शनिवार, 20 अक्तूबर 2018

इक्षुमती के तटवर्ती क्षेत्र का सहस्त्राब्दि पर्यन्त का प्रतिरोध


नामकरण का आधार

मित्रो
मैं यहां अपने एटा व कासगंज जिलों के विदेशियों व विधर्मियों से हुए संघर्ष का संक्षिप्त वृत प्रस्तुत करने के लिए उपस्थित हूं। दोनों जनपद वर्ष 2008 से पूर्व एक ही थे।

मुजफ्फरनगर जनपद ने निकलकर कन्नौज के समीप गंगा में मिलनेवाली नदी ‘कालीनदी’ के किनारे बसे ऐतिहासिक संकिसा नगर (प्राचीन ंसंकाश्यपुरी)के विषय में महर्षि वाल्मीकि विरचित ‘रामायण’ के अयोध्याकांड के सर्ग 64 से 68 के मध्य दिये परिचय में इसे ‘इक्षुमती नदी’ बताया गया है। रामायण के अनुसार
संकाश्यपुरी भगवान राम के अनुज भरत व शत्रुघ्न की ससुराल थी। तथा उनकी पत्नी माण्डवी व श्रुतिकीर्ति वहां के तत्कालीन शासक तथा सीरध्वज जनक के
भाई कुशध्वज की पुत्रियां थीं।

यह इक्षुमती नदी एटा जनपद की जीवनरेखा है। जनपद विभाजन से पूर्व करीब-करीब मध्य से बहनेवाली यह नदी ही वर्तमान में नवसृजित कासगंज जिले की सीमा भी बनाती है। इसके करीब 50 किमी दूर यमुना नदी है तो प्रायः 50 किमी दूर ही मां गंगा। अतः इस समूचे क्षेत्र को इक्षुमती का तटवर्तीक्षेत्र कहना मेरे विचार से सुसंगत प्रतीत होता है।

हां, जिस काल का यहां विवरण प्रस्तुत है, उस काल में जनपद की यह भौगोलिक सीमा न थी अतः तत्समय के केन्द्रीय स्थलों का भी इस लेख में उपयोग है। सुखद बात यह है कि प्रायः सभी केन्द्रीय इस्थल भी इसी इक्षुमती के आसपास ही हैं।

इस नामकरण का एक अन्य आधार यह भी है कि यह क्षेत्र सबसे पहले इसी क्षेत्र से गुजरी आक्रमणकारियों की सेना की क्रूरता का शिकार बना है।
            
*सहस्त्राब्दिपर्यन्त संघर्ष*

अ-सुल्तनतकालीन संघर्ष

शक, हूण आदि हमलावरों का शिकार बन अंततः उन्हें भी अपने में समाहित करने में समर्थ हुए इस क्षेत्र में इस्लाम के अनुयायियों के हमले महमूद गजनवी
के भारत पर आक्रमण के समय होने के प्रमाण मिलते हैं। 1017 में हुए महमूद गजनवी के हमलों में बरन (बुलंदशहर), कोल (अलीगढ़), महावन व मथुरा, कन्नौज व इटावा का असई किला तथा बदायूं हमलावरों की लूट का शिकार बने थे। इस काल में यह क्षेत्र कन्नौज का भाग माना जाता है।

यहां गजनवी के हमले के प्रत्यक्ष संकेत तो नहीं मिलते किन्तु कन्नौज से बदायूं की ओर जाते समय ‘मार्ग के 7 किले ध्वस्त करने’ के विवरण आभासित करते हैं कि इनमें एक से अधिक दुर्ग इस क्षेत्र के भी थे।

1017 से 1192-94 के 175 वर्षीय कालखंड में क्षेत्रीय प्रभुसत्ता में अनेक परिवर्तन हुए। इनमें राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र तृतीय का कन्नौज आक्रमण, कन्नौज पर अधिकार तथा अंततः बरज/बोदामयूतापुरी (बदायूं) को राजधानी बना स्थापित होना, उनके सहयोगी चालुक्य राजा सोमदत्त सोलंकी का प्राचीन तीर्थस्थली सोरों सूकरक्षेत्र को राजधानी बना स्थापित होना तथा अजमेर व
दिल्ली में चैहानों का प्रभुत्व व इनका अलीगढ़ तक शासन इस क्षेत्र को प्रभावित करनेवाली प्रमुख घटनाएं हैं।

