो गया। उसके साथ 70-80 हजार की सेना भी थी। 13 सितम्बर 1750ई0 को दोनों में युद्ध हुआ। सफदरजंग के साथ सूरजमल जाट की भी सेना थी। युद्ध में सफदर के प्रभावी तोपखाने के कारण बंगश की सेनाओं को खासा नुकसान उठाना पड़ा। उनके सेनानायक रूस्तमखां अफरीदी के अलावा करीब 6 हजार पठानों की सेना मारी गयी।
बंगश सेना ने भागने का बहाना किया। सफदर इस चाल को न समझ सका और बंगश सेना के पलटबार करते ही पासा पलट गया। युद्ध में सफदर का योग्य कमांडर व रिश्तेदार नसीरूद्दीन खां मारा गया जबकि दूसरा कमांडर कामगार खां फरार हो गया। स्वयं सफदरजंग भी गर्दन में गोली लगने से बुरी तरह घायल हो गया। इस युद्ध में सफदर को खासी क्षति उठानी ही पड़ी, उसे जान बचाकर दिल्ली भागना पड़ा। इस युद्ध की शर्मिन्दगी सफदर पर इतनी हावी थी कि उसने दरबार में जाना भी छोड़ दिया था।
अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए उसने बंगश व रूहेलों को समूल नष्ट करने की योजना बनाई। इस पराजय से आहत सफदरजंग ने 35हजार रूपये प्रतिदिन के खर्चे पर मराठाओं की सेवाएं ली तथा मराठा सेनापति जयप्पा सिंधिया तथा मल्हारराव होल्कर को अपने साथ मिला लिया। इसके साथ ही ख्वाजासरा को रिश्वत दे शाही कारखाने से जंग का सामान भी प्राप्त कर लिया। 11फरवरी से मार्च 1751 के मध्य सफदर पुनः दिल्ली से रवाना हुआ।
इधर अहमदखां ने यह मूर्खता की कि वह बिना अपनी समुचित सुरक्षा किये इलाहाबाद किले की घेरेबंदी तथा अवध के इलाकों को हस्तगत करने में लग गया।
इसी समय सफदर की 20 हजार की फौज ने अचानक जलेसर व अलीगढ (संभवतः अवागढ) पर हमला कर दिया। बंगश का सरदार शादीखां बंगश मुकाबला न कर सका तथा अपनी 4 हजार सेना के साथ फरूखाबाद भाग गया। सूचना मिलते ही अहमदखां इलाहाबाद से चला तथा फतेहगढ के छोटे किले में ठहरा। उसने रूहेलाओं से सहायता लेने के प्रयास भी किये, इस हेतु बीबी साहिबा स्वयं आंवला पहुंची। यहां नबाव सादुल्लाखां की 2 हजार की सेना की सहायता के अलावा और कोई सहायता न मिली।
जलेसर युद्ध में विजयी मराठा सेना एटा के क्षेत्रों सहित दोआब में लूटमार कर फतेहगढ के करीब कासिमबाग में पहुंच गयी। स्वयं सफदरजंग संगीरामपुर पहुंच गया। मराठों ने जब फतेहगढ को अपने अधिकार में ले लिया तो अहमदखां को वहां से हट अनयत्र जाना पड़ा। 17 अप्रेल को सफदर नदी में पुल बनाने में सफल रहा तथा मराठा व जाट नदी पार करने में सफल रहे। दूसरी ओर 18 अप्रेल को 12 हजार की सेना सहित सादुल्ला खां अहमदखां से मिल गया तथा जल्दबाजी में मराठों पर आक्रमण कर बैठा। इस युद्ध में पुनः अहमदखां की पराजय हुई साथ ही इसी समय बंगश के तोपखाने में आग लग गयी जिससे उसका तोपखाना बेकार हो गया। विवश अहमदखां को वहां से कमरौल होते हुए गंगापार कर आंवला की ओर भागना पड़ा। सफदर ने बंगश क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। मराठों ने इस दौरान इतनी लूटमार की कि उनके पास मौजूद सिर्फ 1 ही बस्तु की कीमत 16 लाख आंकी गयी थी। माना जाता है कि इस अभियान में होल्कर के हिस्से में 2 करोड़ का माल आया। इसमें फौजियों का हिस्सा शामिल नहीं था।
सफदरजंग के जाते ही अहमदखां फिर फरूखाबाद लौट आया किन्तु बरसात के कारण सूचना मिलने के बावजूद सफदर अवध में ही फंसा रहा। बरसात के बाद सफदर ने मराठों को अहमदखां व रूहेलों को उनके अधिकृत क्षेत्रों से भगाने के आदेश दिये तो अहमदखां को फिर आंवल भागना पड़ा। यहां से रूहेलों के परामर्श पर वह कुमायूं की लालडांग की पहाडि़यों में जा छिपा।
मराठा सेनापति खांडेराव मल्हारराव द्वारा अहमदखां का पीछा किया गया। एक स्थान पर दुंदेखां द्वारा प्रतिरोध भी किया गया किन्तु मराठों द्वारा अहमदखां को पत्र भेज आश्वस्त किया गया कि वे तो किराए की सेना हैं, उनका अहमदखां से कोई बैर नहीं है अतः वे युद्ध से पूर्व अहमदखां को सूचित कर देंगे। परिणाम अहमदखां के कहने पर दुंदेखां ने मराठा सेना के अवरोध हटा लिये।
