सोमवार, 23 नवंबर 2015

hisyory of etah by- krishnaprabhakar upadhyay

आदितीर्थ श्रीसूकरक्षेत्र
जिले का सर्वाधिक प्राचीन स्थल आदितीर्थ श्रीसूकरक्षेत्र को माना जाता है। एटा मुख्यालय से उत्तर की ओर सड़क मार्ग से करीब 45किमी दूर इस प्राचीन तीर्थ की महत्ता सृष्टि के तीसरे तथा भूमि के प्रथम अवतार श्रीमद्वराह की अवतरण भूमि होने के कारण है।
सूकरक्षेत्र की स्थिति का सर्वाधिक प्रामाणिक विवरण ‘गर्ग संहिता’ में उपलब्ध है। इसमें बहुलाश्व-नारद के मध्य हुए संवाद के माध्यम से (वर्तमान बुलंदशहर जनपद स्थित रामघाट) की स्थिति बतायी गयी है, जहां कृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता बलराम जी द्वारा गंगास्नान किया गया तथा त्रुधों द्वारा जिसे स्थल को तीर्थस्थल की मान्यता दी गयी।
गर्गसंहिता(मथुरा खंड) में इस स्थल का परिचय देते हुए कहा गया है-
कौशाम्बेश्च किमद्दूरं स्थले किस्मान्महामुने
रामतीर्थ महापुण्यं महयं वक्तुव मर्हसि।।
कौशाम्बेश्च तदीशान्या चतुर्योजन मेव च
वायाव्यां सूकरक्षेत्राच्चतुर्योजन मेव च।।
कर्णक्षेत्राश्च षट्कोशेर्नल क्षेत्राश्च पश्चिभः
आग्नेय दिशि राजेन्द्र रामतीर्थ वदंतिहि।।
वृद्धकेशी सिद्धिपीठा विल्वकेशानुत्पुनः
पूर्वास्यां च त्रिभिक्रोशे रामतीर्थ विवुर्वुधा।।
(हे राजेन्द्र, कौशाम्बी (अलीगढ का कोल नामकरण से पूर्व का नाम) से इशान कोण में चार योजन, सूकरक्षेत्र से वायव्य कोण पर चार योजन, कर्णक्षेत्र(वर्तमान बुलंदशहर जनपद स्थित कर्णवास) से छह कोस और नलक्षेत्र (वर्तमान बुलंदशहर जनपद स्थित नरवर या नरौरा)से पांच कोस आग्नेय दिशा में रामतीर्थ की स्थिति बताते हैं। इसके अलावा वृद्धकेशी, सिद्धपीठ व विल्बकेश वन (वर्तमान बुलंदशहर जनपद स्थित बेलोन)से यह क्षेत्र तीन कोस पूर्व दिशा में है।)
सूकरक्षेत्र का विस्तार
सूकरक्षेत्र का विस्तार विभिन्न पुराणों में पंचयोजन विस्तीर्ण मिलता है। यह पांच योजन क्षेत्रफल के रूप में हैं अथवा केन्द्र से प्रत्येक दिशा में, विद्वानों में इस विषय में मतभेद हैं किन्तु सर्वाधिक सटीक अनुमान इस क्षेत्र के क्षेत्रफल के रूप में ही प्रतीत होता है। पंच योजन अर्थात बीस कोस, अर्थात 33मील, अर्थात 53किमी। ‘पद्म पुराण’ में भी सूकरक्षेत्र की यही स्थिति स्वीकारी गयी है- ‘पंचयोजन विस्तीर्णे सूकरे मय मंदिरे’। यदि इस प्रमाण को आधार माना जाय तो कासगंज-अतरौली के मध्य प्रवाहित नींव नदी, कासगंज-एटा के मध्य में प्रवाहित प्राचीन इच्छुमति (काली) नदी तथा वृद्ध गंगा (गंगा की वह धारा जो पहले गंगा की मुख्य धारा थी तथा इस काल तक आते-आते वृद्ध गंगा नाम से पुकारी जाने लगी थी) के मध्य का भाग सूकरक्षेत्र के रूप में माना जा सकता है।
कृतयुगीन जनपद
भारतीय गणना के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के स्वर्गारोहण के बाद कृतयुग या कलियुग का आरम्भ हुआ है। बर्तमान ईसवी सन् से गणना करें तो यह ईसा से 3102 वर्ष पूर्व बैठता है। इस काल के ऐतिहासिक विवरणों के श्रोत पुराण तथा अनुश्रुतियां और सम्पूर्ण जनपद में बिखरी पुरा-सम्पदा ही हैं।
महाभारत युद्ध के उपरान्त विजयी पाण्डवों ने युधिष्ठिर के नेतृत्व में समग्र भारत पर शासन किया। द्रुपदपुत्र धृष्टध्युम्न व उनके वंशज निश्चित रूप से पांडवों से अमने अंतरंग सम्बन्धों के चलते अपने इस पंचाल क्षेत्र के स्थानीय शासक रहे होंगे किन्तु इतिहास में इनके पश्चातवर्ती उल्लेख नहीं मिलते। युधिष्ठिर के पश्चात सम्राट परीक्षित का भारत-सम्राट होना उल्लिखित है। परीक्षित का काल युग-संधि का काल माना जाता है।
जनमेजय का नागयज्ञ और जनपद
पौराणिक विवरणों के अनुसार परीक्षित को अपने अंतिम समय में नागों से संघर्ष करना पड़ा। तक्षक नाग से हुए इस संघर्ष में परीक्षित की मौत होने पर नागों के विरूद्ध उनके पुत्र व अगले भारत सम्राट जनमेजय का क्रोध स्वाभाविक था। उसने नागयज्ञ के माध्यम से नागों के समूल नाश का संकल्प लिया। पौराणिक विवरण हालांकि इस नागयज्ञ का स्थल लाहौर के आसपास स्वीकारती हैं किन्तु अनुश्रुतियां जनपद के सुप्रसिद्ध पुरावशेष अतरंजीखेड़, एटा-शिकोहाबाद मार्ग स्थित ग्राम पाढम (पूर्वनाम वर्धन या पांडुवर्धन) आदि को भी नागयज्ञ के स्थलों के रूप में स्वीकारती हैं। (पाढम से कुछ ही दूरी पर स्थित दूसरे पुरावशेष रिजोर में करकोटक नाग के नाम पर करकोटक ताल व करकोटक मंदिर होने से संभव है कि नागों की करकोटक जाति के विरूद्ध अभियान इस क्षेत्र में भी चलाया गया हो तथा इसके केन्द्र अतरंजीखेड़ा व पाढम आदि रहे हों।)
जनमेजय की सोरों यात्रा
गर्गसंहिता के मथुराखंड के विवरण तत्कालीन भारतसम्राट जनमेजय का अपने आचार्य श्री श्रीप्रसाद के निर्देशों के अनुसार अपने पूर्वजों के श्राद्धकर्म व तर्पण हेतु सूकरक्षेत्र आना तथा यहां एक मास रहना स्वीकारते हैं-
कौरवाणां कुले राजा परीक्षिदित विश्रुतः
तस्य पुत्रेित तेजस्वी विख्यातो जनमेजयः।48।
ततस्वाचत्य्र्य वर्यस्य श्री प्रसादस्य चाज्ञाया
गमन्ना सूकरक्षेत्रं मासमेकं स्थितोर्भवत्।51।
सोलंकी (चालुक्य) वंश और सोरों
सूकरक्षेत्र को चालुक्य वंश की उद्भव भूमि भी माना जाता है। ‘चालुक्य वंश प्रदीप’ के अलावा विक्रमांक चरित जैसी कृतियां, चालुक्यों के प्राचीन शिलालेखों पर अंकित विवरण तथा क्षत्रियों की वंशावली आदि के विवरणों से ध्वनित होता है कि चालुक्य के आदि पुरूष माण्डव हारीति की आरम्भिक गतिविधियों का केन्द्र यही सूकरक्षेत्र ही रहा है।
चालुक्य वंश की गणना क्षत्रियों के 36 राजवंशों में की जाती है। अनुश्रुतियां व कतिपय ऐतिहासिक प्रमाण इनका मूल स्थान सोरों स्वीकारते हैं। इस वंश का मूल पुरूष माण्डव्य हारीति को माना जाता है। पुलकेशियन द्वितीय के शिलालेख के अनुसार- मानव्यसगोत्राणां हारितिपुत्राणां चालुक्यानामन्ववाये...।
कवि चंदबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो तथा इन अनुश्रुतियों के अनुसार राष्ट्र में क्षत्रिय वंश का क्षरण होने पर ऋषियों ने राजस्थान के आबू पर्वत पर एक यज्ञ कर अग्निवंश नाम से एक नवीन वंश की रचना की। चैहान, चालुक्य, परमार व प्रतिहार नामों से कालांतर में इतिहास-प्रसिद्ध हुए इन चारों वंशों में चालुक्य वंश के आदिपुरूष माण्डव्य हारीति क्षत्रिय वर्ण में दीक्षित होने के बाद तपश्चर्या के लिए सूकरक्षेत्र में आये।
चालुक्य वंश प्रदीप के अनुसार ऋषि हारीति ने यहां गंगाजल का चुलूकपान (चुल्लू में भरकर गंगाजल पान) करने के कारण जनसामान्य में चुल्लूक या चालुक्य नाम पाया। (सूकरक्षेत्र में सोरों के समीप चुलकिया स्थल इसी के साक्षी स्वरूप माना जाता है।) उसने बदरी नामक ग्राम में सत्संग किया तथा चुलूक में जलपान करने के कारण चुलूक या चैलक कहलाया। उल्लिखित बदरी ग्राम आज का बदरिया ग्राम है जो सोरों के दूसरे किनारे पर है। यहीं सोलहवीं सदी में गोस्वामी तुलसीदास जी की ससुराल थी जहां अचानक पहुंच जाने से पत्नी से मिली प्रताड़ना उनके सिद्ध संत बनने का हेतु बनी।
यहां वे पांचाल के तत्कालीन नरेश शशिशेखर की दृष्टि में आये जिन्होंने उनकी वीरता से मोहित हो अपनी बेटी वीरमती को उनके साथ ब्याह दिया। पांचाल नरेश के पुत्र न होने के कारण उनके उपरान्त हारीति ही पंचाल नरेश भी बने। पं0 विश्वेश्वरनाथ रेउ द्वारा लिखित राष्ट्रकूटों का इतिहास में भी इसका उल्लेख किया गया है। उनके अनुसार- सोलंकी राजा त्रिलोचनपाल के शक संवत 972/ वि0सं0 1107 के ताम्रपत्र से प्रकट होता है कि सोलंकियों के मूलपुरूष चालुक्य का विवाह कन्नौज के राष्ट्रकूट राजा की कन्या से हुआ था। इससे ज्ञात होता है कि राष्ट्रकूटों का राज्य पहले भी कन्नौज में रहा था।
हारीति के पुत्र बेन को उत्तरभारत के सर्वाधिक विस्त्त एवं प्राचीन अतरंजीखेड़ा के समुन्नत नगर का संस्थापक तथा चक्रवर्ती सम्राट माना जाता है। बघेला के अनुसार हारीति के बेन के अतरिक्त 10 अन्य पुत्र थे। हारीतिदेव ने राज्यविस्तार किया तथा अनलपुर दुर्ग की स्थापना की। उन्होंने मगध, पाटलिपुत्र अंग, कलिंग, बंगाल, कन्नौज, अवध व प्रयाग आदि को विजित किया। इसके उपरान्त बेन को राज्य पर अधिष्ठित करके स्वयं तपस्या करने प्रस्थान किया।