तबकात-ए-नासिरी के अनुसार गजनी के शासक सुल्तान मसूद तृतीय के 1099-1115 के शासनकाल के किसी समय हाजी तुगातिनगिन गंगानदी पार कर उन स्थानों तक चढ़ आया था जहां सुल्तान महमूद गजनवी को छोड़ अन्य कोई नहीं गया था। वहीं दीवान-ए-सल्ली के अनुसार उसने (हाजी तुगातिगिन ने) अभागे राजा मल्ही को पकड़ लिया।

अनेक इतिहासकार इस विवरण को संदिग्ध मानते हैं। किन्तु इतिहासकार आरएस त्रिपाठी के अनुसार यह मल्ही वास्तव में बदायूं का राष्ट्रकूट नरेश मदनपाल था। राष्ट्रकूट नरेश लखनपाल के बदायूं अभिलेख के अनुसार इस (मदनपाल) की प्रसिद्ध वीरता के कारण (इस घटना से पूर्व) हम्मीर देवनदी गंगा तक पहुंच पाने में असफल रहा था।

वहीं गोविन्दचंद के 1104 के बसही अभिलेख के अनुसार गोविन्दचंद ने बार-बार प्रदर्शित (मुहुर्मुहुः) अपने रणकौशल से (मल्ही को न सिर्फ छुड़ाया वरन्)
हम्मीर को शत्रुता त्यागने पर विवश किया। संभवतः यही वह काल था जब राष्ट्रकूटों ने गहदवालों की ज्येष्ठता को स्वीकार उन्हें गाधि (कन्नौज का पुराना नाम) नरेश स्वीकारा।

मुहम्मद गौरी की विजय के बाद जनपद की स्थिति
किन्तु यह सब 1192ई. से पूर्व का घटनाक्रम है। चूंकि इस समूचे घटनाक्रम में किसी भी हमलावर का उद्देश्य भारतीय क्षेत्रों पर शासन करना नहीं रहा, अतः तात्कालिक क्षति के अतिरिक्त और कुछ नहीं खोया गया।

1192 में भारत को मुहम्मद गोरी की पाशविकता का उस समय शिकार होना पड़ा जब उसने तरायन के मैदान में दिल्ली संम्राट पृथ्वीराज चैहान को परास्त कर
उसकी दिल्ली अजमेर की सत्ता हस्तगत की।

मुहम्मद गोरी ने 1194 ई में चंदबार (फिरोजाबाद) युद्ध में कन्नौज नरेश जयचंद को पराजय दी तथा बनारस तक के उनके क्षेत्रों को लूटा। किन्तु कन्नौज अभी अक्षुण्य था। इसे गोरी ने 1198 में पुनः आकर ध्वस्त किया।

हां, इस मध्य गोरी के दास व भारतीय प्रतिनिधि कुत्बुद्दीन ऐबक व उसके सरदारों ने बरन, कोल व बरज जैसे क्षेत्रों पर अधिकार जमा लिया। कोल विजय
के बाद वर्तमान एटा जिले के मारहरा, बिलराम व पचलाना परगना के भूभाग उसके अधीन हो गये।

इसी काल में सैयद सालार मसूद गाजी नामक एक दुर्दान्त लुटेरा इस इक्षुमती नदी जिसे वह आब-ए-सियाह का नाम देता है, होता हुआ जिले के बिलराम, बेरंजा
(अब अतरंजीखेड़ा- स्यात् अत्यन्त हिंसा के कारण विख्यात नाम) व विल्सढ़ आदि होता व इन्हें नष्ट करता हुआ बहराइच तक पहुंचने में सफल रहा। यहां इसे वीरवर सुहेलदेव ने मृत्युदंड दिया।