मराठा सेना के असहयोगपूर्ण सहयोग के कारण 4 माह की घेरेबंदी के बावजूद सफदर को प्रत्याशित सफलता न मिली। यहां तक कि अतीतों की सेना(गुसाईंसेना) के माध्यम से किये सफदर के प्रयास भी असफल रहे। इधर अलीकुली खां के माध्यम से सफदर को युद्ध बंद करने का बादशाह का शिक्का(पत्र) मिलने के बाद जंग से अजिज सफदर ने सुलहवार्ता चलाई।
फरवरी 1752ई0 में हुई इस संधि के अनुसार- बंगश को सफदर के अधीन रहने, नजराने में 50 हजार दे सदैव अवध के आज्ञाकारी रहने, मराठों को नियमित चैथ देने के अलावा मराठों को सफदर द्वारा दी जानेवाली रकम अब वंगश द्वारा दिये जाने तथा रकम अदा न करने तक बंगश के आधे मुल्क का मराठों के पास रहने किन्तु मराठों द्वारा इस पर अधिकार न कर बंगश के माध्यम से ही प्रशासित करने, प्रशासनिक खर्चों में आनेवाली रकम निकाल शेष रकम कन्नौज व अलीगंज के दखिनी महाजनों (ठंदामते) के पास जमा करने की शर्त पर दोनों में समझौता हुआ।
इस समझौते के बाद अहमदखां व स्व0 मुहम्मदखां के पुत्रों के पास 16 (अन्य श्रोतों के अनुसार 22) लाख के परगने व फरूखाबाद रहा। वहीं नबाव अली मुहम्मदखां के लड़कों पर कायमखां की पराजय के बाद रूहेलों द्वारा जीते मीराबाद व अन्य परगने रहे। वहीं कन्नौज, अकबरपुर शाह और बंगश के अधिकांश परगने (जिनमें एटा जिले का भी अधिकांश भूभाग था) मराठा एजेन्ट गोविन्दपंत बुंदेला के अधिकार में आये। अवध के कुछ सीमावर्ती इलाके सफदर को भी मिले।
कायमखां क पुत्र अहमदखां ने सफदरजंग के फरूखाबाद हस्तगत करने के प्रयासों को खुदागंज (फरुखाबाद) के युद्ध में सफदरजंग के वजीर व सेनापति नवलराय को परास्त कर विफल कर दिया तथा 13 अगस्त 1750ई0 में सेनापति को मारकर अहमदखां ने खोए हुए जनपदीय भूभाग पर पुनः अधिकार करने के प्रयास किये। 23 सितम्बर को सहावर व पटियाली के मध्य स्थित रामछितौनी में हुए युद्ध में सफदर को परास्त कर अहमदखां ने पुनः अपना खोना भूभाग प्राप्त कर लिया। सफदरजंग द्वारा मराठाओं को दिये जानेवाले 50हजार के बदले बंगश का आधा भाग मराठाओं को दिये जाने से मराठे कोल(अलीगढ) से कोड़ा जहांबाद तक के 16 परगने के स्वामी बन गये। यहां मराठाओं ने अपनी चैकियां भी बिठा दीं तो बंगश मराठा और अवध के बीच फंस गया।
किन्तु इसी बीच 1755 में अब्दाली के आक्रमण ने मराठाओं का ध्यान अपनी ओर खींचा। फलतः मराठाओं ने अहमदखां से समझौता कर लिया। इसके अंतर्गत सफदरजंग से प्राप्त ऋण का भुगतान मराठाओं को करने, जमानत के रूप में राज्य के 23 महालों का आधा भाग मराठाओं के पास रहने की एवज में मराठाओं द्वारा रूहेलखंड व फरूखाबाद को खाली कर दिया गया।
इस समझौते के फलस्वरूप 1752 मंे मराठाओं की जागीर बना मारहरा सहित इस क्षेत्र के सभी परगने उन्होंने नबाव अहमदखां को ही वापस कर दिये। यह 1772 में पुनः बजीर अवध के पास पहुंच गये। जलेसर तो 1730 से ही मराठाओं के अधिकार में था।
इस समझौते के फलस्वरूप सोरों से अलीगंज तक का जिले का करीब-करीब सम्पूर्ण भूभाग मराठाओं के प्रत्यक्ष या परोक्ष अधिकार में आ गया। मराठाओं ने इस क्षेत्र की राजस्व वसूली के लिए अलीगंज में तहसील बना अपना प्रतिनिधि बैठाया जो राजस्व वसूली के साथ-साथ नबाव से चैथ भी बसूला करता था। मराठा सेनाओं का वेतन व प्रबन्धकीय व्यय के अलावा अहमदखां से चैथ के रूप में प्राप्त होनेवाले भारी राजस्व की वसूली क लिए यह व्यवस्था पानीपत के 1761 में हुए मराठा-अब्दाली युद्ध तक चलती रही। 1754ई0 में सफदरजंग की मौत के बाद शुजाउद्दौला इस क्षेत्र का शासक बना।