बैन ने कालीनदी के किनारे अतिरंजीपुर नामक नगर बसाया तथा दुर्ग का भी निर्माण कराया। बैन की पताका पर गंगा-यमुना तथा वराह अंकित थे। रखालदास वंद्योपाध्याय कृत प्राचीन मुद्रा के प्र0 277 में चालुक्यवंशी राजाओं के सिक्कों पर चालुक्य वंश का चिहन वराह अंकित होना बताया है।
चालुक्य वंश प्रदीप बैन के सात विवाहों से 32 पुत्रों की उत्पत्ति मानता है। इनमें बड़े सोनमति राज्य के अधिपति बने। इन्होंने सोन नाम से अनेक नगरों को बसाया। सोनहार पुरसोन/परसोन, सोनगिरि/सोंगरा आदि सोनमति द्वारा स्थापित माने जाते हैं। सोनमति के बाद कृमशः भौमदेव, अजितदेव, नृसिंहदेव, व अजयदेव इस वंश के वे शासक हुए जिन्होंने अतिरंजीपुर राजधानी से शासन किया।
चालुक्य वंश प्रदीप के विवरणों के अनुसार इस क्षेत्र में इस वंश के कुछ समय शासन करने के बाद निर्बल होने अथवा नवीन क्षेत्रों की विजय करने के फलस्वरूप यह वंश अजयदेव के काल में अयोध्या स्थानांतरित हो गया। यहां इस वंश ने 59 पीढी तक शासन किया। इसके बाद यह वंश निर्बल हो गया तथा इनसे अयोध्या की सत्ता छिन गयी। इनकी एक शाखा दक्षिण चली गयी जहां इस वंश के तैलप नामक राजा ने 973ई0 में अपनी वीरता से कर्नाटक प्रदेश के कुन्तल को राजधानी बनाया। बाद में यह एक साम्राज्य स्थापित करने में सफल रही। नवीं सदी में इसकी एक शाखा पुनः अपने उद्भवक्षेत्र लौटी और यहां शासन किया।(विस्तृत विवरण जनपद के राजवंश शीर्षक में देखें)।
गंगा के कांठे में बाढ से नष्ट हुई पांचाली सभ्यता
अतरंजीखेड़ा सहित कालीनदी से लेकर गंगा तक के क्षेत्र के एक लम्बे समय तक बाढ़ में डूबे होने के संकेत जिले के अतरंजीखेड़ा, जखेड़ा से लेकर बुलंदशहर के इंदौरखेडा आदि प्राचीन पुरावशेषों के कार्बन परीक्षण बताते हैं कि यह क्षेत्र एक लम्बे समय तक जलमग्नक्षेत्र रहा है।
पौराणिक विवरणों में भी उल्लिखित है कि जनमेजय की चैथी/छटी पीढ़ी के शासक निचक्षु के शासनकाल में हस्तिनापुर में गंगा के काठे की नदियों द्वारा अपना मार्ग बदलने के कारण हुए जलप्लावन में हस्तिनापुर बाढ में डूब गया तथा निचक्षु को अपनी राजधानी प्रयाग के समीप कौशाम्बी में स्थांतरित करनी पड़ी। यहीं से पांडव वंश और प्राचीन पांचाल वंश शनै-शनै पराभूत होने लगे। अब अवन्ती के शासक प्रद्योत व उसकी राजधानी उज्जैन, वत्स का शासक उदयन व राजधानी कौशाम्बी आदि प्रमुखता प्राप्त करने लग,े जबकि प्रथम स्थान पर रहनेवाला पांचाल दसवें स्थान पर आ गया।
भगवान बुद्ध और जनपद
भगवान बुद्ध के समय देश के 16 महाजनपदों में बंटे होने के विवरण मिलते हैं। इनमें एटा जिले का अधिकांश भूभाग(जलेसर क्षेत्र को छोड़कर) पांचाल महाजनपद के अंतर्गत था। इस काल में बेरन्जा(अतरंजीखेडा), बौंदर, बिल्सढ, पिपरगवां के अलावा वर्तमान जनपद फरूखाबाद के काम्पिल्य तथा संकिसा आदि इस क्षेत्र के प्रमुख नगरों के रूप में प्रतीत होते हैं। सोरों इस काल में एक ऐसा प्रमुख तीर्थस्थल है जहां के आचार्य एक बौद्ध धर्मसभा की अध्यक्षता करते पाये जाते हैं। (पटियाली को राजा द्रुपद की रानी/दासी पटिया द्वारा स्थापित किये जाने तथा इस काल की कई ऐतिहासिक घटनाओं का स्थल होने के बावजूद बुद्ध के काल में प्रमुखता नहीं दिखती।)
भगवान बुद्ध का जनपद आगमन
बुद्ध अपने जीवनकाल मंे प्रथम बार अपना बारहवां वर्षावास बिताने जिले में आये। इसे बौद्ध साहित्य में बेरंजा कहा गया है। (कनिघम आदि पुरावेत्ता बेरंजा को ही वर्तमान अतरंजीखेड़ा स्वीकारते हैं)। इस काल में यहां वैदिक नरेश अग्निदत्त शर्मा का शासन था। बौद्ध साहित्य के विवरण बताते हैं कि नरेश के बौद्ध विरोधी होने के कारण तथा इसी समय राज्य के दुभिक्ष के शिकार होने के कारण अपने वर्षावास में बुद्ध को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
भगवान बुद्ध का जनपद में द्वितीय प्रवास मथुरा से प्रयाग जाते समय हुआ। उस समय सौरेय्य(सोरों, संकरस(संकिसा) व कान्यकुब्ज होते हुए ही आवागमन की व्यवस्था थी। बुद्ध भी इसी मार्ग से धर्मोपदेश देते हुए प्रयाग गये।
सूकरक्षेत्र पर बुद्धधर्म का प्रभाव
आचार्य वेदवृत शास्त्री आदि विद्वानों के मतानुसार बौद्ध धर्म के महायान पंथ में प्रचलित वराहदेव व वराहीदेवी की पूजा इसी सूकरक्षेत्र के बौद्ध धर्म पर प्रभाव के कारण है।
सोरों के भिक्षु द्वारा धर्मसभा की अध्यक्षता
ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्ध के समय में ही बौद्ध धर्म का इस क्षेत्र में खासा प्रभाव हो गया था। बेरन्जा विहार के अलावा सौरेय्य विहार इस क्षेत्र के प्रमुख बौद्ध विहार थे। सौरेय्य विहार के भिक्षु रेवत द्वारा भगवान बुद्ध के स्वर्गारोहण के सौ वर्ष पश्चात हरिद्वार में आयोजित एक धर्मसभा की अध्यक्षता किये जाने के विवरण यह प्रमाणित करते हैं कि इस काल में इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म का काफी प्रभाव था तथा यहां के बौद्ध भिक्षु बौद्ध समाज में सम्मानजनक स्थान रखते थे।
महावीर स्वामी और जनपद
जैन धर्म के चैबीसवें तीर्थंकर महावीर भी बुद्ध के समकालीन थे। जैन पंथ हालांकि बौद्धों की तरह तो व्यापक नहीं हुआ किन्तु जैन ग्रन्थों में जनपद के कु्रछ स्थलों के नामोल्लेख (विशेषतः ब्रहदकथा कोष में उल्लिखित पिपरगांव को एटा जिले की अलीगंज तहसील स्थित वर्तमान पीपरगांव मानते हैं) तथा बौदर के तत्कालीन शासक मोरध्वज का जैन मताबलम्बी माना जाना स्पष्ट करता है कि जिले में जैन प्रभाव भी कम न था।
जैनमत के 13वें तीर्थंकर विमलनाथ का तो जन्मस्थल ही प्राचीन पंचाल राज्य की राजधानी कंपिल रहा है।
शक, हूण आक्रमण और जनपद
बुद्ध के स्वर्गारोहण के उपरान्त विक्रम पूर्व चैथी शताब्दी तक बौद्ध धर्म भारतीय भूमि पर तेजी से फैला। यहां तक कि बड़े-बड़े शक्तिशाली साम्राज्यों के शासक भी इस धर्म में दीक्षित हुए। इसके प्रभाव से जिला भी अछूता न रहा।
543 विक्रमपूर्व (600ई0पू0) में इस भूभाग के मगध शासक शिशुनाग व रिपुंजय द्वारा शासित होने, 490-438 विक्रमपूर्व में बिम्वसार, 438-405वि0पू0 में अजातशत्रु, फिर दार्षक द्वारा शाषित होने के उल्लेख हैं। 288वि0पू0 में तत्कालीन शासक शासक कालाशोक का वध कर उग्रसेन (नंदवंश के संस्थापक) द्वारा राज्य छीन लेने के बाद यहां नंदवंश तथा इस वंश के अंतिम शासक धननन्द को कौटिल्य की प्रेरणा से 265वि0पू0 में चंद्रगुप्त मौर्य के अधीन होने तक पांचाल के गणतंत्रात्मक पद्वति से शासित महाजनपद के रूप मंे उल्लेख मिलते हैं। यहां का राजा निर्वाचित राजप्रमुख होता था।
शंुगवंश
241-215विपू0 तक विन्दुसार तथा 216-175 तक सम्राट अशोक का शासनकाल माना जाता है। अशोक के बौद्धधर्म ग्रहण करने से कालांतर में मौर्य कुल शूरवीरता में दुर्बल हो गया और 128 वि0पू0 में सेनापति पुष्यमित्र द्वारा मौर्य बृहद्रथ का वध कर शासन पर अपना अधिकार कर लिया गया यह आगे चलकर अग्निवंश के नाम से विख्यात हुआ। प्रतीत होता है कि इस सम्पूर्ण काल में यह क्षेत्र स्वायत्तशासी राज्य की भांति था। शंुगकाल में बेरंजा एक प्रमुख नगर प्रतीत होता है जहां से मथुरा से श्रावस्ती जानेवाला व्यापारिक मार्ग गुजरता था।
शक, हूण आदि अनेक विदेशी जातियों के आक्रमण यूं तो मौर्य काल से ही होने लगे थे। पुष्यमित्र के बृहद्रथ वध का तात्कालिक कारण भी ऐसे विदेशी आक्रमण क समय अपने बौद्ध प्रभाव के चलते उचित प्रतिकार को उत्सुक न होना था किन्तु पुष्यमित्र व उसके निर्बल उत्तराधिकारियों के शासन में तो इन आक्रमणों की बाढ ही आ गयी। स्वयं पुष्यमित्र के समय में ही (103 वि0पू0 में) मैलेण्डर ने मथुरा तक का क्षेत्र अपने अधीन कर इस भूभाग पर अपना शासन स्थापित कर लिया था। यवनों के डिमेट्रियस नामक नरेश ने प0 पंजाब तक अपनी शक्ति बढा लेने के बाद मथुरा, माध्यमिका(चित्तोड़ के समीप) और साकेत(अयोध्या) तक आक्रमण किये। गार्गी संहिता के युगपुराण में यवनों द्वारा साकेत, पांचाल और मथुरा पर अधिकार करके कुसुमध्वज (पाटलिपुत्र) पहुंचने के विवरण मिलते हैं।