गोरी के आक्रमण व विजय से इस क्षेत्र के चैहान व राठौर ही नहीं बिखरे, कुछ और भी शक्तियां थीं जिनके नामशेष रह गये। ऐसी ही एक शक्ति थी- बदायूं के राष्ट्रकूट तथा सोरों के सोलंकी (चालुक्य)। बदायूं अब नवस्थापित दिल्ली सुल्तनत का ऐसा प्रमुख सूबा था जहां के कई शासन दिल्ली के सुल्तान बनने में सफल रहे तो कई सुल्तनत से अपदस्थ होकर यहां रहे। वहीं सोलंकी संभवतः राष्ट्रकूटों के अधीन थे। इसीलिए सोरों को ब्राहमणों को दान दे वे भी बदायूं जिले के बसोमा नामक स्थल को केन्द्र बना स्थापित हुए। हालांकि इस क्षेत्र में उनकी ताली (गोस्वामी तुलसीदास की ननिहाल) ठिकाने पर सोलंकी नरेश के रूप में सत्रहवीं सदी तक, जबकि मतांतरित होने पर मुस्लिम नबाव के रूप में समीपवर्ती मोहनपुर कस्बे में 1947 तक उपस्थिति बनी रही।

कन्नौज पतन के उपरान्त राठौरी शक्ति जयचंद के पुत्र महाराजा हरिश्चन्द्र (उपनाम बदराईसेन) के नेतृत्व में पहले वर्तमान इटावा जनपद के असई दुर्ग को राजधानी बनाकर केन्द्रित हुई तथा इसके भी पतन होने पर वह खोर (वर्तमान नाम शम्शाबाद, जनपद फरूखाबाद) में स्थापित हुए।

1210ई में दिल्ली सुल्तान शम्शुद्दीन अल्तमश के हाथों हुए खोर के पतन के बाद राठौरों की स्थिति और बिगड़ गयी। उनकी ज्येष्ठ शाखा महाराजा हरिश्चन्द्र के नेतृत्व में राठौर पहले बदायूं में स्थापित हुई किन्तु यहां भी सफलता न मिलने पर मुदई होते हुए अंततः जौनपुर के जाफराबाद मछलीशहर जा पहुंची जबकि कनिष्ठ शाखा ने राजस्थान की ओर रूख कर जोधपुर जैसे राज्य बसाए। जबकि राठौरों की दूसरी शाखा ने एटा जनपद के विल्सढ़, आजमनगर, सोंहार, बरना आदि होते हुए अंततः राजा का रामपुर नगर की स्थापना कर उसे अपनी राजधानी बनाया।

ऐतिहासिक अनुसंधान, छिटपुट उल्लेख, अनुमान व बाद के वर्षो में राठौर नरेश द्वारा अपने दामाद को दहेज में दिये जाने के कारण प्रतीत होता है कि क्षेत्र के जलेसर व सोरों दुर्ग को छोड़ क्षेत्र का शेष भूभाग इस काल में राठौरों के अधीन था।

एबक ने मेरठ, बरन, कोल, बरज(बदायूं) व कन्नौज को अपनी सत्ता का प्रमुख केन्द्र ‘इक्ता’ बनाया तथा जिले के मारहरा, बिलराम व जलेसर क्षेत्र कोल इक्ता के, सोरों व बदरिया क्षेत्र बरज इक्ता के, सकीट बयाना इक्ता के तथा
जनपद के शेष भाग कन्नौज इक्ता के अधीन किये। आगे चलकर सकीट को इटावा के नाम से बनाई गयी नयी इक्ता के अधीन कर दिया गया।

जय-पराजय के इस खेल में भारतीय पक्ष के हाथों भले ही तत्समय पराजय हाथ लगी। किन्तु यह उनकी जूझ मिटने की जिजीविषा व मनोबल को तोड़ने में अथवा
उन्हें हतोत्साहित करने में सर्वथा असफल रही।

राठौरों की प्रमुख शक्तियों के जौनपुर व राजस्थान की ओर चले जाने के बावजूद यहां शेष रहे राठौर शासकों ने स्थानीय जनों के सहयोग से जल्द ही न सिर्फ अपने-अपने क्षेत्र ही स्वाधीन कराए बरन् हमलावरों के मार्ग में ऐसे कठिन गतिरोध उत्पन्न किये कि इन्हें समाप्त कने 1266में तत्कालीन दिल्ली सुल्तान नासिरूद्दीन महमूद को मार सुल्तान बने उसके सेनाधिकारी बहाउद्दीन
बलबन को स्वयं आना पड़ा।