1756ई0 में अहमदशाह अब्दाली ने दिल्ली, मथुरा, आगरा सहित एटा जिले के जलेसर व मारहरा आदि क्षेत्रों पर अपना अधिकार कर लिया। विजयोपरान्त अब्दाली ने अवध के शासक शुजाउद्दौला के विरूद्ध अभियान हेतु इमानुलमुल्क गाजीउद्दीन को आदेश दिया। 26-27 फरवरी 1757 को जहांखां व नजीब के नंतृत्व में मथुरा-आगरा के मध्य का क्षेत्र बर्बाद करने के लिए सेना भेजी। इसका 28 फरवरी को भरतपुर नरेश जवाहरसिंह से चैमुंहा पर भयंकर युद्ध हुआ किन्तु इसमें जवाहर की पराजय हुई।
इसी समयअब्दाली ने बादशाह से अवध व बंगाल की सूबेदारी शहजादा हयात वख्श व मिर्जा बाबा (बाबर) को देने की प्रार्थना की। दोनों शहजादे सनद ले 19 मार्च को मथुरा पहुंचे। यहां अब्दाली ने जंगवाजखां के नेतृत्व में 3हजार अपनी सेना दे, इमादउलमुल्क तथा नजीब के भाई सुल्तान एवं पुत्र जाबताखां को इनके साथ कर दिया।
इमाद की सलाह पर पहले दोआब व फरूखाबाद जाकर बंगश से संपर्क कर इस क्षेत्र से मराठा चैकियां हटायीं गयीं। 23 मार्च 1757 ई0 को यह सेना आगरा पहुंची तथा 25 मार्च को फिरोजाबाद के राजघाट फेरी के पास से इस सेना ने मैनपुरी के समीप पड़ाव डाला।
इधर शहजादा बाबा व इमामउलमुल्क गाजीउद्दीन खां आदि ने एटा जनपद के कादरगंज की ओर कूच किया। दूसरी ओर शहजादा हयातवख्श एटा आया। मराठा एटा छोड़कर भागे। पर यहां का प्रबंन्ध करने की जगह अब्दाली की सेना की लूटपाट शुरू हो गयी। अब इमामुल्मुल्क मेहराबाद पहुंचा। लेकिन इमामुल्मुल्क का यह अभियान असफल ही रहा।
अवध का नबाव शुजाउद्दौला जानता था कि दोनों शहजादे अब्दाली व जनरल जांवाज खां से असन्तुष्ट हैं। कारण, एटा से मराटों को हटाने के बाद अपनी चैकियां विठाने के दौरान जो रूपया हाथ आया उस पर जांबाजखां ने कब्जा कर लिया था।
जब शुजाउद्दौला को ज्ञात हुआ कि इमादुल्मुल्क भी कादरगंज आ गया है तो उसने शहजादों की सेना लूटने के लिए एक फौजी दस्ता फरूखाबाद के रास्ते भेजा। अहमदखां बंगश भी फरूखाबाद को बचाने के लिए कादरगंज की ओर बढ़ा। हाफिज रहमतखां के नेतृत्व में आये रूहेले कादरगंज में रूके रहे। एटा से शहजादा हयात वख्श भी कादरगंज पहुंच गया। इमादउल्मुल्क रहमतखां से मिलने नदी पार कर गया जो दूसरे किनारे था। दूसरे दिन उससे मिलने शहजादे गये जो 4 दिन मेहमान रहे। हाफिज ने सुलह का परामर्श दिया तथा इस पर शहजादे भी करीब-करीब सहमत हो गये।
इस बीच शुजा भी आ गया। उसका कहना था कि वह शहजादों का तो बफादार है किन्तु उन्हें बंगश व इमाद को छाड़ना होगा। इमाद द्वारा प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिए जाने पर दोनों ने अपनी सेनाएं बढाईं। शुजा गर्रा नदी पर कर सांडी तक आ पहुंचा तथा शहजादों की सेना से 14 मील दूर अपना पड़ाव डाल दिया। जाबांज व शुजा में दो झड़पें भी हुईं किन्तु इसी समय 17 जून को सखाराम बापू के कासगंज तक आ जाने से स्थिति और बातचीत का अंदाज बदल गया। शुजा ने मराठा सहायता से इस अभियान को कासगंज के समीप सफलतापूर्वक रोक दिया। इसी मध्य अब्दाली की सेना में भी अफगान वापसी के लिए दबाव बढने लगा। अब्दाली का पुत्र जहानशाह इस वापसी का अधिक इच्छुक था। फलतः शुजा द्वारा शहजादों को 5 लाख की पेशकश देने पर अब्दाली की सेना वापस लौट गयी।
इस युद्ध ने मराठाओं के पैर पूरे जिले में मजबूती से जमा दिये। इसके उपरान्त मराठों का अंगरेजों से संग्राम छिड़ गया। नबाव अवध शुजाउद्दौला अहसान फरामोश निकला तथा मराठों से विश्वासघात कर अंगरेजों से मिल गया।
1761 के पानीपत युद्ध में मराठाओं को करारी हार का सामना करना पड़ा। ु दोआब में अफगान शासक अहमदखां बंगश व रूहेला शासक हाफिज रहमतखां मराठाओं के शत्रु थे। इन्होंने पानीपत में मराठाओं की हार होते ही दोआब में मराठाओं को जो इलाके प्राप्त हुए थे उनको छीनकर उन्हें अपने अधिकार में कर लिया। मराठा प्रभुत्व भाग3- वीएल लूनिया, प्र0 49। परिणाम जिले से भी उनके पांव उखड़ गये। इधर भरतपुर के जाट नरेश सूरजमल ने भी मराठाओं का पक्ष त्याग दिया और घोर मराठा विरोधी बन गया। वह नबाव, बंगश और रूहेलों के राज्यों पर आक्रमण कर अपने राज्य का विस्तार करने का आकांक्षी था। मराठा प्रभुत्व भाग3- वीएल लूनिया, प्र0 50। 1765 में बक्सर युद्ध के पश्चात पुनः शुजाउद्दौला व अंगरेजों के मध्य एक संधि हुई जिसमें अंगरेजों ने अवध प्रांत को बफर स्टेट के रूप में स्वीकार किया।