मित्रवंश
प्रतीत होता है कि यवनों का आक्रमण तो भारत मं काफी दूर तक हुआ तथा इस कारण जनता में कुछ समय घवड़ाहट भी रही किन्तु कतिपय कारणोंवश उनकी सत्ता मध्यदेश में जम नहीं सकी और उन्हें उत्तर-पश्चिम की ओर भागना पड़ा।
मित्रवंश कोई नवीन वंश नहीं, सेनापति पुष्यमित्र के उत्तराधिकारियांे की शाखा है। यद्धपि 100ई0पू0 के आसपास शुगवंश की प्रधान शाखा का अंत हो गया किन्तु उसकी अन्य शाखाएं बाद में भी शासन करती रहीं। इन शाखाओं के केन्द्र मथुरा, अहिच्छत्रा, विदिशा, अयोध्या तथा कौशांबी थे। जिले का जलेसर तक का भूभाग मथुरा शाखा के जबकि शेष भाग अहिच्छत्रा के मित्र शासकों के अधीन था। मथुरा से प्राप्त सिक्कों से इन शासकों के नाम- गोमित्र, ब्रहममित्र, दृढमित्र, सूर्यमित्र, विष्णुमित्र आदि मिले हैं तो अहिच्छत्रा के शासकों में ब्रहस्पतिमित्र जैसे नाम आते हैं।
पुनः शक शासन
प्रतीत होता है कि शुंगवंश के कमजोर पड़ते ही पुनः शकों की घुसपैठ इस क्षेत्र में आरम्भ हो गयी। आरम्भ में इन्होंने तक्षशिला से शासन किया किन्तु शीघ्र ही इसकी दूसरी शाखा का मथुरा पर तथा तीसरी शाखा का काठियावाड़, गुजरात व मालवा पर शासन हो गया। मथुरा के प्रारम्भिक शासकों क नाम हगान व हगामष मिलते हैं तथा उपाधि क्षत्रप। इनके बाद राजुबल मथुरा का शासक बना तथा ईपू0 80-57 के मध्य राजबुल का पुत्र शोडास राज्य का अधिकारी हुआ।
विक्रमादित्य
भारतीय इतिहास के प्रमुख पुरूष उज्जैनी नरेश सम्राट विक्रमादित्य (भले ही आधुनिक इतिहासकार उन्हें इतिहास पुरूष न मानें) इस काल के प्रमुख पुरूष हैं। सम्राट व्क्रिमादित्य के काल में ही प्रथम बार भारतीय संस्कृति का सुदूर अरब तक प्रचार-प्रसार होने के उल्लेख मिलते हैं। इसी काल में विराट हिन्दू धर्म ने अपनी बाहें प्रसार प्रथम बार उन विदेशियों को अपने में आत्मसात किया जो उनके शक, हूण आदि विदेशियों को भारत से मार भगाने के बाबजूद भारत में रह गये थे।
विक्रम संवत् 7(50ई0पू0) में एटा जनपद सहित यह समस्त भूभाग कुषाण वंशीय शासकों के अधीन था। कुषाण, कनिष्क, वशिष्क, हुविष्क व वासुदेव आदि शासक मथुरा को केन्द्र बना इस क्षेत्र पर अपना शासन करते थे। विक्रमादित्य के रूप में उज्जैन में जन्मे इस सम्राट ने इन्हें न सिर्फ यहां से अपदस्थ ही किया बरन भारत से भागने को भी विवश किया। इस घटना की स्मृति में सम्राट ने अपने नाम से नये विक्रम संवत् नाम के गणनावर्ष का आरम्भ कराया। किन्तु विक्रमादित्य के उत्तराधिकारी उन जैसे योग्य न हुए।
157 विक्रमी के आसपास शकों का एक अन्य आक्रमण हुआ जिसमें शक क्षत्रप राजुबल ने मथुरा पर अधिकार कर लिया। इसे शालिवाहन ने भारतीय सीमा से बाहर खदेड़ा। तथा इस अवसर पर शक संवत् नाम से एक नया गणनावर्ष आरम्भ किया। इन्हें सातवाहनों ने अपदस्थ कर 282 विक्रमी तक शासन किया।
दत्तवंश
उज्जयनी में शकों को मिली करारी पराजय से मथुरा का शक राज्य भी छिन्न भिन्न हो गया। मथुरा व आसपास मिले सिक्कों से अनुमान है कि इसके बाद यहां पुरुषदत्त, उत्तमदत्त, रामदत्त, कामदत्त, शेषदत्त तथा बलभूति नामधारी दत्तवंश के शासकों का का शासन रहा।
कुषाणवंश
ईसवी सन के प्रारम्भ से शकों की कुषाण नामक एक शाखा का प्राबल्य हुआ। इनका पहला शक्तिशाली सरदार कुजुल हुआ। लगभग 40 से 77 ईसवी के मध्य शासक बने विम तक्षम(विम कैडफाइसिस) के सिक्के पंजाब से बनारस तक मिलने से अनुमान है कि इसके काल में यह क्षेत्र कुषाणों के अधिकार में आ चुका था। विम के बाद उसका उत्तराधिकारी कनिष्क हुआ। एक मत के विद्वानों की मान्यता है कि इसी ने अपने राज्यारोहण पर एक नया संवत चलाया जिसे शक संवत के नाम से जाना जाता है।(जबकि विद्वानों के दूसरे मत का मानना है कि शक संवत की शुरूआत शालिवाहन द्वारा शकों को भारत से भगाने के अवसर पर हुई है।)। कनिष्क के बाद 106-138 ई0 तक हुविष्क, 138-176ई0 तक वासुदेव प्रथम का शासन माना जाता है। यह कुषाणवंश का अंतिम शक्तिशाली शासक था। इसके बाद कनिष्क द्वितीय व तृतीय व वासुदव द्वितीय जैसे नाम मिलते तो हैं किन्तु प्रतीत होता है कि वे प्रभावी शासक न थे।
नागवंश
विक्रम के 257वें वर्ष में पद्मावति के नागों ने कुषाण राजाओं के अंतिम अवशेष भी हटा, इस भूभाग पर अपना शासन स्थापित कर लिया। वीरसेन इस वंश का प्रमुख तथा विख्यात शासक था। इस वंश के अंतिम नरेश अच्युत को 377 वि0 में चंद्रगुप्त ने सोरों के समर में परास्त कर यह सम्पूर्ण भूभाग नागों से छीन लिया। हालांकि स्थानीय क्षेत्रों में इनका शासन 407वि0 तक चलता रहा।
गुप्तवंश
विल्सढ़ में उपलब्ध गुप्तकाल के 96वें वर्ष के कुमारगुप्त के अभिलेख से प्रतीत होता है कि यह क्षेत्र गुप्तवंश के काल में विल्सढ केन्द्र से संचालित था। गुप्तवंश के चंन्द्रगुप्त के अधिकार के बाद चंद्रगुप्त (377वि0-392वि0), के काल में तो उनके अधीन रहा ही, उनके उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त (392वि0-432वि0), चंद्रगुप्त द्वितीय (432वि0-471वि0), कुमारगुप्त (470वि0-512वि0) तथा स्कन्धगुप्त (512वि0-524वि0) के काल में भी गुप्त साम्राज्य के अधीन रहा। यहां मिले समुद्रगुप्त के समय के सिक्के तथा सोरों में प्राप्त गुप्तकालीन अवशेष इसकी पुष्टि करनेवाले हैं।
(गुप्तवंश का अंतिम शासक बुधगुप्त था जिसकी अंतिम ज्ञात तिथि 176 गुप्त संवत अर्थात 495ई है। यह उसकी एक रजतमुद्रा पर मिली है।- प्राचीन भारत का इतिहास, ले0 श्रीराम गोयल, प्र017)। बुधगुप्त के पश्चात वैन्यगुप्त, भानुगुप्त व नरसिंह गुप्त व बालादित्य गुप्त भी गुप्तवंश के शासक माने जाते हैं। प्रतीत होता है कि यह नाममात्र के सम्राट ही रह गये थे।
जनपद में गुप्त साम्राज्य और हूण
यूं तो हूणों के आक्रमण गुप्त सम्राट स्कन्धगुप्त के समय से ही (522वि0 के आसपास) होने प्रारम्भ हो गये थे परन्तु छटी शती तक आते-आते हूण इतने प्रबल हो गये कि गुप्त साम्राज्य ही विध्वस्त हो गया। छटी शताब्दी ई0 के प्रारम्भ में गुप्त साम्राज्य पर सफल आक्रमण करने का श्रेय तोरमाण को प्राप्त है। तोरमाण हूण जातीय था। ये पंजाब से आक्रमण कर सिंधु-गंगा की घाटियों को जोड़नेवाले दिल्ली-कुरूक्षेत्र मार्ग से घुसकर अंतर्वेदी (जनपद सहित इस क्षेत्र का प्राचीन नाम) पर धावा बोलते थे और सीधे बिहार और बंगाल तक पहुंचने की चेष्टा करते थे।
तोरमाण ने 500 और 510ई0 के मध्य पंजाब और अंतर्वेदी को जीत लिया। तोरमाण से सर्वप्रथम भानुगुप्त का संघर्ष हुआ। इसमें भानुगुप्त को पराजित होना पड़ा। दूसरी ओर प्रकाश धर्मा ने तोरमाण को परास्त कर दिया। तोरमाण के पश्चात मिहिरकुल हूणों का शासक बना जिसके शासन में पंजाब के अतिरिक्त गंगा की सम्पूर्ण घाटी थी और स्वयं गुप्त सम्राट बालादित्य(नरसिंहगुप्त बालादित्य) उसे कर देता था।(प्राचीन भारत का इतिहास -श्रीराम गोलय के प्र0 20 तथा 36 पर अंकित शुआन-च्वांग का साक्ष्य)।
मिहिर कुल 527ई0 में ग्वालियर तक के भूभाग का शासक था। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि वह स्वयं संकटों से घिर चुका था और गुप्त शासक नरसिंह बालादित्य ने उसे कठिनाई में फंसा देख एक बार पुनः गुप्त साम्राज्य को स्वाधीन घोषित कर दिया था। अंततः बालादित्य ने अपनी खोई प्रतिष्ठा की वापसी के सफल प्रयास किये तथा अपनी संगठित सेना द्वारा हुणों को पराजित कर मार भगाया। श्रीत्रेषु गंगाघ्र्वान शिलालेख बताता है कि गुप्त साम्राज्य ने हूणों को अंतिम शिकस्त सोरों की भूमि पर ही दी थी।
मौखरिवंश
समय के साथ गुप्तों का प्रभाव क्षीण और फिर छिन्नभिन्न हुआ तो इस भूभाग पर कन्नौज के मौखरिवंश का अधिकार हो गया। मौखरिवंश के हरिवर्मन, आदित्यवर्मन, ईश्वरवर्मन, ईशानवर्मन, शर्ववर्मन, अवन्तिवर्मन व गृहवर्मन ने इस भूभाग पर 597वि0 से 663वि0 तक शासन किया।
मालवा-बंगाल के नरेशों से राज्यवर्धन का युद्ध
