शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2018

हंगामा है क्यों बरपा.....

क्या आप जानते हैं कि विदेशी हमलावरों के भारतीय क्षेत्रों की विजय से पूर्व आधुनिक अलीगढ़ का नाम कोल, बुलंदशहर का बरन, बदायूं का बोदामयूतापुरी व बरज तथा शम्शाबाद का नाम खोर था। इनमें बोदामयूतापुरी सुप्रसिद्ध राष्ट्रकूट नरेशों की, जबकि खोर कन्नौज से अपदस्थ महाराजा जयचंद के पुत्र हरिश्चन्द्र (बरदाईसेन) की राजधानी थी। इसी प्रकार कोल व बरन में तत्समय के सुप्रसिद्ध नरेशों के राजधानी नगर थे।

बारहवीं सदी में दिल्ली-कन्नौज आदि विजय करने में सफल रहे मुहम्मद गौरी के दास व भारतीय प्रतिनिधि कुतबुद्दीन ऐबक ने मेहरावली के 27 नक्षत्रों पर आधारित प्रकाशस्तम्भ युक्त मंदिर समूह को नष्टभ्रष्ट करा वहां कुब्बत-ए-इस्लाम नाम से मस्जिद का निर्माण किसी धार्मिक उद्देश्य से नहीं, अपनी विजय का चिरस्मारक बनवाने के लिए कराया था। ऐबक व उसके
पश्चात्वर्तियों ने अपने विजित कोल नगर को अलीगढ़, बरन को बुलंदशहर, बोदामयूतापुरी व बरज को बदायूं तथा खोर का नाम बदल शम्शाबाद रखा था। यह
परिवर्तन किसी धार्मिक या पांथिक प्रतिवद्धता के कारण नहीं, गुलामों पर अपने विजय के स्थाईचिह्न स्थापित करने के लिए ही कराए गये थे।

अकबर के दरबारी वृत्तलेखक अबुल फजल अल्लामी के अनुसार (ऐसा ही एक स्थाई प्रशस्ति चिह्न स्थापित करने के लिए) 1554 ईसवी में बादशाह अकबर ने संगमतट पर एक किले का निर्माण कराकर यहां ‘अल्लाहाबाद’ नाम से एक नगर की स्थापना कराई। यही अल्लाहाबाद कालांतर में इलाहाबाद के नाम से विख्यात हुआ।

इस कथित ऐतिहासिक लेख का तथ्यात्मक सत्य यह है कि- इस किले के परिसर में ही हिन्दुओं द्वारा सुपूजित प्राचीन ‘अक्षय वट’ है तथा इसी में सम्राट समुद्रगुप्त का सुप्रसिद्ध ‘प्रशस्ति स्तम्भ’। स्पष्ट है कि अकबर ने यहां किसी नये किले का निर्माण नहीं कराया। उसे अधिक से अधिक सम्राट समुद्रगुप्त के समय के दुर्ग के पुनर्निर्माण का ही श्रेय दिया जा सकता है। और यह कार्य अकबर ने किसी सुलह-ए-कुल सरीखी कथित धार्मिक भावना अथवा नगर स्थापना के उद्देश्य से नहीं, इस स्थल के सामरिक महत्व को दृष्टिगत रख किया था।

प्रश्न है- सम्राट समुद्रगुप्त ने अपना यह प्रशस्ति स्तम्भ किस स्थल पर और क्यों स्थापित कराया ? प्रश्न के प्रथम भाग का उत्तर स्तम्भ का नामकरण ‘प्रयाग स्तम्भ’ स्वयं दे देता है। जबकि दूसरे प्रश्न का उत्तर यहां
हजारों हजार वर्ष से लगनेवाले ‘कुंभ’ में निहित है। और निहित है वाल्मीकि रामायण से लेकर विभिन्न ऐतिहासिक, पौराणिक उल्लेखों में।

विजेताओं द्वारा अपनी विजय के चिह्न के रूप में स्थलों के नाम बदला जाना,अपनी विजय स्मृति को चिरस्थाई बनाने के लिए नये निर्माण कराना, स्तम्भआदि लगवाना भारत ही नहीं समूचे विश्व की मान्य प्राचीन परम्परा है।
किन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि विश्व के प्रत्येक देश में विदेशी सत्ताधीशों को अपदस्थ कर जब-जब उस देश के नागरिकों के हाथों में सत्ता के अधिकार आये, उन्होंने पहला काम दासता के इन स्थाई स्मारकों को बदलने का ही किया। पड़ौस के देश ‘म्यामार’ का बर्मा से परिवर्तन इसका ज्वलंत प्रमाण है।