6 अप्रेल 1770 को गोवर्धन युद्ध में मराठाओं ने जाटों को परास्त कर आगरा, मथुरा पर अधिकार कर लिया। इससे आतंकित नजीबुद्दौला ने मराठों से जाटों के विरूद्ध समझौता कर लिया। इसके अनुसार नजीबुद्दौला दोआब स्थित जाट क्षेत्रों पर आक्रमण कर उनको जीत लेगा और मराठे जमुना नदी के दक्षिण में जाट क्षेत्र को रोंदेंगे और लूटेंगे। -सिलेक्शन फ्राम पेशवा दफ्तर गगपगए246 6 अप्रेल से 8 सितम्बर 1770ई0 में जाटों ने मराठा सेना पर आक्रमण कर दिया परन्तु परास्त हुए तथा पलायन कर डीग दुर्ग में स्थापित किया। उत्तर में मराटाओं दुर्ग पर आक्रमण करने के स्थान पर जमुना नदी पार करके कुछ जाट इलाकों को हस्तगत कर लिया। इधर मई 1770 में मराठों से हुई संधि के तहत नजीबुद्दौला ने शिकोहाबाद और सादाबाद से जाट इलाकों को जीत अपने अधीन कर लिया। नौझील, दनकौर, जेबर, टप्पल तथा डिबाई पूर्व में ही जीत लिए गये। मई-जून में मराठों ने जाटों के गांवों को रोंद डाला तथा बुरी तरह से लूटा।
किन्तु इसी मध्य मराठाओं को नजीब व रूहेलों के संगठित होने की सूचना मिली तो उन्होंने 8 सितम्बर 1770 को जाट नरेश नवलसिंह से समझौता कर लिया। मराठा प्रभुत्व भाग3- वीएल लूनिया, प्र0 50।
दोआब में जाट इलाकों को हस्तगत करने के साथ-साथ मराठे बंगश नबाव के इलाके में भी घुस गये। 1770ई0 में उन्होंने कन्नौज व अलीगंज की अपनी चैकियां पुनः स्थापित कर लीं। परन्तु 1772 में राबर्ट बर्कर ने इन्हें पुनः पराजित कर दिया। इससे भयभीत शुजाउद्दौला को हौसला मिला तथा उसने इस क्षेत्र पर अपना अधिकार जमा लिया। इस पर नजफखां ने आक्रमण कर शुजाउद्दौला से पुनः एटा, मैनपुरी जिलों के क्षेत्र छीन उसे इटावा पलायन पर मजबूर कर दिया। नजफखां की शक्ति से भयभीत शुजा ने उससे समझौता कर एटा नजफखां को प्रदान कर मैनपुरी को पुनः अधिकृत कर लिया।
1770 में ही नजीमुद्दौला ने जलेसर भी मराठाओं से छीन लिया। इसे 1785 में महादजी सिंधिया ने पुनः जीत अपने राज्य में मिलाया। महादजी के पुत्र दौलतराव सिंधिया ने इस सम्पूर्ण क्षेत्र को अपनी सेना के व्यय की प्रतिपूर्ति के लिए अपने फ्रांसीसी सेनापति जनरल बायन को दे दिया। 1803 के सिंधिया-अंगरेज युद्ध के समय पेरन के विश्वासघात करने तक यह सिंधिया के ही अधिकार में रहा। 1803 से यह क्षेत्र अंगरेजी अधिकार में आ गया।
अंगरेजों का क्षेत्र में प्रवेश
इधर 1761ई0 के पानीपत के यद्ध में मराठाओं की पराजय के बाद मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय पर अंगरेजों का दबदबा बढ़ गया। शाहआलम ने निश्चित पेंशन की एबज में अपना राज्य अंगरेजों को सोंप दिया।
कालांतर में शाहआलम पुनः अंगरेजों की शरण से हटकर मराठाओं की शरण में पहुंच गया जहां महादजी ने उसे संरक्षण दिया तथा सफलतापूर्वक इलाहाबाद के किले से निकाल दिल्ली के सिंहासन पर बैठा दिया।
इसी बीच मराठाओं द्वारा नजीब को दण्ड देने के लिए रूहेलखंड पर आक्रमण करने के कारण अवध के नबाव, रूहेलखंड के सरदार व अंगरेजों के मध्य संधि हुई जिसके अनुसार जिले के भूभाग मराठाओं से छीन 1801ई0 में पुनः दिल्ली के बजीर, नबाव अधव तथा फरूखाबाद के नबाव के मध्य बांट दिए गये। नबाव बजीर ने अल्मास अली को जबकि नबाव फरूखाबाद ने अनूपगिरि गोस्वामी को अपने-अपने क्षेत्रों का उपराज्यपाल बनाया।
मराठा शक्ति को छिन्नभिन्न करने के उपरान्त अंगरेजों ने षड्यंत्रपूर्वक फरूखाबाद के अवयस्क नबाव को 1लाख8हजार रूपये वार्षिक पेंशन की एवज में अपना राज्य अंगरेजों को सोंपने को विवश किया तथा 1803ई0 में लार्ड लेक के नेतृत्व में जनपदीय क्षत्रों पर प्रयाण कर दिया। लार्ड लेक के इस अभियान में एटा नरेश राजा हिम्मतसिंह ने उनसे संधि की जबकि धौलेश्वर के हिम्मतसिंह नामधारी नरेश ने अपूर्व हिम्मत का परिचय दे प्रतिकार कर लेक से युद्ध किया।