कन्नौज के अंतिम मौखरि नरेश गृहवर्मन का विवाह थानेश्वर के शासक प्रभाकरवर्धन की पुत्री राज्यश्री के साथ हुआ था। गृहवर्मन की मालवा नरेश देवगुप्त से पुरानी अनबन थी। इसमें एकाकी सफल होने की संभावना न देख देवगुप्त ने बंगाल के शासक शशांक की सहायता ले कन्नौज पर आक्रमण कर गृहवर्मन को मार अपना अधिकार कर लिया। गृहवर्मन की पत्नी राज्यश्री को कारागार में डाल दिया गया। इस घटना के समाचार थानेश्वर पहुंचे तो प्रभाकर का पुत्र राज्यवर्धन सेना सहित अपनी बहिन की सहायता के लिए आया।
इधर राज्यवर्धन के आगमन का समाचार सुन देवगुप्त व शशांक की संयुक्त सेना ने कन्नौज से आगे बढ़ उसे सोरों के समीप घेर लिया। यहां हुए भीषण युद्ध में राजयवर्धन मारा गया। इस आक्रमण के कारण कन्नौज में फैली उत्तेजना का लाभ उठा राज्यवर्धन की बहिन राज्यश्री भी कारागार से मुक्त हो अपने भाई की सहायता के प्रयास करने में लग गयी थी। किन्तु भाई की मृत्यु की सूचना मिलते ही राज्यश्री ने भी मृत्यु का वरण करने का संकल्प कर लिया।
सोरों में हर्षवर्धन, कन्नौज की विजय
राज्यवर्धन की मृत्यु का समाचार थानेश्वर पहुंचने पर उसका 16 वर्षीय भाई हर्षवर्धन एक विशाल सेना लेकर सोरों आ पहुंचा। यहां उसका देवगुप्त से एक भीषण युद्ध हुआ जिसमें हर्षवर्धन ने देवगुप्त को मार डाला। देवगुप्त की मौत के बाद हर्ष ने द्रुतगति से बढकर कन्नौज पर अधिकार कर लिया। आरम्भ में हर्षवर्धन ने अपनी बहिन की ओर से कन्नौज का शासन संभाला। पिता की मृतयु के उपरान्त हर्ष थानेश्वर का राजा बना परन्तु थानेश्वर से दोनों राज्य संभालना संभव न जान हर्ष ने कन्नौज को ही अपनी राजधानी बना लिया। थानेश्वर व कन्नौज की सम्मिलित सेना के बल पर हर्ष एक विशाल साम्राज्य की स्थापना करने में सफल रहा।
हर्षवर्धन के समय में आये चीनी यात्री युवान-च्वांग ने मथुरा से नेपाल तक के राज्यों का वर्णन किया है। इस वर्णन में एक राज्य पी-लो-शन-न भी आता है। इतिहासकार इस राज्य को वीरसाण(वर्तमान विल्सढ) मानते हैं। दूसरा राज्य किया-पी-त (कपित्थ) है जिसके बारे में अनुमान किया जाता है कि यह फरूखाबाद जिले का कंपिल या संकिसा था। ये दोनों राज्य हर्षवर्धन के अधिकार में थे (प्रा0भा0 का इति0- श्रीराम गोयल प्र0241)।
वर्धनवंश
हर्षवर्धन ने 754वि0 तक शासन किया। हर्षवर्धन के बाद यशोवर्धन (कन्नौज के इतिहास के अनुसार अर्जुन व आदित्यसेन भी) इस भूभाग के शासक रहे।
809वि0 में कश्मीर नरेश ललितादित्य ने यशोवर्धन(इसे वर्धनवंश से प्रथक वर्मन वंश का भी माना जाता है।) को पराजित कर कन्नौज को अपने अधिकार में कर लिया। ललितादित्य ने 827वि0 तक शासन किया। कल्हण कृत राजतरंगिणी क अनुसार- यह महाराज पूर्व में अन्तर्वेदी (जनपद सहित गंगा-यमुना के मध्य का भाग जिसे मुस्लिम शासनकाल में दोआब भी कहा गया) की ओर बढ़ा और गाधिपुर (कन्नौज का प्राचीन नाम) मं घुसकर भय उत्पन्न कर दिया। क्षणमात्र में ही ललितादित्य ने यशोवर्मन की विशाल सेना को नष्ट कर विजय प्राप्त की। दोनों ही सम्राटों में सन्धि हो गयी। इस प्रकार यशोवर्मन क प्रताप और प्रभाव को ललितादित्य ने मूलतः नष्ट कर दिया। पराजित राजा के राज्य से कान्यकुब्ज देश (यमुनापार से कालीनदी तक का क्षेत्र) ललितादित्य के अधिकार में चला गया।
महाकवि भवभूति यशोवर्मन के शासनकाल के रत्न थे। यशोवर्मन के पश्चात आमराज, दुन्दुक, और भोज नामधारी तीन राजाओं के नाम और मिलते हैं जिनके 752 से 770ई0 तक शासन करने के उल्लेख प्राप्त हैं। इसके उपरान्त बज्रायुध (827वि0-840वि0), इन्द्रायुध (840वि0-841वि0) व चंद्रायुध (841वि0-867वि0) इस भूभाग के शासक बने।
इन्द्रायुध के समय में 840 से 842वि0 में उत्तर भारत में एक त्रिकोणात्मक युद्ध हुआ जिसका कारण कन्नौज पर अधिकार पाने की तत्कालीन 3 शक्तियों की अभिलाषा ही प्रमुख थी। पहली पाली में प्रतिहार शासकों व पाल शासक में युद्ध हुआ इसमं वत्सराज ने गौड शासक का पराजित किया। इसके बाद राष्ट्रकूट ध्रुव बढ़ा जिसने वत्सराज से युद्ध कर विजय पायी। ध्रुव के संजन ताम्रपट्ट के अनुसार- गंगा-यमुनर्योमध्ये राज्ञो गौडस्य नश्यतः। लक्ष्मी-लीलारविन्दनि-क्षेतक्षत्राणि यो5हरत्।। ध्रुव का कुछ समय को कन्नौज पर अधिकार तो हुआ किन्तु वह यहां अधिक समय तक न ठहर सका। फलतः पहले इन्द्रायुध, फिर चंद्रायुध कन्नौज का शासक बना रहा।
इसमें चक्रायुध को गौड नरेश धर्मपाल के अधीनस्थ शासक के रूप में माना जाता है। नारायणपाल के ताम्रलेख के अनुसार- जित्वेन्द्र-राज प्रभृतीन अरातिन उपार्जिता येन महोदयश्रीः दत्तः पुनः सा वालिन आर्थइत्रे चक्रायुध्य आनति वामनाय।। इस लेख में चक्रायुध का पुराणवर्णित वामन के समान याचक बताया गया है।
चक्रायुध के राज्याभिषेक के कुछ समय बाद दक्षिण क राष्ट्रकूट राजा गोविन्द-3 ने 864वि0 क लगभग चक्रायुध व उसके संरक्षक धर्मपाल पर आक्रमण कर दिया। गोविन्द की सैन्य शक्ति के समक्ष दोनों ने समर्पण किया किन्तु गोविन्द के दक्षिण लौट जाने पर चक्रायुध ही एक बार पुनः कन्नौज नरेश बना। इस पूरे कार्यकाल में एटा जनपद या तो कन्नौज के अधीन रहा अथवा विभिन्न शक्तियों के मध्य युद्धभूमि बना रहा।
गूर्जर-प्रतिहार
867 विक्रमी में यह क्षेत्र गुर्जर प्रतिहार वंश के अधिकार में चजा गया। अनुमान है कि ये प्रारम्भिक अवस्था में चालुक्यों तत्पश्चात राष्ट्रकूटों के सामन्त थे। इस वंश की दो शाखाओं में से नागभट्ट प्रथम वंश के नागभट्ट (नागभट्ट द्वितीय) ने 872वि0 के लगभग चंद्रायुध को परास्त कर कान्यकुब्ज राज्य छीन लिया। तथा अपनी राजधानी उज्जैनी से हटा कन्नौज बना ली। इस वंश में रामभद्र (890वि0-897वि0), और अपने आरम्भिक वर्षों में मिहिरभोज (377वि0-392वि0) इस क्षेत्र के शासक रहे। इनके अलावा महेन्द्रपाल तथा महीपाल भी इस वंश के प्रतापी शासक थे। इस वंश में महेन्द्रपाल, भोज द्वितीय, महीपाल या विनायकपाल प्रथम, महेन्द्रपाल द्वितीय, देवपाल, विनायकपाल द्वितीय, विजयपाल, राज्यपाल व त्रिलोचनपाल तथा यशपाल भी शासक रहे हैं किन्तु एटा जिले के भूभाग संभवतः इनके अधिकार क्षेत्र में न होकर चालुक्य व राष्ट्रकूटों के अधिीन थे।
मिहिरभोज को भोजदेव प्रथम भी कहा जाता है। यह भगवान वराह के अनन्य भक्त प्रतीत होते हैं। मान्यता है कि विद्वानों ने इन्हें सूकरक्षेत्र में आयोजित महाविजयोपलक्ष यज्ञ में इन्हें आदिवराह की उपाधि प्रदान की थी जिसका अंकन इनके काल के पुराविदों कोे प्राप्त हुए सिक्कों पर उपलब्ध है।
चालुक्य व राष्ट्रकूट वंश
इस काल में जनपद में ही जन्मे किन्तु परिस्थिति के चलते पहले अयोध्या फिर दक्षिण में गुजरात जा बसे जनपद के ही राजवंश चालुक्यवंश की एक शाखा के सोमदत्त सोलंकी ने इस आदि वराह के भक्त भोजदेव को परास्त कर अपनी उद्गम भूमि के अमापुर व उतरना तक के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। (यह इस क्षेत्र में राष्ट्रकूटों के सहायक के रूप में आये अथवा स्वतंत्र रूप में इस विषय में विद्वानों में काफी विमत हैं)। सोमदत्त सोलंकी के पूर्वज बेन द्वारा ही सोरों, अतरंजीखेड़ा व सोनमाली में पूर्व में दुर्ग निर्माण कराया गया था तथा इस वंश के सोनमति द्वारा सोंहार, सोनमाली व सोंगरा जैसे ग्राम बसाए गये थे।
अपने पूर्वर्जों की भांति सोमदत्त ने सोरों दुर्ग का जीर्णोद्धार करा उसे अपनी राजधानी बनाया तथा जनपद के अधिकांश भागों के अलावा बदायूं जनपद के अनेक भागों पर अपना अधिकार कर लिया। बाद में सोरों को सुरक्षित न समझ सोमदत्त ने अमापुर, उतरना आदि क्षेत्रों में अपने वंशजों को बसा तथा सोरों की धार्मिक महात्ता को दृष्टिगत रख इसे ब्राहमणों को दान दे स्वयं बदायूं के उसहैत क्षेत्र में बसोमा नामक स्थल का अपना मुख्यालय बनाया। (इस वंश के ताली नरेश के विवरण सत्रहवीं सदी तक सोलंकी राजा के रूप में तथा बाद में मोहनपुर के नबाव के रूप में मिलते हैं)।
और राजा ने अपनी राजधानी ही कर दी ब्राहमणों को दान
कहानी सोरों से सम्बन्धित है तथा अनुश्रुतियों तथा परम्पराओं में इतनी रची-बसी है कि आज भी इस राजा के परम्पराओं के माननेवाले वंशज सोरों का पानी तक नहीं पीते। सोरों में सुप्रसिद्ध सूकरक्षेत्र महाशमशान होते हुए भी इस वंश के किसी व्यक्ति का सोरों में अंतिम संस्कार नहीं किया जाता।