सुल्तनतकालीन वृत्तलेखक (इतिहासकार नहीं) बरनी के अनुसार इस काल तक इस क्षेत्र की स्थिति इतनी बुरी हो चुकी थी कि ‘दिल्ली के आसपास रहनेवाले मेवों के भय से नगर के पश्चिमी द्वार दोपहर की नमाज के बाद बंद कर दिये जाते थे। द्वार बंद होने के बाद किसी का इतना साहस न था कि वह वहां स्थित मकबरों व तालाबों की भी सैर को जा सके।

ऐसी स्थिति में सुल्तान बनने के बाद बलबन ने सबसे पहले तो मेवों का दमन करने के लिए वहां के जंगल कटवाए तथा उनके गांवों में नृशंस कत्लेआम कराए।
और ज्यों ही इस ओर कुछ सफलता मिली, उसने दूसरी समस्या- भारतीय नरेशों द्वारा स्वाधीन कराये क्षेत्रों को पुनः अधीन करने के प्रयास करने शुरू
किये। जियाउद्दीन बरनी के शब्दों में कहें तो दिल्ली से लगे दोआब के क्षेत्रों का हाल तो इतना बुरा था कि प्रायः समूचा क्षेत्र स्वाधीन तो था ही, मुस्लिम शासकों के प्रति इतना असहिष्णु था कि उनके संरक्षण में चलनेवाले
व्यापार के गंगानदी मार्ग पर अपना कड़ा अधिकार जमाए था।