राजा हिम्मतसिंह के साथ हुए युद्ध में एक अंगरेज मेजर मारा गया किन्तु अंततः 12 मार्च 1805 में अंगरेजों का धौलेश्वर राज्य के किचैरा दुर्ग पर अधिकार हो जाने के बाद धौलेश्वर राज्य के सभी क्षेत्र अंगरेजों के अधीन हो गये।
धौलेश्वर विजय के उपरान्त बिलराम, सकीट व रामपुर आदि क्षेत्र यहां के छोटे-मोटे जमींदारों के अंगरेजी शरण में जाने से स्वतः उनके अधिकार में आ गये। इन क्षेत्रों पर शासन करने के लिए अंगरेजों ने कासगंज के समीप छावनी गांव में कर्नल गार्डनर के नेतृत्व में एक घुड़सवार सेना की छावनी स्थापित की।
प्रथम स्वाधीनता संग्राम के नायक महाराजा डम्बरसिंह के बाबा ने ही की थी जिले में अंगरेजों से पहली संधि
सुनने में अटपटा भले ही लगे किन्तु यह सच है कि एटा जनपद में (हालांकि तब भौगोलिक इकाई के रूप में एटा जनपद ही अस्तित्व में नहीं था, यह अ्रगरेजों के प्रशासनिक विभाजन की देन है।) अगंगरेजों से प्रथम संधि करनेवाले महाराजा हिम्मतसिंह, 1857 में हुई सशस्त्र क्रान्ति के नायक महाराजा डम्बरसिंह के बाबा थे।
इस राज्य की स्पष्ट सीमा क्या थी?, अब यह तो पता नहीं चलता किन्तु जिले भर में हिम्मतपुर, हिम्मतनगर जैसे गांवों के नाम इन्हीं हिम्मतसिंह के नाम पर बसे या इनके द्वारा बसाये गये हैं। इनसे यदि इस राज्य के भौगोलिक क्षेत्रफल का अनुमान लगाया जाय तो हम पाते हैं कि वर्तमान एटा-आगरा मार्ग पर करीब 8 किमी दूर स्थित हिम्मतपुर व निधौलीकलां ब्लाक के गांव हिम्मतपुर काकामई से लेकर पटियाली तहसील स्थित हिम्मतनगर बझेरा तक के भूभाग को इस राज्य का भाग माना जा सकता है। (इस राज्य की राजधानी भी हिम्मतनगर बझेरा ही थी यह एटा तहसील में एटा जिला मुख्यालय से करीब 8किमी दूर प्राचीन पुरावशेष अतरंजीखेड़ा के समीप है।)
पटियाली तहसील का हिम्मतनगर बझेरा इस राज्य का 27 राजस्व ग्रामों का एक ताल्लुका था जो इन्हें मराठाओं द्वारा इनके द्वारा मराठाओं के लिए नबाव फरुखाबाद से वसूल की जानेवाली चैथ की वसूली में होनेवाले व्यय की प्रतिपूर्ति में दिया गया था। यहां से महाराजा को करीब 5 हजार रुपया वार्षिक राजस्व मिलता था। (यहीं कारण है कि वर्तमान में बदायूं जिले के अतिनिकट होने के कारण यह क्षेत्र एटा जिले का भूभाग है।)
सोलहवीं सदी में एटा से करीब 3 किमी दूर पहोर (आज का गाजीपुर पहोर) गांव में बिलराम से पलायन के बाद चैहान नरेश राजा संग्रामसिंह द्वारा जिस नवोदित राज्य की नींव डाली गयी वह महाराजा हिम्मतसिंह के काल तक एक सुविस्तृत राज्य में बदल चुका है। हिम्मतनगर बझेरा जहां इस राज्य की राजधानी थी वहीं एटा नगर का वर्तमान में गढी लवान के नाम से पुकारा जानेवाला राजसी भवन इनकी उप राजधानी था। (इसे गढ़ी लवान महाराजा डम्बरसिंह की पुत्रहीन मृत्यु के बाद उनकी लवान, जयपुर में ब्याही पुत्री के पुत्र पृथ्वीसिंह को उत्तराधिकार में मिलने के कारण कहा जाने लगा है।)
इस क्षेत्र के भौगोलिक पटल पर अंगरेजों के अवतरण से पूर्व यह क्षेत्र दिल्ली के बजीर, फरुखाबाद के बंगश नबाव तथा लखनऊ के बजीर (बाद का बादशाह अवध) के बीच फुटबाल बना हुआ था। इन तीनों ही शक्तियों में राजस्व बसूली के लिए लगी होड़ के परिणाम स्थानीय शासकों को भुगतने पड़ते थे।
अठारहवीं सदी के द्वितीय चरण में इस क्षेत्र में जब मराठाओं की दस्तक हुई तो बार-बार की परेशानियों से बचने के लिए ये मराठाओं के सहयोगी बन गये। किन्तु 1761 में पानीपत में हुई मराठाओं की पराजय ने इन्हें पुनः अन्य शक्तियों के हाथों फुटबाल बनने को विवश कर दिया।