दरअसल सोरों का चालुक्य वंश (सोलंकी व बघेला) से अभिन्न सम्बन्ध रहा है। ‘चालुक्य वंस प्रदीप’ जैसी कृतियों के उल्लेख के अनुसार आबू पर्वत पर ऋषियों के यज्ञ के परिणामों से सृजित सूर्य एवं चंद्र वंश से पृथक नवीन अग्निवंश की स्थापना किये जाने पर इस नवीनवंश के 4 महापुरुषों में एक ‘हारीति’ ने सोरों सूकरक्षेत्र से ही अपने चालुक्य वंश का शुभारम्भ किया था।
इस कथा के अनुसार ऋषियों से आदेश पा हारिति सोरों आ गये जहां चुल्लूभर जल से जीवनयापन करते हुए उन्होंने घोर तपस्या की। इस तपस्या के फलस्वरूप उन पर तत्कालीन पंचाल नरेश शशिशेखर की दृष्टि पड़़ी, जिन्होंने उन्हें अपनी पुत्री के विवाह हेतु चयनित किया तथा वे शशिशेखर के निपूते मरने पर पंचाल के राजा बने। इनके पुत्र बेन के विषय में तो प्रसिद्ध है कि वह चक्रवर्ती शासक थे। (जिले के अतरंजीखेड़ा को इनकी राजधानी ‘बेरंजा’ माना जाता है तथा इस सहित उत्तरभारत के हिमालय से प0 बंगाल तक फैले करीब ढाई दर्जन प्राचीन पुरावशेष इन्हीं बेन के राज्य के दुर्ग माने जाते हैं।)। ‘चालुक्य वंस प्रदीप बेन’ के बाद भी सोरों/अतरंजीखेड़ा को इस सोलंकी वंश की राजधानी बताने के साथ-साथ सूचना देता है कि इस वंश के अजयदेव के राजधानी को अयोध्या स्थानांतरित किये जाने तथा वहां इसवंश की करीब 5 दर्जन पीढि़यों के शासन, फिर निस्तेज हो कुछ समय विपरीत परिस्थितियां सह दक्षिण को स्थांतरित हो वहां सुप्रसिद्ध चालुक्य वंश के राज्य की स्थापना किया जाना बताती है।
दक्षिण का सुप्रसिद्ध चालुक्य वंश भी स्वयं को इन माण्डव्य गोत्रीय हारीति का वंशज मानना तथा दक्षिण से पूर्व इनका अयोध्या का शासक होना स्वयं इनके शिलालेखों से सिद्ध है। साथ ही इनके राजचिहन पर भगवान वराह व मकरवाहिनी गंगा के अंकन से इन अनुश्रुतियों को ऐतिहासिक आधार मिलता प्रतीत होता है। अस्तु।
कन्नौज नरेश हर्षवर्धन के उपरांत कन्नौज साम्राज्य का विधटन होने लगा। इस विघटन काल में इस पर पहले प्रतिहार नरेशों का अधिकार हुआ बाद में प्रतिहारों से चालुक्य व राष्ट्रकूटों के संघर्ष हुए जिसमें प्रतिहारों की पराजय हुई तथा कन्नौज साम्राज्य के बदायू, सोरा,ें अमापुर, उतरना आदि भूभाग प्रतिहारों से निकल गये।
चालुक्य वंस प्रदीप के अनुसार यह युद्ध कन्नौज के तत्कालीन नरेश भोज प्रतिहार (भोज द्वितीय) से हुआ था। इस युद्ध में चालुक्य सेना का नेतृत्व सेनापति सोमादित्य (अनुश्रुतियों के सोमदत्त) ने किया था। युद्ध के बाद राष्ट्रकूट गंगा के बदायूं की ओर के भाग के शासक बने जबकि सोमादित्य गंगा के सोरों की ओर के भूभाग के स्वामी बने।
इन सोमदत्त अथवा सोमादित्य ने सोरों को अपनी राजधानी बना काफी अर्से तक शासन किया किन्तु तत्कालीन परिस्थिति के बिगड़ने पर नवोदित राष्ट्रकूट राज्य की सुरक्षा संभव न रहने पर राष्ट्रकूटों ने इन्हें अपने राज्य में जागीर दे वहीं बसा लिया।
पंचाल देश की ऐतिहासिकता पर शोध करनेवाले डा0 श्रीनिवास वर्मा शास्त्री के अनुसार राजा सोमदत्त ने वर्तमान बदायूं जिले के बसोमा नामक स्थल पर अपनी नयी राजधानी स्थापित की थी।
अपनी राजधानी परिवर्तन के समय उन्होंने अतरंजीखेड़ा (इस काल तक बेरंजा) दुर्ग व नगर तो अपने कुल की बघेला शाखा को प्रदत्त किया जब कि राजधानी के समीप के ताली दुर्ग को अपने एक सोलंकी वंशज को दिया। किन्तु राजधानी किसे सोंपें इस प्रश्न पर उन्हें खासा मंथन करना पड़ा। (संभवतः इसका कारण राजधानी पर अधिकार के अनेक दावेदार होने तथा इनमें से किसी को राजधानी सोंपने पर उसकी महत्वाकांक्षा से विपरीत परिणामों की संभावना होना कारण था)।
अंतः सोरों के तीर्थस्वरूप तथा उसकी धार्मिकता को दृष्टि रख महाराज ने एक अपूर्व निर्णय लिया। इस निर्णय में एक शुभदिन का चयन कर उन्हों से संकल्प कर यह नगरी अपने कुलपुरोहित के नेतृत्व में उपस्थित ब्राहमणों को दान कर दी।
अपने पूर्वजों के इसी दान के संकल्प को चरितार्थ करने के लिए आज भी परम्पराओं के माननेवाले सोलंकी बुजुर्ग न तो यहां का जल ग्रहण करते हैं न यहां के विश्वविख्यात शमशान में शवदाह ही करते हैं। हां, उनकी अपने पूर्वजों की रज में अपनी रज मिलाने की इच्छा के अनुरूप परिजय अपने बुजुर्गवार के अस्थि-अवशेष अवश्य यहां की हरिपदी गंगा में प्रवाहित करते देखे जा सकते हैं।
इसी काल में गौड देश के विग्रहपाल ने भी एक अल्पकाल के लिए कन्नौज पर अपना अधिकार कर लिया था। भोजदेव के उपरान्त उनक पुत्र महन्द्रपाल व भोज द्वितीय 942वि0 से 969वि0 तक कन्नौज के शासक रहे।
भोज द्वितीय के शासन में दक्षिण के राष्ट्रकूट शासकों ने अपने उत्तर भारत के विजय अभियान के समय बदायू सहित जनपद के एक भाग पर अपना अधिकार कर लिया। इस वंश के आगामी शासक ही सुप्रसिद्ध बदायूं का राष्ट्रकूट वंश कहलाए। प्रतीत होता है कि क्षेत्रीय संतुलन को दूर करने के लिए सोलंकी नरेशों ने चालुक्यों की अधीनता स्वीकार ली तथा चालुक्यों ने भी उन्हें उनके अधिकृत क्षेत्रों का अधिपति मान लिया। दसवीं व ग्यारहवीं शताब्दी में जनपद आंशिक रूप से (अलीगंज आदि फरूखाबाद से लगे भाग) कन्नौज व प्रमुख रूप से राष्ट्रकूटों के अधीन चालुक्यों द्वारा संचालित था।
इतिहासकार मानते हैं कि राष्ट्रकूटों ने पहले कन्नौज को ही अपनी राजधानी बनाया किन्तु महमूद गजनवी के आक्रमण के समय राष्ट्रकूट शासक के बदायूं हट जाने के बाद वे पुनः कन्नौज पर अधिकार न कर सके।
मान्यता है कि राष्ट्रकूट नरेश चंद्र, विग्रहपाल, भुवनपाल व गोपाल ने कन्नौज से ही शासन किया जबकि त्रिभुवनपाल के समय से राजधानी बदायूं स्थानांतरित हो जाने तथा राष्ट्रकूटों का कन्नौजीक्षेत्रों से प्रभाव समाप्त हो जाने के कारण अब राष्ट्रकूट बदायूं से ही शासन करते थे। त्रिभुवन पाल के उपरान्त के शासकों में मदनपाल, देवपाल, भीमपाल, सुरपाल, अमृतपाल तथा गोरी की सेनाओं से लड़नेवाले लखनपाल तक का शासन तो एक नरेश की भांति मिलता है। जबकि धारादेव नामक एक परवर्ती शासक का उल्लेख महासामंत के रूप में मिलता है।
राष्ट्रकूटों के बदायूं अभिलेख के अनुसार- प्रख्याताखिल राष्ट्रकूट कुलजक्ष्मा पालदोः पालिता। पांचालाभिध देश भूषण करी वोदामयूता पुरी।।
(एक दूसरी मान्यता के अनुसार राष्ट्रकूट बदायूं में तो पूर्व से ही स्थापित थे। सन् 1020 ई0 में कन्नौज पर हुए महमूद गजनवी के आक्रमण, व तत्कालीन नरेश राज्यपाल के पलायन के बाद की अराजकता का लाभ उठा चंद्र ने इस पर अधिकार कर लिया। चंद्र के बाद कन्नौज की गद्दी पर बैठे विग्रहपाल के विषय में लाट के चालुक्य वंशीय एक शासक ने 1050ई0 में लिखाए एक लेख से ज्ञात होता है कि इस समय कन्नौज में राष्ट्रकूट वंश का शासन था। इसी प्रकार भुवनपाल के शासनकाल (1050-75ई0) के विवरणों के अनुसार इस काल में चालुक्य सोमेश्वर प्रथम तथा चोल राजा विरजेन्द्र के कन्नौज पर आक्रमण के विवरण पाते हैं। राष्ट्रकूट शासक गोपाल को भी बदायूं अभिलेख में गाधिपुर का शासक कहा गया है। इतिहासकारों का मानना है कि गोपाल के राज्यकाल में गजनी के सुल्तान के पुत्र महमूद(महमूद गजनवी नहीं) ने कन्नौज जीत लिया। इस पराजय के उपरान्त राष्ट्रकूटों ने अपने को बोदामयूतापुरी में स्थापित कर लिया तथा यह वंश ही बदायूं के राष्ट्रकूट वंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। राष्ट्रकूटों के विवरण गोपाल के बाद उसके बड़े पुत्र त्रिभुवनपाल, फिर उसके छोटे भाई मदनपाल तथा उसके बाद सबसे छोटे भाई देवपाल का शासक बताते हैं। मदनपाल को बदायूं से गौडा जिले में स्थित सेत-महेत तक का शासक माना जाता है, जहां उसके अभिलेख मिले हैं। देवपाल के राज्यकाल में 1128ई0 के लगभग सेत-महेत व कन्नौज के गाहड़वाल शासकों के हाथों में चले जाने के संकेत मिलते हैं। इधर देवपाल के उपरान्त भीमपाल, सुरपाल व अम्रतपाल और लखनपाल के बदायूं से शासन किये जाने के विवरण उपलब्ध हैं। प्रतीत होता है कि 1202ई0 में दिल्ली के शासक कुतबुद्दीन ने इसी से बदायूं छीन इल्तुतमिश को बहां का राज्यपाल बनाया था।) राष्ट्रकूट नरेश लखनपाल के सोरों के सीताराम मंदिर में मिले अभिलेख से स्पष्ट है कि राष्ट्रकूटों के काल में सोरों व आसपास का क्षेत्र कन्नौज के नहीं बदायूं के अधिकार में था।