बलबन के हिन्दुस्थान (वास्तव में अवध आदि वे स्वाधीन क्षेत्र जो इस काल
में दिल्ली सुल्तनत के अधीन नहीं थे) से होनेवाले व्यापार की बड़ी बाधा इस
क्षेत्र के पटियाली, कम्पिल व भोजपुर के दुर्ग तथा वहां के स्वाधीन नरेश
(बरनी जिन्हें विद्राही कहता है) थे।
बरनी के अनुसार हिन्दुस्तान का मार्ग खोलने की दृष्टि से दो बार नगर से
कूच किया। (सहज अनुमान है कि पहले प्रयास में उसे असफलता मिली)। ‘वह
कम्पिल और पटियाली पहुंचा तथा वहां 5-6 मास रहा। (लगता है कि बलबन का यह
दूसरा प्रयास भी असफलता की ओर बढ़ रहा था। अतः खिसियाए)बलबन ने ‘बिना किसी
सोच-विचार के डाकुओं और विद्रोहियों (वास्तव में स्वाधीन शासकों व
क्षेत्रीय जनता) का संहार किया।
इससे हिन्दुस्थान का मार्ग तो खुला ही, दिल्ली में लूट की इतनी सम्पत्ति
पहुंची कि वहां दास व भेड़ें सस्ती हो गये। 6 माह के नृशंस कत्लेआम के बाद
पटियाली, कम्पिल व भोजपुर के दृढ दुर्गो को नष्ट कर वहां ऊंची व विशाल
मस्जिदें बनवाईं तथा यह समूचा क्षेत्र अफगानों को कररहित भूमि सहित सोंपा
गया।
सहज कल्पना की जा सकती है कि जिस क्षेत्र ने 6 माह नृशंस कत्लेआम सहा हो,
वहां की क्या दशा होगी। किन्तु त्रासदी के ये क्षण भी मातृभूमि की
स्वाधीनता के उपासकों के मार्ग की बाधा न बन सके।
तत्कालीन राठौर नरेश (संभवतः बेणुधीरसिंह) ने अपनी शक्ति का मूल्यांकन
करते हुए जब स्वयं को भावी प्रतिरोध में असमर्थ पाया तो उन्होंने एक
ऐतिहासिक पहल की। इसके अंतर्गत उन्होंने राठौरों की चैहानों से चलनेवाली
पारम्परिक वैमनस्यता को समाप्त कर अपनी पुत्री की शादी इस काल तक
नींवराना में स्थापित हो चुके चैहान नरेश चतुरंगदेव के पुत्र कुंवर
संकटसिंह से कर दी। राजस्थान के जगाओं के विवरणों में इसकी तिथि संवत
1322 (1265ई.) अंकित है।
राठौर नरेश ने इस विवाह के उपलक्ष्य में संकटसिंह को 24 गांव दहेज में
दिये। प्रथम दृष्ट्या देखें तो यह सामान्य सी विवाह की घटना प्रतीत होती
है। किन्तु इसमें इस तथ्य को सम्मिलित कर लिया जाय कि- ये गांव नहीं
परगना थे तथा पश्चातवर्ती वर्षो में यहां विकसित हुए चैहानों के राज्य व
उनके राठौरों से गठबंधन के कारण ही जनपद में 1266 ई. में स्थापित रिजोर
के चैहानी राजवंश, महाराजा जयचंद के समय से ही चले आ रहे राजा का रामपुर
के राठौर राजवंश 1947 तक निर्वाध शासन करते रहे। इसके अलावा इस गठबंधन की
परिणति ही क्षेत्र में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की मशाल थामनेवाले
एटा/हिम्मतनगर बझेरा व मैनपुरी के राजवंश हैं। भ्पदकन जतपइमे ंदक बंेज.
ेीमततपदह  के विवरणों तथा स्थानीय चैहान शासकों के अभिलेख स्वयं को
इन्हीं संकटसिंह के वंशज बताते हैं।
जगाओं के विवरणों में मिलनेवाले संकटसिंह के दो रानियों से हुए 21
पुत्रों में वितरित 24 परगनों के इस नवसृजित राज्य में राव सुमेर को
इटावा, धीरराज को रिजोर, प्रतापरूद्र को भोगांव, जयचंद्र को बिलराम तथा
चंद्रसेन को चंदबार दिया जाना दर्शाया गया है। इसके अलावा एटा जिले का
मारहरा, सकीट, कासगंज जिले का पटियाली, फरूखाबाद जिले का कम्पिल आदि भी
चैहानी शक्ति के केन्द्र रहे हैं। ऐसे में अलीगढ़ जिले के अतरौली से लेकर
इटावा जिले तक के परगनों को एकत्र करें तो पाएंगे कि यह चैहानों के