भारत में भी 1947 में अंग्रेजों से स्वाधीनता मिलने के उपरान्त तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने अंग्रेजों द्वारा स्थापित अनेक स्मारकों, सड़कों भवनों आदि के नये नामकरण किये। भारत के प्रथम गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने तो अपने दुस्साहसभरे साहस के चलते महमूद गजनवी द्वारा ध्वस्त किये सुप्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर का ही पुनर्निर्माण करा डाला।

किन्तु यह निर्माण सरदार पटेल का व्यक्तिगत प्रयास था। अन्यथा तोकांग्रेस सरकार व इसके नेता जवाहरलाल नेहरू अपनी कथित पंथनिरपेक्षता की
नीति के चलते अंगे्रजपूर्व के गुलामी के इन अवशेषों को हटाने का साहस महज इस काल्पनिक भय के चलते नहीं कर पाते थे कि इससे ‘मुसलमान’ नाराज हो
जाएंगे। वह भी देश के उस भूभाग में जिसे अंग्रेजों से ‘हिन्दू भाग’ के नाम पर प्राप्त कर वे शासन कर रहे थे। देश का दुर्भाग्य यह था कि नेहरूजी के आभामंडल से त्रस्त कांग्रेसी नेतागण उन्हें यह भी नहीं समझा पाते थे
कि यह ‘धार्मिक’ नहीं राष्ट्र की अस्मिता से जुड़ा कार्य है।

फिर भी स्थानीय जनमत के दबाव के चलते नेहरू के समय में तथा उनके बाद में कांग्रेस सरकार के समय में ही अनेक स्थलों को उनके प्राचीन गौरवशाली नामकरण मिले। यह आज भी जारी है। मद्रास चेन्नई में बदला, बड़ौदा बडोदरा में, त्रिवेन्द्रम तिरूअनन्तपुरम् हुआ तो बाम्बे मुम्बई। कलकत्ता को कोलकाता से जाना गया तो वाल्टेयर को विशाखापत्तनम के नाम से। तंजौर तंजावुर बना तो अपना गुड़गांव गुरूग्राम। तमाम उदाहरण हैं।

ऐसे में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की मत्रिपरिषद ने बीते मंगलवार 16 अक्टूबर 2018 को जब इलाहाबाद को उसके पुराने नाम ‘प्रयागराज’ में बदलने का निश्चय किया तो देश भर के लोगों ने स्वयं को गौरवान्वित हुआ ही अनुभव किया। किन्तु अफसोस, राजनीतिक दलों से आयी प्रतिक्रियाएं अचम्भित करनेवाली थीं। इन्हें देख तो ऐसा लगता था मानोयोगी सरकार ‘बर्र के छत्ते’ में हाथ डाल बैठी हो।

उत्तरप्रदेश में जहां पूर्व की सरकारों ने अपने वोटबैंक की राजनीति में जिला, तहसीलों ही नहीं, योजनाओं तक के नाम बदले हों, योगी सरकार के इस परिवर्तन पर होनेवाली हायतौबा का उत्स यही समझ आता है कि राजनीतिक दलों को देश के गौरव से अधिक अपना वोट प्रिय है। तथा इसके लिए वे मुसलमानों को
भी ‘राष्ट्रद्रोही’ मान शर्मिंदा करने से बाज नहीं आते। अन्यथा वे ये देख अवश्य शर्मिंदा होते कि एक विदेशी विजेता द्वारा किये नामकरण को बदलने का विरोध मुसलमानों के छुटभैये नेता टाइप के लोगों के अलावा किसी समझदार मुसलमान ने भी नहीं किया है।

ऐसे में विरोधी राजनीतिज्ञों के विरोध की परवाह किये बिना योगी सरकार को चाहिए कि वह जल्द से जल्द सुल्तान व बादशाह नामधारी इन विदेशी लुटेरों का
महिमामंडन कर रहे प्रदेश के शेष स्मारकों, नगरों के नाम भी बदले। ताकि प्रदेश स्वाधीनता के 70 बरस बाद ही सही, अपने गुलामी के अवशेष मिटा स्वयं को गौरवान्वित कर सके।
-कृष्णप्रभाकर उपाध्याय

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