राष्ट्रकूटों के बाद गाहड़वाल
संवत 1157वि0 में बनारस के गहदवाल शासक चंद्रदेव अथवा चंद्रादित्य के कन्नौज पर अधिकार करने के संकेत मिलते हैं। इनका राज्यकाल 1085 से 1100ई0 तक रहा। चंद्रदेव व मदनपाल के 1097ई0 क ताम्रलेख से ध्वनित है- निज भुजोपार्जित श्री कान्यकुब्जाधिराजाधिपत्य श्री चंद्रदेवो विजयी। 1100ई से 1110ई तक का कार्यकाल मदनपाल का माना जाता है। मदनपाल के अभिलखों से ध्वनित है कि उनका राज्य बनारस से इटावा जिले तक था। प्रतीत होता है कि जिले के सोलंकी राजा अब कन्नौज के अधीन हो गये। इनकी स्थिति प्रायः अर्धस्वाधीन राज्यों सी प्रतीत होती है। मदनपाल के विषय में प्रसिद्ध है कि यह यवनों(अलादृद्दौला मासूद तृतीय) से हारा था तथा बंदी बना लिया गया था। इसे बाद में उसके पुत्र द्वारा धन देकर छुड़ाया गया।)
यह इतिहास का बड़ा ही अजीब मिथक है कि गहदवाल शासक कन्नौज नरेश के विरुद से जाने जाते हैं तथा इस क्षेत्र के भी शासक माने जात हैं, किन्तु गहदवाल नरेश चंद्र से लेकर जयचंद तथा उनके बाद गहदवालों के शासक बने हरिश्चंद्र अथवा बरदायीसेन के सारे के सारे अभिलेख इटावा जनपद से लेकर बिहार क मुगेर जिले तक ही मिलते हैं। यहां तक कि चंदेलों के क्षेत्र तक में गहदवाल काल के अभिलेख प्राप्त हुए हैं किन्तु इनका एक भी अभिलेख एटा, फरूखाबाद या बदायूं क्षेत्र से नहीं मिला। इसके विपरीत बदायूं के राष्ट्रकूट शासक लखनपाल का स्तम्भ लेख सोरों के सीताराम मंदिर में उपलब्ध है।
मदनपाल के उपरान्त गोविन्दचंद कन्नौज का अधिपति बना। इस काल तक कन्नौज साम्राज्य बन चुका था तथा मध्य एशिया के तुरूष्कों के भारत पर आक्रमण होने लगे थे। 1109 से पूर्व के तुरूष्क आक्रमण में बंदी बनाए गये मदनपाल तथा उन्हें छुड़ाने के लिए दिए गये धन ने गोविन्दचंद को तुरूष्कों के प्रति आक्रामक होने के लिए विवश किया तथा उसने तुरूष्कों के प्रति इतनी सफलता पायी कि कुमारदेवी के सारनाथ अभिलेख में उसे हरि(विष्णु) के अवतार की संज्ञा दी गयी। कन्नौज में लगाए गये तुरूष्क दण्ड(इसका उल्लेख गाहड़वालों के 1090 के बाद के भूमिदान पत्रों में पाया जाता है) से निर्मित गोविन्दचंद की सेना अनुश्रुतियों के अनुसार इतनी आक्रामक हो गयी थी कि उसने गज्जण(गजनी) नगर की भी विजय प्राप्त की।
बदायूं के राष्ट्रकूट नरेश मदनपाल के बदायूं अभिलेख में अंकित है कि उसके पौरूष के कारण ही हम्मीर(गजनी अमीर) के गंगातट पर आने की कथा फिर नहीं सुनाई दी। इस कथन से ध्वनित होता है कि इस युद्ध में मदनपाल भी गोविन्दचंद का सहयोगी था। इतिहास इस प्रश्न का समाधान नहीं देता कि यह सहयोग दो राज्यों के मध्य के सहयोग की भाति था, अथवा शासक व अधीनस्थ की भांति।
गोविन्दचंद के बाद कन्नौज के शासक बने विजयचंद के समय तक कन्नौज राज्य भारत का शक्तिशाली साम्राज्य बन चुका था। इस वंश के अंतिम स्वाधीन शासक जयचंद्र (1227वि0-1251वि0) थे। जयचंद को दलपुंगव की उपाधि आभासित कराती है कि जयचंद एक बहुत बड़ी सेना क स्वामी थे। अनुश्रुतियों के अनुसार तो एक बार दिल्ली से हुए किसी युद्ध में कन्नौज की सेना दिल्ली का विजित कर जिस समय कन्नौज बापस लौटी उस समय भी कन्नौज की सेना दिल्ली की ओर प्रस्थान कर रही थी। जयचंद के समय में बिलराम के शासक रह बलरामसिंह चैहान को अनुश्रुतियां जयचंद का करद सामन्त स्वीकारती हैं। इन्हीं बलरामसिंह को बिलराम का संस्थापक भी माना जाता है। किन्तु इस उल्लेख की विसंगति यह है कि खोर(वर्तमान शम्शाबाद, फरूखाबाद) को जयचंद ने अपने पिता मदनपाल के राज्यकाल(1125-1165) में भोरों को हराकर अपने अधिकार में किया है।
महाराज जयचंद का राज्य ‘योजन-शत-मानां’ अर्थात 700 योजन अर्थात 5600 वर्गमील क्षेत्र में माना जाता है। इटावा जिले का असद किला, फतेहपुर जिले के कुर्रा व असनी किले जयचंद द्वारा निर्मित माने जाते हैं। प्राचीन काम्पिल्य निवासी महाकवि श्रीहर्ष जयचंद के दरबारी कवि थे।
आल्हखंड का विरियागढ तथा लाखन
आल्हा के विवरणों के अनुसार महोबा नरेश महाराजा परमार्दिदेव या परिमाल ने 1165ई में किसी बात से अप्रसन्न हो आल्हा- को अपने राज्य से निकाल दिया। जयचंद ने इसे दुर्गुण न समझ इन्हें अपने राज्य में आश्रय दिया। अनुश्रुतियों के अनुसार ये महाराज के सरदार लाखनपाल के यहां विरियागढ(वर्तमान विल्सढ) में रहे।
पंचालक्षेत्र में नहीं मिलते गाहड़वाल शासकों के अभिलेख
यह बहुत आश्चर्यजनक ही है कि लगभग एक शताब्दी तक गाधिपुर (कन्नौज) के नरेश का विरुद धारण करनेवाले ग्यारहवीं से बारहवीं(1089-1196) के किसी गाहड़वाल शासक के अभिलेख, कोई शिलालेख, ताम्रपत्र या स्तम्भ लेख की प्राप्ति प्राचीन पांचाल क्षेत्र तो छोडि़ए कन्नौज व उसके आसपास से भी नहीं होती। जबकि माना यह जाता है कि गाहड़वालों के अंतिम नरेश महाराजा जयचंद ही वह कन्नौज नरेश थे जिनसे 1192 में मुहम्मद गौरी से चंदबार(वर्तमान फिरोजाबाद नगर मुख्यालय से करीब 8 किमी दूर यमुना के किनारे) में निर्णायक युद्ध हुआ था।
‘गाहड़वालों के इतिहास’ के अध्ययेता डा0 प्रशान्त कश्यप के अनुसार अब तक 84 गाहड़वालकालीन अभिलेख पुराविदों की दृष्टि में आ चुके हैं। इनमें 4 आरम्भिक गाहड़वाल शासक (संभवतः चंद्र) के हैं, जबकि 5 मदनपाल के, 48 गोविन्दचंद के, 4 विजयचंद के, 19 जयचंद के, 2 हरिश्चंद के तथा 2 गाहड़वालों के अधीनस्थ सामंतों के वे अभिलेख हैं जिनमें गाहड़वाल शासकों के उल्लेख हैं।
आश्चर्यजनक रूप से इन अभिलेखों का सर्वाधिक प्राप्तिस्थल वाराणसी व उसका वह अंचल है जहां के गाहड़वाल आरम्भिक शासक स्वीकारे जाते हैं। डा0 प्रशान्त के अनुसार गाहड़वालों के अभिलेख प्रदेश के इटावा जिले से लेकर मुंगेर (बिहार) व छतरपुर (म0प्र0) तक प्राप्त हुए हैं। आश्चर्यजनक रूप से इनकी प्राप्ति कन्नौल, फरुखाबाद, एटा, बदायूं, बरेली, पीलीभीत आदि पंचाल के उन भूभागों में नहीं मिलते जिन्हें परम्परागत रूप से कन्नौज राज्य माना जाता रहा है।
इस क्षेत्र में गाहड़वालों का कोई अभिलेख न मिलने से प्रश्न उठता है कि क्या तत्समय इस क्षेत्र के शासक गाहड़वाल नरेश थे अथवा कोई अन्य? इस शंका को आधार देता है मुस्लिम इतिहासकारों, चंदेल लेख, लक्ष्मीधर की प्रशस्ति तथा स्कन्द पुराण का गाहड़वालों को मात्र ‘काशी नरेश’ का संबोधन।
चंद्रदेव की कन्नौज विजय
गाहड़वाल काल के अभिलेखों के विवरण गाहड़वाल नरेश चंद्रदेव के विषय में बताते हैं कि यह कन्नौज का विजेता था। पर इसने कन्नौज विजित किससे किया? इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता। इतिहासकार नियोगी इस प्रश्न के उत्तरस्वरूप चंदेल नरेश- राजा सलक्षण वर्मा का नाम लेते हैं तो आरएस त्रिपाठी इसे राष्ट्रकूट नरेश गोपाल (बदायूं के सुप्रसिद्ध राष्ट्रकूट वंश का शासक) मानते हैं। गोपाल, लखनपाल के बोदामयूतापुरी (बदायूं) अभिलेख तथा 1176 विक्रमी (1118ई0) के एक बौद्ध लेख में गाधिपुराधिप के रूप में उल्लिखित है।
इधर संध्याकर नन्दी कृत रामचरित में पाल शासक रामपाल के सामन्त भीमयश को कान्यकुब्जवाजीनीगण्ठन कहे जाने से मामला और उलझ जाता है।
प्रतीत होता है कि गाहड़वालों ने कभी कन्नौज को विजित भले किया हो, वे कन्नौज के शासक कभी नहीं रहे। गाहड़वाल नरेश गोविन्दचंद की रानी कुमारदेवी का सारनाथ अभिलेख बताता है कि वह (गोविन्दचंद) दुष्ट तुरुष्क वीर से वाराणसी की रक्षा करने के लिए हर (शंकर) द्वारा नियुक्त हरि (विष्णु) का अवतार था।
तबकात-ए-नासिरी के अनुसार गजनी के राजा सुल्तान मसूद तृतीय (1099-1115) के समय हाजी तुगातिगिन गंगानदी पार कर उन स्थानों तक चढ़ आया जहां सुल्तान महमूद गजनवी को छोड़ अन्य कोई नहीं गया था। इसी प्रकार दीवान-ए-सल्ली की सूचनानुसार उसने अभागे राजा मल्ही को पकड़ लिया।
यदि इन इतिहासकारों के विवरण सही हैं तो प्रश्न उठता है कि यह पकड़ा गया मल्ही कौन था?