विभिन्न ठिकाने न होकर एक सुविस्तृत राज्य था। बस इसी गठजोड़ के बाद इस
क्षेत्र का इतिहास बदलने लगा।
1265ई. में इस क्षेत्र में स्थापित हुए इन चैहानों ने विधर्मियों व
हमलावरों से चले संघर्ष को एक नई शक्ति दी। फलतः यह समूचा क्षेत्र बिना
किसी पहाड़ आदि प्राकृतिक अवरोध के भी विधर्मियों की राह का लगभग 300 वर्ष
तक बड़ा अवरोध बना रहा।
छिटपुट संघर्ष कितने और कब-कब हुए, इसका तो विवरण अब नहीं मिलता किन्तु
सकीट में लगा बलबन का 1285ई. का शिलालेख इस तथ्य की पुष्टि अवश्य करता है
कि इस नवोदित चैहानी शक्ति को समाप्त करने स्वयं सुल्तान बलबन को आना पड़ा
था।
लगभग डेढ़ शताब्दी तक किये गये सफल प्रतिरोध के चलते अब दिल्ली के सुल्तान
बन चुके इन हमलावरों को भी समझ आ गया कि इन्हें समाप्त करना संभव नहीं।
कुछ कारण इन हमलावरों के आंतरिक संघर्ष ने भी दिये। परिणाम, 1351ई. में
दिल्ली के सुल्तान बने फीरोजशाह तुगलक ने दिल्ली की नाममात्र की सत्ता
स्वीकार लेने की शर्त पर इन्हें इनके क्षेत्रों का स्वतंत्र अधिपति
स्वीकार लिया। सुल्तान ने यहां के तीन नरेश (राय मंदारदेव, राय सुबीर व
रावत अधरन) को अपने उस दरबार में ‘कालीनरहित फर्श पर बैठने का
विशेषाधिकार’ भी दिया जहां उसके 10-12 सरदारों के अतिरिक्त राजवंश के
सदस्यों को भी बैठने का अधिकार न था।
(क्षेत्रीय नरेशों की इस उपलब्धि को यदि हम सामान्य संदर्भों में देखेंगे
तो पाएंगे कि यह अत्यन्त अपमानजनक समझौता था। किन्तु यदि इसकी तुलना बाद
के कालखंड में मुगलों के यहां प्रसन्नतापूर्वक चैकी-पहरा लगानेवाले अपने
अनेक ताजदारों से करेंगे तो यह उनसे अधिक सम्मानजनक संधि प्रतीत होगी।)
क्षेत्र से हिन्दू नागरिकों को समाप्त करने या उन्हें बलात् इस्लाम में
परावर्तित करने का लक्ष्य लेकर चलनेवाले सुल्तानों व उनके सशक्त
सिपहसालारों के विरूद्ध यह बड़ी जीत थी। अतः क्षेत्रीय नरेशों ने भी यह
अवसर स्वीकार इसे क्षेत्र की शान्ति के रूप में प्राप्त किया।
किन्तु यह संधि भी अधिक काल तक न चली। दिल्ली सुल्तान व उसके सरदारों की
बाद की गतिविधियों ने क्षेत्रीय शासकों को संधि तोड़ने को विवश किया तो
हमलावरों को इन्हें समाप्त कर देने को।
1377-78 आते-आते दोनों पक्षों में हुए भीषण युद्ध में सुल्तनत के
अभिलेखानुसार सकीट के राय सुबीर, भोगांव के राय अधरन, इटावा के मुकद्दम
आदि परास्त होने पर गिरफ्तार कर दिल्ली लाये गये। जबकि वास्तव में इस के
पुत्र मुहम्मद शाह के समय (1390 ई.) हम वीरसिंह, राय सुबीर, अधरन,
जीतसिंह राठौर, भोगांव के मुकद्दम वीरभान, चंदवार के मुकद्दम अभयचंद से
सुल्तानी सेनाओं को युद्धरत पाते हैं।
सुल्तनत के विवरण 1393 में पुनः इटावा के नरसिंह सहित सर्वधरण, जीतसिंह
राठौर, वीरभान व अभयचंद के विद्रोहों का विवरण दे बताते हैं कि 1392-93
में सुल्तनत के मुकर्रब-उल-मुल्क ने खोर के उद्धरणदेव (सर्वधरण), जीतसिंह
राठौर, वीरभान आदि को समझौता वार्ता के नाम पर कन्नौज बुलाया तथा इनकी
षड्यन्त्रपूर्वक हत्या करा दी। इस हत्याकांड से एकमात्र राय सुबीर बच
सके। कारण, किसी कारणवश वे इस वार्ता के लिए कन्नौज गये ही नहीं थे।
1400ई. से लेकर 1450 तक के 50 वर्षो के स्वातंत्रय संघर्ष की कहानी तो
स्वयं सुल्तनतकालीन अभिलेख ही उस समय बता देते हैं जब वे बेशर्मीपूर्वक