किन्तु मराठाओं के शीघ्र ही इस क्षेत्र में पुनः प्रभावी हो जाने के बाद स्थिति बदली और सिंधिया तथा होल्कर की सेनाओं द्वारा की गयी संयुक्त कार्यवाही के परिणामस्वरूप मराठा फरुखाबद के बंगश नबाव से पुनः चैथ वसूली की स्थिति में आ गये। इस चैथ की प्राप्ति के लिए उन्होंने जो केन्द्र खोले उनमें अलीगंज नगर भी था जहां मराठाओं द्वारा एक भवन (पुराना तहसील परिसर) निर्मित करा एटा के महाराजा हिम्मतसिंह को इस चैथ को वसूलने का अधिकार देते हुए उन्हें इस पर होनेवाले व्यय के लिए 27 गांवों का एक ताल्लुका प्रदान किया। (पटियाली तहसील के इन गांवों का प्रशासन चलाने के लिए महाराजा ने यहां भी हिम्मतनगर बझेरा गांव की स्थापना कर इसे अपना प्रशासनिक मुख्यालय बनाया था।)
अंगरेजों द्वारा अवध के बादशाह से अपनी सेना के व्यय के लिए फरुखाबाद क्षेत्र प्राप्त करने के बाद 1801 में जब अंगरेजों ने फरुखाबाद के अवयस्क नबाव से 1लाख रुपया वार्षिक पेंशन की एवज में शासन से पृथक कर उसके राज्य को अपने प्रत्यक्ष शासन में लिया तो स्थिति बदल गयी।
अब क्षेत्र की विधिक स्थिति उलझी हुई थी। मुगल बादशाह से प्राप्त अधिकार के अनुसार मराठे इस क्षेत्र के मुगल शासकों से चैथ वसूलने के अधिकारी थे तो अपने स्वंय निर्मित बादशाह अवध से यह क्षेत्र प्राप्त कर तथा नबाव फरुखाबाद को 1लाख की पेंशन की एवज में शासन से अलग कर अंगरेज यहां अपना दावा कर रहे थे। और परिणाम, यहां के शासक एक बार पुनः फुटबाल की बाॅल बनने को विवश थे।
महाराजा हिम्मतसिंह की दिक्कतें तो अंगरेजों की इस क्षेत्र में दस्तक के बाद से ही बढने लगी थीं, पर जब अंगरेज सेनापति लार्ड लेक ने 1803 में कानपुर से दिल्ली के लिए प्रयाण किया तो राजा की स्थिति और भी दयनीय हो गयी। कारण, एक ओर तो अलीगढ़ में मराठाओं का फ्रांसीसी सेनापति पेरन ससैन्य छावनी डाले था तो दूसरी ओर अंगरेजी सेना पड़ाव-दर-पड़ाव आगे बढ़ती चली आ रही थी।
कई दिन असमंजस में रहने के बाद महाराजा ने देश की बदल रही परिस्थिति को दृष्टिगत रख समयोचित निर्णय लिया और अंगरेजों की इस नवोदित किन्तु शक्तिशाली शक्ति से सम्बन्ध बढ़ाने का फैसला किया।
अंततः जब 1803ई0 में लार्ड लेक की सेना ने महाराजा के राज्य में प्रवेश किया तो सेना के प्रवेश से पूर्व आये लेक के दूत से महाराजा ने संधि पर हस्ताक्षर करने को सहमति जतायी। महाराजा को अपने अनुकूल पा अंगरेजों ने महाराजा के राज्य पर उनके व उनके उत्तराधिकारियों के अधिकार को स्वीकार करते हुए राज्य में होनेवाले मराठा हस्तक्षेप की स्थिति में अंगरेजों द्वारा राज्य की सुरक्षा तथा महाराजा की क्षतिपूर्ति का आश्वासन दिये जाने के बाद महाराजा ने लेक के समक्ष समर्पण कर दिया।
यही कारण था कि इस संधि के बाद कमौना के नबाव बलीदाद खां द्वारा प्रतिक्रिया में जलाए गये महाराजा के कासगंज क्षेत्र के गांवों का मामला हो या 1804 में होल्कर के अंगरेजी सेनाओं पर आक्रमण के समय होल्कर की सेनाओं द्वारा राजय में की गयी लूटपाट व आगजनी के विवरण अंगरेजों को भेज उनसे क्षतिपूर्ति की मांग की थी।
(उल्लेखनीय है कि अंगरेज व महाराजा के मध्य हुई संधि उनके पुत्र महाराजा मेघसिंह के समय तक को लगभग ठीकठाक चलती रही। किन्तु 1849 में महाराजा डम्बरसिंह के राज्यारोहण के समय महाराजा से उनका हिम्मतनगर बझेरा ताल्लुका छीन अंगरेजों ने महाराजा को पहला झटका दिया तो 1854 में महाराज की राजधानी के समीप स्थित एटा को जिला के रूप में बनाई प्रशासनिक इकाई का मुख्यालय घोषित कर महाराजा के राजकाज में हस्तक्षेप कर महाराजा को दूसरा झटका दिया था।)
1803 में ही होल्कर सेनापति जसवंन्तराव होल्कर का जनपद के अंगरेजों को भगाने के लिए अभियान हुआ। इस ब्रिटिश-मराठा युद्ध में जनपद के शूरवीरों ने अंगरेजों के विरूद्ध युद्ध किया परन्तु नवम्बर 1804 में होल्कर को पराजय का सामना करना पड़ा। लार्ड लेक की सेनाओं ने होल्कर की सेनाओं के विरूद्ध 16 नवम्बर 1804 को अलीगंज के पास युद्ध किया। लार्ड लेक के अनुसार- होल्कर सेना नष्ट कर दी गयी तथा मैनपुरी भागने को विवश कर दी गयी।