गोविन्दचंद के 1104ई0 के बसही अभिलेख के अनुसार वह मदनपाल था जिसे 1109 के रहन अभिलेख के अनुसार गोविन्दचंद ने बार-बार प्रदर्शित (मुहुर्मुहुः) अपने रण कौशल से (न सिर्फ छुड़ाया वरन) हम्मीर को शत्रुता त्यागने पर विवश किया।
किन्तु इतिहासकार आरएस त्रिपाठी के अनुसार यह मल्ही गाहड़वाल शासन नहीं, राष्ट्रकूट नरेश मदनपाल था। क्योंकि राष्ट्रकूट लखनपाल के बदायूं अभिलेख के अनुसार इस(मदनपाल) की प्रसिद्ध वीरता के कारण हम्मीर देवनदी (गंगा) तक पहंुच पाने में असफल रहा।
यह विवरण कदाचित सत्य प्रतीत होता है। कारण, मदनपाल के अन्य अभिलेख उसे पृथ्वी में एक छत्र शासन स्थापित कर अपने तेजबल से इंद्र को मात देनेवाला बताते हैं।
ऐसे में यही संभावना शेष रहती है कि कन्नौज के वास्तविक शासक (भले ही कालांतर में गाहड़वाल वहां के शासक तथा वे अधीनस्थ सामंत रहे हों) राष्ट्रकूट थे, न कि गाहड़वाल। राष्ट्रकूट नरेश मदनपाल के मुस्लिमों से तत्समय हुए संघर्ष में प्रारम्भिक विजयों के बाद मदनपाल को पराजय झेलनी पड़ी तथा बंदी मदनपाल को छुड़ाने के शौर्य के उपलक्ष में गाहड़वाल कन्नौज नरेश स्वीकारे गये। हालांकि वास्तव में उनकी राजधानी वाराणसी ही रही, कन्नौज नहीं। और निश्चय ही इसी कारण मुहम्मद गौरी ने चंदवार के युद्ध में जयचंद को पराजय दे अपनी सेनाएं कन्नौज नहीं, वाराणसी को विजित करने के लिए भेजी थीं।
क्या कन्नौज नरेश जयचंद का शासन एटा जिले में न था?
सुनने में अजीब भले ही लगे किन्तु यह सत्य है कि 12वीं सदी के उत्तर भारत के प्रबल शासक कन्नौज नरेश महाराज जयचंद के शासन का कोई अभिलेख ऐसा नहीं मिलता जिससे यह प्रमाणित हो कि उनका शासन एटा व कासगंज जिलों के भूभाग पर भी था। यही नहीं जयचंद को जिस गाहड़वाल वंश का माना जाता है उसके अब तक प्राप्त शिलालेखों में एक भी शिलालेख इस भूभाग या इसके पश्चात के भूभाग पर प्राप्त नहीं हुए हैं।
गाहड़वाल वंश के अब तक प्राप्त शिलालेखों व अन्य अभिलेखों से जो सूचनाएं प्राप्त होती हैं उनके अनुसार- इनके शासित क्षेत्र की सीमा उत्तर में श्रावस्ती(उ0प्र0), दक्षिण में छतरपुर(म0प्र0), पूरब में मुंगेर(बिहार) तथा पश्चिम में इटावा (उ0प्र) तक ही इनका राज्य होने का संकेत देती है।
कन्नौज राज्य के दूसरे प्रतिस्पर्धी राज्य दिल्ली-अजमेर के चैहानी राज्य की सीमाओं पर दृष्टिपात करें तो ये भी अंतिम रूप से कोल (वर्तमान अलीगढ़) तक आते-आते समाप्त हो जाने से यह भी निश्चित है कि यह भूभाग इस काल में चैहानी राज्य का भाग भी नहीं था।
प्रश्न उठता है कि फिर यह भूभाग किस राज्य में था?
ऐसे में जिस राज्य की ओर दृष्टि जाती है वह है बदायूं का राष्ट्रकूट राज्य।
इस वंश के लखनपाल के सोरों में सीताराम मंदिर में मिले शिलालेख से यह स्पष्ट है कि निश्चय ही सोरों तो इनके शासन का ही भाग था। रहा शेष जनपद का प्रश्न तो संभावनाएं इन्हीं के शासन की ओर इशारा करती हैं। और अगर यह सही है तो एटा व आसपास के सभी राठौर भी कन्नौज नरेश गहड़वाल जयचंद के नहीं इस शिलालेख में वर्णित तथा कभी कन्नौज नरेश रहे राष्ट्रकूट जयचंद के वंशज होने चाहिए।
पृथ्वीराज रासो में वर्णित संयोगिता प्रकरण को कतिपय विद्वान किसी नारी का वरण न मान संयुक्ता भूमि (अर्थात वह भूभाग जो या तो दो शासनों के मध्य संयुक्त भूमि हो अथवा दो राज्यों से जुड़ी ऐसी भूमि हो जो प्रत्यक्षतः किसी राज्य का भूभाग न हो किन्तु दोनों उसे अपनी भूमि मानते हों) के लिए हुआ संघर्ष मानते हैं।
चंद्रबरदाई ने अपने ग्रन्थ में संयोगिता प्रकरण का पृथ्वीराज व जयचंद के मध्य हुआ अंतिम युद्व सोरों के सुप्रसिद्ध सूकरक्षेत्र में लड़ा गया लिखा है।
अगर इस युद्ध को संयुक्ता भूमि के लिए हुआ युद्ध माना जाय तो यह क्षेत्र इस काल में ऐसा क्षेत्र होना चाहिए जिस पर कन्नौज के गाहड़वाल तथा दिल्ली के चैहानों में किसी का प्रत्यक्ष शासन न था तथा दोनों ही इस पर अपना अधिकार करना चाहते थे।
संभावना यह भी है कि गाहड़वालों की अतिक्रमणकारी नीति के चलते इस भूभाग के शासक कन्नौज नरेश की अपेक्षा चैहानी शक्ति के अधिक करीब थे किन्तु कन्नौज की दलपुंगव शक्ति के भय से स्पष्ट रूप से उनसे बैर की नीति भी नहीं अपनाते थे। साथ ही अतीत में गाहड़वालों द्वारा राष्ट्रकूटों की सहायता करना भी इस प्रच्छन्न मैत्री का एक कारण था। भले ही जयचंद तक आते-आते स्थितियां बदल गयी हों किन्तु मैत्री का दिखावा तो था ही।
स्यात् इसी समस्या के समाधान के लिए पृथ्वीराज ने इस संयुक्ता के हरण की योजना बनायी। एटा जिले के मलावन, फिरोजाबाद जिले के पैंठत तथा अलीगढ़ जिले के गंगीरी में स्थानीय देव के रूप में पूजे जानेवाले मल्ल, जखई व मैकासुर को अनुश्रुतियां पृथ्वीराज के उन सरदारों के रूप में स्मरण करती हैं जो इस संयुक्ता प्रकरण में इस स्थल पर वीरगति को प्राप्त हुए।
किन्तु प्रथम तो सोरों युद्ध में पृथ्वीराज को विजय नहीं, पराजय मिलना बताया जाता है। द्वितीय यह युद्ध यह स्पष्ट नहीं करता कि इस काल में यहां का स्थानीय शासक कौन था? ऐसे में यह प्रश्न फिर भी शेष रहता है कि क्या इस काल में यह क्षेत्र गहड़वालों के अतरिक्त किसी अन्य शक्ति के शासन में था?