उद्घोषणा करते हैं कि सुल्तान या उसका सरदार प्रायः प्रतिवर्ष इन नरेशों
के विद्राह के दमन को आता, राजा किले में बंद होता, फिर युद्ध करता,
पराजित होता तथा कुछ खराज दे या देने का वायदा करने पर माफ कर दिया जाता।
और लूट के अभियान में भाग ले रही सेनाएं लूटे गये माल को खराज बसूली का
नाम दे, इसका भरपूर प्रचार करते हुए वापस लौट जातीं।
1351ई. में सुल्तान बने बहलोल लोदी के समय इस क्षेत्र के भोगांव, कम्पिल,
पटियाली के दुर्गों सहित इस क्षेत्र के शासक रहे महाराजा प्रतापरूद्र
(राय प्रताप) क्षेत्र की इतनी बड़ी शक्ति से कि बहलोल व जौनपुर के शकीर्,
दोनों ही इनके सहयोग व मित्रता को लालायित रहते थे। ये जिस पक्ष में
पहुंच जाते उसकी विजय सुनिश्चित हो जाती। मध्यस्थ बनते तो दोनों में
समझौते करा देते। महाराजा प्रतापरूद्ध के परामर्श पर ही बहलोल ने शर्की
सरदार जूना खां से खोर छीन इसके वास्तविक अधिपति महाराज कर्णसिंह (राय
कर्ण) को सोंपा तथा इसकी प्राप्ति के लिए कई युद्ध लड़े।
बहलोल व क्षेत्रीय हिन्दू सरदारों की मैत्री और भी चलती अगर बहलोल ने दो
सामरिक भूल न की होती। इनमें प्रथम थी बहलोल के एक सरदार हमीद द्वारा
अपने पताका व नक्कारे बहलोल द्वारा राय प्रताप को दिये जाने को अपना
अपमान समझ महाराज के पुत्र की हत्या कर देना तथा बहलोल का बिना हमीद को
दण्ड दिये दिल्ली वापस लौट जाना। तथा दूसरी भूल थी बहलोल द्वारा इटावा का
प्रभार सकीट के महाराज सकटसिंह से छीन दूसरे सरदार को दिया जाना।
बहलोल के पहली भूल के परिणामस्वरूप राय प्रताप शर्कियों के खेमे में चले
गये तथा दूसरी भूल का परिणाम बहलोल को इटावा से वापसी के समय सकीट
क्षेत्र के चैहानों से मलगांव के मैदान में हुए युद्ध में 12 जुलाई
1489ई. को अपने प्राणों की आहुति देकर चुकाना पड़ा। (हालांकि सुल्तनत के
अभिलेख बहलोल की मृत्यु का कारण लू लगना बताते हैं।)
बहलोल की मृत्यु के बाद सुल्तान बना सिकन्दर लोदी हो या उसका पुत्र
इब्राहीम लोदी। इस समूचे कालखंड में इन क्षेत्रीय शासकों की स्थिति इतनी
सुदृढ थी कि ग्वालियर से लेकर दोआब तक के इन शासकों पर नियंत्रण स्थापित
करने को 15.6ई में सिकन्दर लोदी को अपनी राजधानी दिल्ली से आगरा
स्थानांतरित करने को विवश होना पड़ा। वहीं इस क्षेत्र के शासकों के
शक्तिबल का अनुमान लगाने के लिए यह तथ्य पर्याप्त है कि मेवाड़ नरेश
राणासांगा व बाबर के मध्य हुए खानवा के युद्ध के समय रिजोर नरेश द्वारा
राणा सांगा की सहायता के लिए अपने सरदार मानिकराव के नेतृत्व में 5 हजार
की सेना भेजी गयी थी।
आ- मुगलकालीन से अब तक का संघर्ष
बाबर के दिल्ली-आगरा के क्षेत्रों पर अधिकार के बावजूद इन स्वतंत्रता के
पुजारियांे की शक्ति कमजोर न पड़ी। 1540ई. में शेरशाह के हाथों पराजित
होकर आगरा की ओर भाग रहे बादशाह हुमायूं के साथ हुई कथित लूट हो अथवा
1542ई.में शेरशाह के साथ सकीट के मैदानों में हुआ युद्ध, प्रत्येक स्थल
इन जुझारू वीरों की जिजीविषा से परिचित करानेवाला ही है।
और फिर आया बादशाह अकबर का काल तथा अकबर से सकीट के ‘अठगढ़ा’ का 1562 का
युद्ध। इसे भला कौन भूल सकता है। अकबर के वृत्तलेखक अबुल फजल ने इसके
विवरण में अकबरनामा के पूरे 4 पृष्ठ खर्च किये हैं।
इस युद्ध की भीषणता के लिए स्यात् यह उल्लेख पर्याप्त होगा कि इस युद्ध