यशवन्तराव होल्कर ने इस पराजय के उपरान्त भी कई प्रयास किये किन्तु अंगरेजों के दबाव के चलते हरबार असफल रहा। जिले की क्षीण से शेष आशा भी उस समय धराशायी हो गयी जब 1818ई0 में अंगरेजों ने हाथरस नरेश दयारामसिंह को परास्त व अपदस्थ कर इस क्षेत्र की आखिरी स्वाधीन बाधा भी समाप्त कर दी।
कादरगंज में हुए होल्कर-लेक युद्ध में रखी गयी उत्तर भारत में अंगरेज विजय की नींव
1803ई0 में दिल्ली के मुगल बादशाह को अपने संरक्षण में लेने के लिए कानपुर से चले अंगरेज सेन्य जनरल लार्ड लेक द्वारा अलीगढ के मराठाओं के सिंधिया सरदार के एक सेनापति पेरां को गद्दारी करने के लिए प्रलोभित कर अलीगढ दुर्ग हस्तगत कर लेने से मराठा शक्ति को धक्का तो लगा किन्तु वे निष्प्रभावी नहीं हुए।
लेक ने दिल्ली की विजय के उपरान्त 1 नवम्बर 1803 को दौलतराव सिंधिया को भरतपुर से 21 मील दक्षिण स्थित लासवाड़ी में पराजित कर 30 दिसम्बर को उनसे सुर्जीअनुर्जन गांव में एक संधि करने को विवश कर दिया। इस संधि के द्वारा सिंधिया ने अपने (एटा जनपद सहित) गंगा-यमुना दोआब स्थित समस्त क्षेत्र अंगरेजों को समर्पित कर दिये।
अंगरेजों द्वारा सिंधिया से करायी गयी इस संधि में दोआब के वे क्षेत्र भी सम्मलित किये गये जिन्हें पेशवा द्वारा सिंधिया के साथ उनके दूसरे बड़े सरदार होल्कर को भी बराबर की भागीदारी दी गयी थी। अतः सिंधिया सरदार दौलतराव द्वारा की गयी संधि के बाद होल्कर का कहना था कि इस संधि से अंगरेज केवल सिंधिया के हिस्सेवाले राजस्व के ही अधिकारी हुए हैं। चंूकि होल्कर की उनसे कोई संधि नहीं है अतः होल्कर इन भागों में अपने हिस्से का राजस्व वसूलने को स्वतंत्र है।
अंगरेज होल्कर के इस तर्क को स्वीकारने को तैयार न थे। परिणाम, पहले तो होल्कर सरदार जसवंतराव ने सिंधिया के राज्य पर ही हमला कर दिया। इस पर सिंधिया ने अंगरेजी सहायता चाही तो अंगरेजों ने उसे होल्कर के विरूद्ध सहायता उपलब्ध करा दी।
सिंधिया के क्षेत्रों में सफल न होने पर होल्कर ने औरंगाबाद में चैथ संग्रह कर, उज्जैन को लूट जयपुर प्रयाण किया तथा उस पर आक्रमण कर दिया। होल्कर की इच्छा थी कि अंगरेज उससे भी वैसी ही संधि करें, जैसी उन्होंने सिंधिया से की है। किन्तु अंगरेजों ने इसे स्वीकार न कर उसके विरूद्ध सैन्य कार्यवाही का निर्णय लिया।
इससे होल्कर और आक्रामक हो गया। उसने सिंधिया के नगर मंदसौर को लूटा और चंबल पार कर गया। अंगरेजों से होल्कर की कोटा क्षेत्र के अमझार नदी के निकट पीपल्या गांव में पहली लड़ाई हुई जहां कोटा व अंगरेजों की संयुक्त सेना पराजित हुई। अंगरेजों की पराजय से प्रोत्साहित होल्कर ने भरतपुर से मथुरा नगर छीन लिया और दिल्ली छीनने का प्रयास करने लगा। 8 अक्टूबर को जसवंतराव ने दिल्ली को घेर लिया।
जसवंतराव की इस प्रगति से आतंकित अंगरेजी प्रधान सेनापति लार्ड लेक ने 28 अक्टूबर को एक बार फिर कानपुर से दिल्ली की ओर प्रयाण किया। इधर लेक के प्रयाण की सूचना पा होल्कर ने उसे बीच रास्ते में ही मात दे उसके कानपुर मुख्यालय को ही हस्तगत करने की योजना बना अपनी सेनाए गंगा-यमुना के दोआब क्षेत्र में कानपुर की ओर बढ़ा दीं।
होल्कर की सेनाओं द्वारा की गयी क्षति से आहत तथा अंगरेजों से संधि कर चुके एटा के राजा महाराज हिम्मतसिंह ने इसकी सूचना अंगरेजों को देते हुए इस प्रयाण के कारण हुई क्षति की प्रतिपूर्ति की मांग की।
अंततः 17 नवम्बर 1804 को एटा जिले के कादरगंज के निकट दोनों सेनाएं आमने-सामने आयीं। यहां अपनी पूर्व विजयों से उत्साहित होल्कर की रणनीतिक भूल के कारण उसके आक्रमण से पूर्व ही अंगरेजी सेना ने आक्रमण कर दिया। परिणाम, घमासान लड़ाई के बावजूद पहले आक्रमण करने तथा आधिुनिक शस्त्रास्त्रों के होने का लाभ लेते हुए अंगरेजी सेना विजयी हुई। होल्कर की करीब 80 हजार धुड़सवार सेना को पराजय का दंश झेलना पड़ा।