इतिहास से इस समस्या का समाधान नहीं मिलता। हां, अनुश्रुतियां अवश्य इस समस्या के समाधान में किंचित सहायता करती प्रतीत होती हैं। इनके अनुसार बारहवीं सदी में एटा का भूभाग सोरों व अतरंजीखेड़ा के दो राजवंशों के अधीन था। इनमें सोरों के तत्कालीन नरेश सोमदत्त चालुक्यों की सोलंकी शाखा से थे, जबकि अतरंजीखेड़ा के मंगलसेन संभवतः डोर राजपूत।
सोलंकी नरेश सोमदत्त के विषय में प्रसिद्ध है कि उन्होंने तीर्थनगरी सोरों को ब्राहमणों को दान कर बदायूं जिले के बसोमा नामक स्थल पर अपनी नई राजधानी बसायी।
ऐसे में सोरों में मिला राष्ट्रकूटों का शिलालेख तीन संभावनाएं दर्शाता है। प्रथम शिलालेख के समय सोरों राष्ट्रकूटों के शासन में हो। द्वितीय सोमदत्त सोलंकी राष्ट्रकूटों के अधीन शासक थे। तथा तीन, सोमदत्त के सोरों छोड़ने के बाद सोरों राष्ट्रकूटों ने अपने अधीन कर लिया हो।
सोरों क्षेत्र पर ताली (तथा बाद में मोहनपुर नबाव) राजवंश के स्वाधीनता तक शासन से तथा इस क्षेत्र में सोलंकी क्षत्रियों के प्राबल्य से यह तो स्पष्ट ही है कि यह क्षेत्र सोलंकी प्रभाव का क्षेत्र रहा है। चालुक्य वंश प्रदीप जैसी रचनाएं तो सोन नामक प्रायः सभी स्थलों (जैसे- सोंहार, पुरसोन, सोनसा आदि) को सोलंकी नरेश सोनशाह द्वारा स्थापित बताती हैं। वहीं अतरंजीखेड़ा के शासक माने जानेवाले मंगलसेन के विषय में अलीगढ़ विश्वविद्यालय की खोजें इनकी पुत्री का विवाह सांकरा के शासक से होना पाती हैं।
ताली नरंश जो स्वाधीनता तक विधर्मी मोहनपुर के नबाव के रूप में अपना अस्तित्व बचाये रखने में सफल रहे हैं, का शासन सहावर क्षेत्र में ही रहा प्रतीत होता है।
हालांकि स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं किन्तु इस क्षेत्र में गाहड़वाल क्षत्रियों की जगह राठौर क्षत्रियों के प्राबल्य से संभावनाएं यही हैं कि यह क्षेत्र गाहड़वालों के अधीन नहीं, राठौर या सोलंकी शासकों के अधीन रहा है।
संयोगिता हरण के बाद
सोरों में हुआ था पृथ्वीराज-जयचंद का आखिरी युद्ध
      ‘पृथ्वीराज रासे’ दिल्ली सम्राट पृथ्वीराज चैहान के कार्यकाल का वर्णन करनेवाली सुप्रसिद्ध कृति है। माना जाता है कि इसकी रचना पृथ्वीराज के मित्र व दरबारी कवि चंद्रबरदाई द्वारा की गयी है। कतिपय इतिहासकार कई स्थानों के इसके विवरणों की अन्य समकालीन विवरणों से असंगति के कारण इसकी ऐतिहासिकता को विवादित मानते हैं। हो सकता है कि यह पृथ्वीराज की समकालीन कृति न हो किन्तु भाषा (डिंगल) तथा छंद प्रयोग की दृष्टि से यह एक प्राचीन कृति है, इसमें कोई संदेह नहीं। अतः स्वाभाविक है कि इतिहास न होते हुए भी इतिहास के अत्यन्त निकट की कृति है।
      चूंकि यह वीरकाव्य है अतः अपने नायक (पृथ्वीराज चैहान) का अतिशय वीरत्व दर्शाने के लिए इस काव्य में घटनाओं के अलंकारिक विवरण मिलना स्वाभाविक हैं।
रासो का एक सुप्रसिद्ध प्रसंग है ‘संयोगिता हरण’। माना जाता है कि यही जयचंद्र व पृथ्वीराज के मध्य मनमुटाब का ऐसा कारण बना जिसके बाद भारत का एक बड़ा भाग सदियों के लिए विदेशी विधर्मियों की गुलामी सहने को विवश हुआ।
संयोगिता हरण की कथा के अनुसार जयचंद्र की पुत्री संयोगिता दिल्ली-सम्राट की वीरता की कथाएं सुन-सुनकर उन पर बुरी तरह आसक्त थी तथा उन्हीं को अपने पति के रूप में वरण करना चाहती थी। इसके विपरीत जयचंद,्र पृथ्वीराज से कट्टर शत्रुता रखते थे।
दोनों की इस शत्रुता के कुछ तो राजनीतिक कारण थे और कुछ थे पारिवारिक। कहते हैं कि पृथ्वीराज ने दिल्ली का राज्य अपने नाना दिल्ली के नरेश राजा अनंगपाल सिंह तंवर (तोमर) से धोखे से हथियाया था। अनंगपाल के दो पुत्रियां थीं। इनमें एक कन्नौज नरेश को तथा दूसरी अजमेर नरेश को ब्याही थीं। कन्नौज ब्याही पुत्री के पुत्र जयचंद्र थे जबकि अजमेरवाली पुत्री के पृथ्वीराज।
अनंगपाल के कोई पुत्र न होने के कारण दोनों अपने को अनंगपाल के बाद दिल्ली का स्वाभाविक उत्तराधिकारी मानते थे। इसमें भी जयचंद्र की सीमाएं दिल्ली से मिली होने के कारण इस उत्तराधिकार के प्रति जयचंद्र कुछ अधिक ही आग्रही थे। किन्तु छोटा धेवता होने का लाभ उठा पृथ्वीराज अनंगपाल के अधिक निकट व प्रिय थे।
जयचंद्र तो धैर्यपूर्वक समय की प्रतीक्षा करते रहे जबकि पृथ्वीराज ने अपनी स्थिति का लाभ उठा, पृथ्वीराज को अपनी यात्राकाल में अपना कार्यभारी नियुक्त कर धर्मयात्रा को गये महाराज अनंगपाल की अनुपस्थिति में उन्हें सत्ताच्युत कर दिल्ली राज्य ही हथिया लिया। फलतः जयचंद्र की कटुता इतनी अधिक बढ़ गयी कि जब उन्होंने अपनी पुत्री संयोगिता का स्वयंवर किये जाने का निर्णय लिया तो पृथ्वीराज को आमंत्रित करने के स्थान पर उनकी एक स्वर्ण प्रतिमा बना उसे द्वारपाल के रूप में स्थापित करा दिया।
इधर प्रथ्वीराज को निमंत्रण न भेजे जाने की सूचना जब संयोगिता को मिली तो उसने अपना दूत दिल्ली-सम्राट के पास भेज उन्हें परिस्थिति से अवगत कराते हुए अपना प्रणय निवेदित किया और सम्राट पृथ्वीराज ने भी संयोगिता के ब्याज से जयचंद्र के मान-मर्दन का अवसर पा अपनी तैयारिया आरम्भ कर दीं।
स्वयंवर की निर्धारित तिथि को संयोगिता के साथ बनी योजना के तहत पृथ्वीराज गुप्त वेश में कन्नौज जा पहुंचे और स्वयंवर के दौरान जैसे ही संयोगिता ने सम्राट की स्वर्ण प्रतिमा के गले में जयमाल डाली, अचानक प्रकट हुए प्रथ्वीराज संयोगिता का हरण कर ले उड़े। अचानक हुई इस घटना से हक्की-बक्की दलपुंगव कन्नौजी सेना जब तक घटना को समझ पाये, पृथ्वीराज दिल्ली की ओर बढ़ चले।
चूकि यह हरण पृथ्वीराज की सुविचारित योजना से अंजाम दिया गया था अतः पृथ्वीराज के चुनींदा सरदार स्थान-स्थान पर पूर्व से ही तैनात थे तथा किसी भी परिस्थित का सामना करने को तैयार थे। इन सरदारों ने प्राणों की बाजी लगाकर अपने सम्राट का वापसी मार्ग सुगम किया।
( फिरोजाबाद जिले के पैंड़त नामक स्थल में पूजित जखई महाराज, एटा जिले के मलावन में पूजित मल्ल महाराज तथा अलीगढ़ जनपद के गंगीरी में पूजित मैकासुर के विषय में बताया जाता है कि ये पृथ्वीराज की सेना के उन्हीं चुनींदा सरदारों में थे जिन्होंने कन्नौज की सेना के सम्मुख अवरोध खड़े करने के दौरान अपने प्राण गवांए।)
एक ओर एक राज्य की दलपुगब कहलानेवाली सशक्त सेना, दूसरी ओर चुनींदा सरदारों के नेतृत्व में स्थान-स्थान पर बिखरी सैन्य टुकडि़यां। इस बेमेल मुकाबले में पृथ्वीराज के सरदार कन्नौजी सेना की प्रगति रोकने में अवरोध तो बने, उसकी प्रगति रोक न पाये।
और पृथ्वीराज के सोरों तक पहुंचते-पहुंचते कन्नौज की सेना ने पृथ्वीराज की घेरेबंदी कर ली।
अनुश्रुतियों एवं पुराविद रखालदास वंद्योपाध्याय के अनुसार सोरों के सुप्रसिद्ध सूकरक्षेत्र के मैदान में पृथ्वीराज व जयचंद्र के मध्य भीषण युद्ध हुआ तथा इस युद्ध में दोनों पक्षों के अनेक सुप्रसिद्ध योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए। अंततः एकाकी पड़ गये प्रथ्वीराज को कन्नौजी सेना ने बंदी बना लिया तथा उनहें जयचंद्र के सम्मुख प्रस्तुत किया गया।
क्रोधावेशित जयचंद्र तलवार सूंत पृथ्वीराज का वध करने ही वाले थे कि उनके सम्मुख संयोगित अपने पति के प्राणदान की भीख मांगती आ खड़ी हुई। अपनी पुत्री को अपने सम्मुख देख तथा नारी पर वार करने की हिन्दूधर्म की वर्जना के चलते जयचंद्र ने अपनी तलवार रोक ली और- दोनों को जीवन में फिर मुंह न दिखाने- का आदेश दे तत्काल कन्नौज राज्य छोड़ने को कहा।
पृथ्वीराज रासो के 61वें समय में इस प्रसंग का अंकन इस प्रकार हुआ है-
जुरि जोगमग्ग सोरों समर चब्रत जुद्ध चंदह कहिया।।2401।।
पुर सोरों गंगह उदक जोगमग्ग तिथि वित्त।
अद्भुत रस असिवर भयो, बंजन बरन कवित्त।।
अत्तेन सूरसथ तुज्झा तहै सोरों पुर पृथिराज अया।।2402।।
(इस सम्बन्ध में दो अन्य कथाएं भी प्रचलित हैं। इनमें पहली कथा के अनुसार तो संयोगिता नाम की कोई महिला थी ही नहीं। यह पूरा प्रकरण एटा-मैनपुरी-अलीगढ व बदायूं क्षेत्र की संयुक्तभूमि (संयुक्ता) पर अधिकार के लिए लड़े गये युद्ध का अलंकारिक विवरण है। वहीं दूसरी कथा के अनुसार दरअसल संयोगित (इस कथा की शशिवृता) जयचंद्र की पुत्री नहीं ... के जाधव नरेश... की पुत्री थी। ... का राज्य पृथ्वीराज की दिग्विजय से आतंकित था तथा अपने अस्तित्व के लिए किसी सबल राज्य का संरक्षण चाहता था। इस संरक्षण को प्राप्त करने के लिए उसने अपनी अवयस्क पुत्री शशिवृता को जयचंद्र को इस अपेक्षा के साथ सोंपने का निश्चय किया कि भविष्य में उसका कन्नौजपति जामाता उसका संरक्षक हो जाएगा। चूंकि यह विवाह राजनीतिक था अतः पृथ्वीराज के विरूद्ध अपनी शत्रुता को दृष्टिगत रख जयचंद्र ने भी इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकारा।
निर्धारित तिथि को जयचंद्र बारात लेकर पहुंचें, इससे पूर्व ही इस नवीन राजनीतिक गठबंधन को ध्वस्त करने के लिए पृथ्वीराज ने इस राज्य पर आक्रमण कर दिया। जयचंद्र के साथ गयी सेना के सहयोग से जाधव राजा ने आक्रमण तो विफल कर दिया किन्तु इस तनावपूर्ण परिवेश में विवाह की परिस्थिति न रहने के कारण जयचंद्र की वाग्दत्ता शशिवृता को जयचंद्र के साथ ही कन्नौज, उचित अवसर पर विवाह करने के वचन सहित भेज दिया।
इस युद्ध में पृथ्वीराज द्वारा दिखाए अपूर्व शौय से प्रभावित शशिवृता प्रौढ जयचंद्र के स्थान पर युवा पृथ्वीराज पर आसक्त हो गयी। जहां चाह वहां राह। शशिवृता के प्रणय-संदेश तथा संदेशवाहक द्वारा की गयी रूपचर्चा ने पृथ्वीराज की आसक्ति भी बढ़ाई और परिणाम- एक षड्यंत्र की रचना हुई।
इस षड्यंत्र के तहत एक दिन जब सजे-संवरे महाराज जयचंद्र ने दरबार जाने से पूर्व सामने मौजूद अपनी वाग्दत्ता शशिवृता से अपनी सजावट के विषय में पूछा कि- कैसा लग रहा र्हूं? तो शशिवृता ने उत्तर दिया- जैसा एक पिता को लगना चाहिए।
अवाक् जयचंद्र ने जब इस प्रतिकूल उत्तर का कारण पूछा तो पृथ्वीराज की दूती की सिखाई शशिवृता का उत्तर था कि एक कन्या का पालन या तो उसका पिता करता है या विवाहोपरान्त उसका पति। चूंकि महाराज से उसका विवाह नहीं हुआ है और महाराज उसका पालन भी कर रहे हैं तो महाराज स्वयं विचारें कि वे ऐसा किस सम्बन्ध के आधार पर कर रहे हैं।
निरुत्तर जयचंद्र ने बाद में शशिवृता को स्वयं अपना वर चुनने की स्वाधीनता देते हुए स्वयंवर कराया जिस में बाद में घटित घटनाक्रम ऊपर वर्णित ही है।)



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