में सकीट व इसके अठगढ़ा के छोटे से क्षेत्र को विजित करने के लिए स्वयं
अकबर भी खुल्लमखुल्ला युद्ध का आह्वान कर न आ सका। उसनेे शिकार के बहाने
अकस्मात धावा बोला। जबकि इस युद्ध में उसके साथ करताक शिकारी दस्तमखां,
मुकाबिल खां, बंदाअली, मुनीन खां, जुझारखां फौजदार, ख्वाजा ताहिर
मुहम्मद, अलावलखां फौजदार, ततारखां, राजा भगवानदास व राजा बदीचंद्र जैसे
सरदार अपनी फौजें लिये हुए साथ थे।
अथाह फौज के सम्मुख होते हुए भी सकीट के वीरों ने पलायन या समर्पण का
मार्ग न चुन संघर्ष का पथ चुना तथा युद्ध में अकबर के अनेक सहयोगियों व
सैनिकों सहित अकबर के हाथी दिलशंकर को तो मौत के घाट उतारा ही, स्वयं
बादशाह अकबर के प्राण संकट में डाल दिये। हालांकि शत्रु के संख्याबल के
समक्ष अंततः उन्हें पराजित हो पलायन तथा बाद में परोंख कस्बे में 4000 की
संख्या के आग में जिन्दा जल जाने के रूप में इसका मूल्य चुकाना पड़ा।
इसके बावजूद वीरता की अग्नि के मद्धिम पड़ने के इतिहास में कोई संकेत नहीं
मिलते। अकबर के काल में ही उसके सेनापति हमीदखां टुकड़िया से तत्कालीन
अवेसर नरेश का न्यौराई के जंगलों में हुआ युद्ध हो या प्दकपंद
भ्पेजवतपबंस त्ंकमते ठल श्रमउमे ीण् ळमदेम के अनुसार सकीट के वीरों
द्वारा अकबर को आगरा में ही घेरकर मारने का प्रयास- इन वीरों का एकमेव
लक्ष्य अपनी व अपनी मातृभूमि की स्वाधीनता ही रहा।
मुगल सत्ता के उत्कर्ष के दिनों में इनके प्रयासों के विवरण अप्राप्य से
हैं। किन्तु इस काल में भी ये अपना अस्तित्व बचाए रखने में सफल रहे- यह
तथ्य स्वयं प्रमाण है कि शत्रु इनका हनन नहीं कर सका। किन्तु मुगलिया
शक्ति के अवसान के पलों में- खासकर मराठा उत्सर्ग के समय हम एटा के
तत्कालीन शासक महाराजा हिम्मतसिंह को 18वीं सदी के अंतिम दशक व 19वीं सदी
के आरम्भ में मराठों की ओर से अलीगंज में तहसील स्थापित कर मुगल सूबेदार
फरूखाबाद के बंगश नबाव से मराठाओं की चैथ वसूली करते पाते हैं। साथ ही
करीब 2.5 लाख वार्षिक राजस्व के भूभाग के अधिपति महाराजा को मराठाओं से
इस चैथ वसूली में होनेवाले व्यय की प्रतिपूर्ति में बंगश नबावों के
क्षेत्र में मिले 27 गांव के ताल्लुका का हिम्मतनगर बझेरा नाम से
मुख्यालय बना शासन करते हुए पाते हैं।
स्मरण के योग्य यह भी है कि 1857 के समर के समय एटा का नेतृत्व करनेवाले
महाराजा डम्बरसिंह इन्हीं महाराजा हिम्मतसिंह (के पुत्र महाराजा मेघसिंह
के पुत्र) के पौत्र थे। जबकि मैनपुरी के महाराजा तेजसिंह राय प्रताप के
वंशज थे। इस संग्राम के तीसरे नायक अल्पवयस्क रिजोर नरेश खुशालसिंह व
उनके सर्वराकार सकीट के चैहानों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे।
हरिकथा की भांति इक्षुमती तट की वीरता की कहानी अभी और भी है। यह तो
मात्र सार ही है। इसे जितना खोजने का प्रयास करेंगे उतना पाते जाएंगे।
फिलहाल तो में अपनी बात का समापन अपने क्षेत्र के स्वाधीनता प्रेमियों की
भावना को भारतरत्न अटलबिहारी बाजपेयी की कविता से मुखरित करना चाहूंगा कि
हार नहीं मानूंगा, रार नई ठानूंगा। काल के कपाल पर, लिखता मिटाता हूं।
गीत नया गाता हूं।
धन्यवाद
कृष्णप्रभाकर उपाध्याय
संवाददाता
हिन्दुस्थान समाचार
50, अरुणानगर, एटा

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