(कादरगंज की पराजय के बाद होल्कर ने भरतपुर राज्य के डींग दुर्ग को केन्द्र बना प्रतिरोध किया किन्तु जब 1 दिसम्बर को लेक ने डींग दुर्ग जा घेरा तो होल्कर वहां से हट भरतपुर आ गया। भरतपुर का वह सुप्रसिद्ध युद्ध जिसमें अंगरेजी सेना को इतनी अधिक मात मिली की भरतपुर का नाम ही लौहगढ़ पड़ गया, वास्तव में होल्कर व भरतपुर नरेश की संयुक्त सेनाओं द्वारा ही लड़ा गया था। होल्कर तब से अपने जीवन पर्यन्त लगातार अंगरेजों से युद्ध करता रहा। अंततः 28 अक्टूबर 1811 में भानपुरा में 30 वर्ष की आयु में इस वीर सेनानी की मृत्यु के बाद ही होल्कर-अंगरेजी सेना का टकराव बंद हो सका।)

एटा जिले का गठन
जनपदीय भूभागों पर अपना अधिकार स्थापित हो जाने के बाद अंगरेजों ने इसे अपने अधिकार से पूर्व की स्थिति में पहले फरूखाबाद, इटावा, अलीगढ़ तथा मथुरा के अधीन ही रहने दिया। हां, मालगुजारी व जमीदारियों का विभाजन करते समय अपने सहयोगियों का खास खयाल रखा।
हिम्मतनगर बझेरा के तत्कालीन राजा हिम्मतसिंह इस काल के प्रमुख स्थानीय शासक प्रतीत होते हैं जो एटा-आगरा मार्ग स्थित हिम्मतपुर गांव से लेकर पटियाली तहसील स्थित हिम्मतनगर बझेरा गांव तक के स्वामी प्रतीत होते हैं। इन्हें हिम्मतनगर बझेरा का 27 गांवों का ताल्लुका ननकार एलाउन्स के रूप में मिला था। अनुश्रुति है कि यह व्यवस्था इस क्षेत्र की मालगुजारी नियमित भेजने के प्रतिफल में उन्हें मराठों द्वारा प्रदान की गयी थी। एटा नगर का वर्तमान गढी लवान नामक अवशेष तथा एटा से करीब 8किमी दूर स्थित हिम्मतनगर बझेरा दुर्ग इनके सामान्य आवासीय ठिकाने थे।
हिम्मतसिंह के अलावा रिजोर नरेश, राजा का रामपुर नरेश, सरावल, पिथनपुर, रूपधनी आदि के जमींदार इस क्षेत्र के नामचीन वंश थे। अवागढ के मात्र 2 गांवों के जमींदार इस काल तक पेरन की सम्पत्ति की नीलामी में 57 गांवों की नीलामी अपने नाम कर जिले की प्रमुख जमीदारी बन चुके थे। कासगंज के समीप छावनी गांव में एक अंगरेज कर्नल गार्डनर की जमींदारी भी स्थापित हो चुकी थी जो यहां गार्डनर हार्सेस के नाम से एक घुड़सवार सेना रखता था।
जनपद के राजवंश
जिले में अत्यन्त सुदीर्घ समय से राजवंश व राजाओं के विवरण मिलते हैं किन्तु ये किस वंश विशेष के थे, यह भारतीय परम्परा के अनुरूप न होने के कारण कभी भी उल्लिखित नहीं किये गये।
जिले के प्राचीन वंशों में हमें चालुक्यों के सोलंकी वंश का विवरण मिलता है। सोरों के बाद इनके बदायूं जिले के बसोमा में स्थापित होने के बाद गोस्वामी तुलसीदास के सम्बन्धी अविनाशराय ब्रहमभट्ट इन्हें तालीपति कहकर संबोधित किया है तथा इस वंश के दो नरेशों के नाम दिये हैं।
एटा गजेटियर के अनुसार यही वंश कालांतर में मोहनपुर में स्थापित हुआ तथा परिस्थितिवश मुसलमान बन गया। नबाव मोहनपुरा इन्हीं सोलंकी शासकों के वंशज थे।
जिले का दूसरा राजवंश राजा का रामपुर राजवंश है। इन्हें कन्नौज नरेश महाराजा जयचंद्र का वंशज माना जाता है।
जिले का अगला प्रमुख राजवंश रिजोर का राजवंश है। इनके इतिहास के अनुसार
इनके अलावा जिले के अवागढ का जादों राजवंश भी प्रमुख राजवंश रहा है।
1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में अंगरेजों को दी सहायता के फलस्वरूप राजा का खिताब पा कर राजवंश बना बिलराम का कायस्थ राजवंश भी है जो कालांतर में कासगंज में शंकरगढ किला बना जिले का प्रमुख राजवंश बने हैं।
इनके अलावा धौलेश्वर के चैहान स्वयं को राजा आदिकरण सिंह का वंशज मान राजवंश होने का दावा करते हैं किन्तु इन्हें न तो राजा का खिताब ही मिला है न ही राजवंश का कोई अधिकार ही प्राप्त रहा है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें